गुरुवार, 15 अप्रैल 2021

भाषा को एक ऐसा दरिया होने की ज़रूरत है जो दूसरी ज़बानों को भी ख़ुद में समेट सके

20 साल की उम्र तक मैं भी अपने कई अन्य बिहारी साथियों की तरह "Vast" को "भास्ट", "शाम" को "साम", "सड़क" को "सरक" और "Fool" को "फूल" बोलता रहा। 

अफ़सोस इस बात का नहीं था कि मैं ग़लत बोलता या ग़लत लिखता था, तकलीफ़ इस बात की थी कि मुझे यह पता ही नहीं था कि मेरे लिखने और बोलने में कितनी ग़लतियाँ थीं।

इसके लिए ज़िम्मेदार किसे ठहराया जाए? अपनी कमअक़्ली को या पढ़ाई-लिखाई की उस परिपाटी को जिसमें मैं बड़ा हुआ?

अगर आप भी मेरे ही आयुवर्ग (30-35 वर्ष) और मेरी ही पृष्ठभूमि के हैं, तो आपको बचपन में रट्टा मारकर वर्णमाला के अक्षरों को याद करते हुए यह बोलना याद होगा - य, र, ल, व, ह, तालव्य स, दन्त स, मूर्धन्य स, अच्छ, त्र, ज्ञ। और ज़रा वह भी याद कीजिए   W से व, Bh से भ। किताबों में कभी नहीं बताया गया कि V से भ होता है लेकिन हम "इंडिया इज अ भास्ट कंट्री" बोलने के आदी हो गए थे।

इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि उच्चारण का सूत्र समझाकर भी हमारा एजुकेशन सिस्टम हमें यह न समझा सका कि तालु से कभी "स" का उच्चारण हो ही नहीं सकता, उससे "श" का ही उच्चारण निकलेगा। अपनी बत्तीसी को नज़दीक लाए बिना "स" का उच्चारण निकल ही नहीं सकता। मूर्धन्य तो ख़ैर अभी भी टेढ़ी खीर है।

जब अपनी ही मातृभाषा में सही बोलना न आए तो उर्दू और अंग्रेज़ी के लफ़्ज़ों का सही उच्चारण कर पाना तो ख़याली पुलाव ही था।

लेकिन जब जान पर बन आए तो एक कोस दूर जल रहा दीया भी कड़कड़ाती ठंड से लड़ने का साहस दे जाता है। संक्षेप में, डूबते को तिनके का सहारा।

दिल्ली आ तो गया था पढ़ाई करने, लेकिन ख़र्च इतना था कि घर से भेजे गए पैसे नाकाफ़ी होते थे। कॉल सेंटर में नौकरी करने के अलावा और कुछ सूझ रहा नहीं था। मुश्किल बस यह थी कि कभी किसी तो कभी किसी और शब्द के ग़लत उच्चारण के चलते जॉब मिल ही नहीं पाती थी। तब डोमेस्टिक और इंटरनेशनल दोनों ही तरह के कॉल सेंटरों का स्टैंडर्ड बड़ा हाई हुआ करता था। 

यह समझने में ज़्यादा देर नहीं लगी कि जब तक अपनी ज़बान ठीक नहीं करूँगा, उर्दू और अंग्रेज़ी की ज़बान ठीक नहीं होने वाली। और जब तक ज़बान ठीक नहीं होती, जॉब नहीं मिलने वाली। 

हिन्दी ठीक करना उतना भी मुश्किल नहीं था। कॉलेज के गुरुओं और दिल्ली के साथियों की दया से इतना समझ आ गया कि मूलतः ड़, श और आ से शुरू होने वाले शब्दों (मसलन आराम को अराम या पाकिस्तान को पकिस्तान बोलना) का उच्चारण गड़बड़ हो रहा है।

बचपन की सरल हिन्दी व्याकरण वाली उन्हीं किताबों ने बताया कि ड़ सही तरह से बोलने के लिए अपनी जिह्वा को अपने तालु से टच करवाना होगा, जबकि बचपन में देखे गए मुख के अंदर की तमाम मुद्राओं को दर्शाने वाले चित्रों के बावजूद ड़ को र बोलने की ही आदत रही। दुर्भाग्य यह कि ऐसी आदत सिर्फ़ हम विद्यार्थियों की नहीं, बल्कि उन्हीं किताबों से हमें पढ़ाने वाले हमारे हिन्दी के शिक्षकों की भी थी।

बहरहाल कुछ ही महीनों में हिन्दी का ठीक-ठाक उच्चारण करने लगा, लेकिन यह फ़ॉर्मूला उर्दू और अंग्रेज़ी पर लागू नहीं हो पाता। उसके लिए कुछ दूसरा जुगाड़ निकालने की ज़रूरत थी, क्योंकि वहाँ तो शब्दावली की कंगाली भी एक बड़ी समस्या थी।

आख़िर यह पता कैसे चले कि मज़दूर में तो ज़ का उच्चारण होता है, लेकिन मजबूर में ज का उच्चारण होता है? यह कैसे

समझ आए कि Individual (इंडिविजुअल) में तो ज का उच्चारण होता है, लेकिन Visual में वही ज बोलने के लिए जीभ के अगले हिस्से को उल्टा घुमाना पड़ जाता है जबकि Visa में ज़ का उच्चारण होता है?

अंग्रेज़ी के साथ भी ज़्यादा मुश्किलें नहीं हुईं। सिंपल ज़बान है, बस पैटर्न समझने की देर है। 

J है तो ज, Z है तो ज़, D और DG वाले ज में ज (जैसे Individual, Grudge) और Si और Su वाले ज में जीभ का अग्रभाग उल्टा घुमाकर कुछ ऐसे बोलना है जैसे य और ज का मेल बन जाए (जैसे Vision, Measure, Pleasure, Treasure आदि)। Sh है तो श, S है तो स। चाहे Ph हो या F, उच्चारण फ़ ही होगा क्योंकि अंग्रेज़ी में तो फ का साउंड होता ही नहीं है, न ही ड़ का साउंड होता है और न ही क्ष का। इसलिए पैटर्न तलाश पाए तो अंग्रेज़ी बोलने को दुरुस्त करना कोई बहुत मुश्किल चुनौती नहीं थी।  

असली दुश्वारियाँ तो उस ज़बान को ठीक करने की थीं, जिसके बिना हिन्दी अधूरी है।

उर्दू के लफ़्ज़ों के लिए ख़ुद की मरम्मत के दो ही तरीक़े समझ आए और बहुत हद तक कारगर भी रहे, पहला तो अपने आस-पास उन लोगों की तलाश करना जो शुद्ध बोलते हों, और दूसरा उन सीखे हुए नए शब्दों को ठीक उसी तरह से लिखने की कोशिश करना, जैसे उन्हें बोला जाएगा।

अपनी लेखनी में नुक़्ते का इस्तेमाल शुरू करने का सिलसिला इसी तलफ़्फ़ुज़ को ठीक करने की चाहत के साथ शुरू हुआ। सही बोलने के लिए सही लिखना और सही लिखने के लिए सही पढ़ना साथ ही सही सुनना बहुत ज़रूरी है।

हिन्दी में उर्दू के इतने लफ़्ज़ हैं कि शायद उन लफ़्ज़ों के बिना हिन्दी मुकम्मल ही नहीं हो पाएगी। क्या बिना "दुकान" के हमारी दिनचर्या पूरी होगी? क्या बिना "ख़ुशी" और बिना "ग़म" के हमारे जज़्बात पूरे होंगे?

भले ही ग़लत उच्चारणों के साथ, मगर क्या इन शब्दों के बिना हमारी जवानी पूरी हो सकती है? कॉलेज के दिनों में "बेवफ़ाई" का रोना, घर बनवाने में "मज़दूरों" की "मेहनत", "मजबूरी" में मैगी खाना, जॉब के चक्कर में "जुदाई" सहना, "बेरोज़गारी" के "आलम" में "ज़माने" का ताना, अपने "ख़्वाबों" में "ख़ज़ाने" की "तलाश", बचपन में चाचा का टिफ़िन देने "क़ारख़ाने" जाना वग़ैरह-वग़ैरह।

क्या आप चाहेंगे कि क़ारख़ाने जाने की जगह आप "कार खाने" जाएँ? 

कई विद्वान साथियों की दलील है कि जब हिन्दी में नुक़्ते का कॉन्सेप्ट ही नहीं है, तो उसका इस्तेमाल करके अपनी हिन्दी को जबरन जटिल बनाने की क्या आवश्यकता है। मैं मानता हूँ कि न्याय-व्यवस्था के लिए बनाए गए क़ानूनों के अलावा अनिवार्यता तो किसी भी चीज़ की नहीं होनी चाहिए, लेकिन बहुधा फ़र्क़ स्थापित करना ज़रूरी हो जाता है। "दशहरे में नौ कन्याओं को जमाने का दस्तूर है" और जाने-अनजाने ही सही, "मर्दों के भीतर मिसॉजनी ज़माने का दस्तूर है।"

अंत में जाने-माने स्क्रीनप्ले राइटर जावेद सिद्दिक़ी साहब को अपने शब्दों में क्वोट करूँगा, "जो भाषा दरिया की तरह हो, जो दूसरी ज़बानों को भी ख़ुद में इस तरह समेट ले जैसे वे उसी भाषा की हैं, तो उस भाषा का विस्तार होते रहना तय है।"

ड़ और ढ़ में तो हम नीचे बिंदी लगाते ही हैं न, बस उसी परंपरा को अगर दूसरे अक्षरों पर भी ज़रूरत के अनुसार लागू कर दें तो इससे क्या बिगड़ जाएगा? मुझे नुक़्ते से परहेज़ का न तो मक़सद समझ आता है, न ही नुक़्ते का इस्तेमाल न करने का कोई फ़ायदा समझ आता है।

लेखक : राहुल कुमार आत्म-परिचय न्यूज़ डेस्क पर 10 साल के अनुभव के दौरान अनुवाद का हुनर सीखा। पिछले चार साल से फ़ुल टाइम अनुवाद के ही काम में लगा हूँ। अतीत में National Geographic, HBO, Discovery आदि के लिए टीवी शो और फ़िल्मों की स्क्रिप्ट ट्रांसलेट की है। फ़िलहाल ज़्यादातर काम यूज़र इंटरफ़ेस लोकलाइज़ करने का है। लिंक्डइन प्रोफ़ाइल लिंक : https://www.linkedin.com/in/webprofilerahulkumar


गुरुवार, 8 अप्रैल 2021

करियर के रूप में अनुवाद को क्यों चुनें?

      सदियों से अनुवाद ज्ञान के आदान-प्रदान का माध्यम रहा है। मानव सभ्यता के विकास में अनुवाद का विशेष महत्व रहा है। आज वैश्वीकरण के इस दौर में अनुवाद का महत्व और उसकी आवश्यकता कई गुणा बढ़ गई है। दुनिया भर में अनुवाद की बढ़ती मांग को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि यदि कोई इसे करियर के रूप में अपनाता है तो उसके लिए काम की कभी कमी नहीं रहेगी।

      यदि आपकी भाषाओं में रुचि है, आपमें कार्य के प्रति समर्पण और जुनून है, तो आपके लिए अनुवाद का क्षेत्र असीम संभावनाएं लिए प्रतीक्षा कर रहा है। यदि आप अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त किसी एक अन्य भाषा पर पूरा अधिकार रखते हैं, आपके सामान्य ज्ञान का स्तर अच्छा है, विभिन्न विषयों के बारे में सामान्य जानकारी है, तो आपके लिए अनुवाद क्षेत्र संभावनाओं के द्वार खोल सकता है। आइए, अनुवाद को करियर के रूप में चुनने के कारणों पर नजर डालें।

1. अपनी मर्जी के खुद मालिकयदि आप स्वतंत्र रूप से अनुवाद करना (फ़्रीलांस) चुनते हैं, तो कार्य-स्थल और कार्य-समय अपनी मर्जी से चुन सकते हैं। अपनी सुविधानुसार बेरोक-टोक घर में रह कर काम कर सकते हैं। आप अपने अन्य जरूरी काम भी निपटा सकते हैं और जब समय मिले अनुवाद कार्य भी कर सकते हैं।

2. रोचक और ज्ञानवर्धक कार्य: यदि आपके अंदर कुछ करने की बेचैनी और कुछ नया जानने की जिज्ञासा है तो समझ लें कि अनुवाद का क्षेत्र आपके लिए सर्वथा उपयुक्त है। अनुवाद करने के लिए आपको विविध विषय मिलेंगे जिससे हमेशा रोचकता बनी रहेगी। आपका शब्द-सामर्थ्य बढ़ता जाएगा और विषयों की जानकारी में वृद्धि होती रहेगी। इसलिए कभी इस कार्य से ऊब या बोरियत नहीं होगी।

3. कार्य की स्वतंत्रता: “अनुवाद को करियर क्यों बनाएं?” का यह सबसे महत्वपूर्ण जवाब है। जो स्वतंत्र रूप से कार्य करना पसंद करते हैं, उनके लिए अनुवाद सर्वथा उपयुक्त तो है ही, साथ ही भविष्य में संभावनाओं के अनेक द्वार भी खोलता है। आपको सरकारी या निजी क्षेत्र की नौकरी के उलट पर्यवेक्षकीय नियंत्रण, समय का बंधन, टोका-टाकी, असुरक्षा जैसी किसी समस्या का सामना नहीं करना पड़ता। जो विषय आपकी रुचि का हो, आप केवल उसी को चुनने और कार्य करने के लिए स्वतंत्र हैं। किसी भी नौकरी में आपको केवल एक सीमित दायरे में कार्य करना होता है, जबकि अनुवाद के क्षेत्र में विषयों की विविधता आपको ज्ञान के खुले आकाश में विचरण कराती है। आप अपनी आवश्यकताओं और सुविधा के अनुसार अंशकालिक या पूर्णकालिक कार्य करना चुन सकते हैं। किसी विषय विशेष में आपको अच्छा ज्ञान है तो उस विषय में अनुवाद करना आपके लिए बेहतर होगा। साहित्य में रुचि है तो साहित्यिक अनुवाद, तकनीक या विज्ञान में रुचि है तो तकनीकी अनुवाद, या आजकल लोकप्रिय हो रहे वीडियो गेम में रुचि है तो उसका अनुवाद करना चुन सकते हैं। यदि आप मेरी तरह से “जैक ऑफ ऑल ट्रेड्स, मास्टर ऑफ नन” हैं, तब तो आपके लिए सारे ही विषय उपलब्ध हैं।

4. विशेषज्ञता हासिल करने का अवसरअनुवाद करते-करते आप अपनी रुचि के विषय में विशेषज्ञता हासिल कर सकते हैं। उस विषय में जितना अधिक कार्य करेंगे उतने ही आप उस विषय के माहिर बनते जाएंगे। आपको अनुवाद के बाजार में विशेषज्ञ होने का लाभ हमेशा मिलेगा।

5. अच्छी आय के अवसर: संभवतः अनुवाद के क्षेत्र को करियर के रूप में चुनने के लिए सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण कारण यही है कि इस क्षेत्र में कार्य करने पर आपकी आय की कोई सीमा नहीं होगी। आपके मन में एक प्रश्न उठ सकता है कि वैश्विक बाजारीकरण के इस दौर में जब कंप्यूटरों के प्रयोग से मशीनी अनुवाद बहुत तेजी से विकसित होता जा रहा है तो मानव अनुवाद के क्षेत्र में संभावनाएं कैसे बचेंगी। आपको कतई आशंकित होने की आवश्यकता नहीं है। कम से कम गैर-यूरोपीय भाषाओं में मशीनी अनुवाद कभी भी सफल नहीं हो सकता। मशीन की सहायता से एक पुतला तो बनाया जा सकता है लेकिन उसमें कभी प्राण नहीं फूंके जा सकते हैं। मशीनों का निष्प्राण अनुवाद हमारी भारतीय भाषाओँ की आत्मा को कभी व्यक्त नहीं कर सकता। मानव अनुवाद की आवश्यकता हमेशा बनी रहेगी। अपने अनुवाद की दर आप स्वयं निर्धारित करते हैं। अपनी क्षमता और योग्यता के आधार पर आप चाहे जितनी ऊंची दर प्राप्त कर सकते हैं। हमारे ही देश में हजारों अनुवादक अनुवाद कार्य से प्रति माह छह अंकों की आय अर्जित कर रहे हैं।

6. करियर की प्रगति के असीम अवसरआप सोच सकते हैं कि भाषाओं के ज्ञान के आधार पर अन्य क्षेत्रों में भी कार्य किया जा सकता है तो अनुवाद को ही क्यों चुनें। जवाब बिलकुल सीधा है। अनुभव और कौशल में वृद्धि के साथ ही आपके करियर की भी प्रगति होती जाती है। आप स्वयं नियंत्रित करने लगते हैं कि आपको कब और कितना काम करना है, अपने काम का कितना पारिश्रमिक लेना है। यही चरम परिणति होती है कि सभी निर्णय स्वयं लेने की स्थिति में आप आ जाएं।

अंत में, याद रखिए, यदि आपके अंदर भाषाओं के प्रति रुचि है, जोश है, जुनून है तो अनुवाद से अच्छा कार्यक्षेत्र आपके लिए कोई और नहीं हो सकता।

लेखक : विनोद शर्मा

बीएसएनएल में सेवारत रहते हुए 1991 में अंग्रेजी में एमए किया, लगातार 1993 में हिंदी में एमए किया फिर 1995 में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय से अनुवाद में पीजी डिप्लोमा किया। 1995 से 1997 तक शौकिया अनुवाद कार्य किया। जुलाई 1997 से विधिवत पेशेवर अनुवादक के रूप में कार्य शुरू किया, लेकिन विकीपीडिया, रोजेटा फाउंडेशन, ट्रांलेटर्स विदाउट बॉर्डर्स आदि के लिए स्वैच्छिक अनुवाद भी चलता रहा। 2005 से कैट टूल्स से परिचय हुआ। सबसे पहले एसडीएलएक्स, फिर वर्डफास्ट पर काम करना शुरू किया। उसके बाद तो अनुवाद यात्रा चलती रही। नए-नए टूल्स शामिल होते रहे, नए-नए विषयों और क्षेत्रों में, नए-नए फाइल प्रकारों से होते हुए ये सफर जो चला तो चलता ही रहा। 2010 से 2020 तक दबिगवर्ड कंपनी के लिए गूगल रिव्यूअर के रूप में नियमित कार्य किया।

An Engineer with a passion for languages went on to complete Masters both in English and Hindi in 1991 and 1993 respectively. He did not stop here, completed a PG Diploma in Translation from IGNOU in 1995. Started with amateur translation for Wikipedia, Rosseta Foundation and Translators without Borders. Turned professional in 1997 and never stopped. Started using CAT tools in 2005 with SDLX, Wordfast, Idiom and since then no looking back. Worked as Google Reviewer through thebigword from 2010 to 2020. Specialization in Medical, Legal and Technical fields. Working mostly with foreign companies only.