शनिवार, 27 दिसंबर 2014

ज़रूरी है भाषा के सेनानी रॉबर्ट फ़िलिपसन के बारे में जानना

हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं जब शोषण के अनेक रूपों को विकास की सहज-स्वाभाविक प्रक्रिया साबित करने की कोशिश की जा रही है। चाहे अल्पसंख्यकों, आदिवासियों आदि की भाषाओं के हाशिये पर जाने की बात हो या उनके संसाधनों पर सरकार या बड़ी कंपनियों द्वारा कब्ज़ा किए जाने का मसला, हर बात को सामाजिक डार्विनवाद से जोड़कर विविधता के ख़त्म होने से जुड़े ख़तरों से मुँह मोड़ने की कोशिश की जाती है। जिन्हें इस तथाकथित विकास प्रक्रिया में अपना हिस्सा मिल जाता है, वे चुप्पी साधे रहते हैं। लेकिन कुछ विद्वान ऐसे भी हैं जो पर्दे के पीछे की राजनीति को न केवल समझने की कोशिश करते हैं बल्कि अपने मज़बूत तर्कों से हाशिये पर जा रहे लोगों के उपेक्षित मुद्दों को बहस के केंद्र में लाने का भी काम करते हैं। ऐसे ही एक विद्वान हैं रॉबर्ट फ़िलिपसन जिन्होंने 1992 में 'लिंग्विस्टिक इंपीरियलिज़्म' जैसी महत्वपूर्ण किताब लिखकर एक ऐसे मुद्दे पर विश्‍वव्यापी बहस छेड़ दी जिसकी अनदेखी करने की तमाम कोशिशें की जाती रही हैं। उनकी एक और महत्वपूर्ण किताब 'लिंग्विस्टिक इंपीरियलिज़्म कंटीन्यूड' 2013 में प्रकाशित हुई। इसमें उन्होंने इक्कीसवीं सदी में भाषाई साम्राज्यवाद के नए संदर्भों को शामिल किया। ब्रिटेन में जन्मे और अभी डेनमार्क के कोपेनहेगन बिज़नेस स्कूल में अंग्रेज़ी के शोध प्रोफ़ेसर के रूप में कार्यरत फ़िलिपसन ने यूरोप में अंग्रेज़ी के बढ़ते प्रभाव को लेकर 2003 में 'इंग्लिश ऑनली यूरोप?' नाम की किताब भी लिखी है। उनके तर्कों का महत्व इस तथ्य के कारण बढ़ जाता है कि उन्होंने ब्रिटिश काउंसिल में काम करने के दौरान ही अंग्रेज़ी के प्रभुत्ववादी रूप को देख लिया था।

हमें तमाम मंचों पर यह बात बार-बार कहने की ज़रूरत है कि जो संस्थाएँ अराजनैतिक होने का दावा करती हैं उनकी अघोषित राजनीति ज़्यादा ख़तरनाक होती है। ब्रिटिश काउंसिल जैसी संस्था की असलियत बताने वाले फ़िलिपसन का एक बहुत बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने अंग्रेज़ी को उत्पाद बनाकर बेचने वाली इस संस्था की एक ऐसी सुनियोजित कार्रवाई की ओर हमारा ध्यान खींचा है जिसका इतिहास औपनिवेशिक काल तक जाता है। जिस संस्था की स्थापना में ब्रिटेन की बड़ी तेल कंपनियों की भूमिका रही हो, उसे ख़ुद को अराजनैतिक घोषित करने के लिए कितनी राजनीति करनी पड़ती होगी इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है! 1989 में इसके महानिदेशक रिचर्ड फ़्रांसिस ने अंग्रेज़ी को उत्तरी समुद्र में मिलने वाले तेल के बाद ब्रिटेन की आय का दूसरा मुख्य स्रोत बताया था। 1935 में स्थापित ब्रिटिश काउंसिल में अंग्रेज़ी के सर्वश्रेष्ठ भाषा होने की भावना भरी हुई है और यह भावना भाषाई साम्राज्यवाद को मज़बूत बनाने वाली इसकी शिक्षा नीतियों में साफ़ दिखती है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्‍व बैंक जैसे संस्थानों से मिलने वाली आर्थिक सहायता की आड़ में विकासशील और अविकसित देशों में अंग्रेज़ी को आवश्यकता से अधिक महत्व देने वाली नीतियाँ लागू कराने में ब्रिटिश काउंसिल की बहुत बड़ी भूमिका रही है।

ब्रिटिश काउंसिल की रिपोर्टों में अंग्रेज़ी को उत्पाद के रूप में बेचने के लिए ऐसी मान्यताएँ प्रस्तुत की जाती हैं जिनका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं होता। इस आक्रामक विज्ञापन के सूत्र इस तथ्य से जुड़ते हैं कि इस संस्था का वार्षिक टर्नओवर लगभग 73 अरब रुपये है और इसका प्रमुख उद्देश्य लगभग तीन खरब रुपये के वार्षिक टर्नओवर वाले अंग्रेज़ी उद्योग को आगे बढ़ाना है। जब इतने बड़े उद्योग का मामला हो तो पूँजीवाद को तथ्यों के साथ खिलवाड़ करने में बहुत आनंद आता है। इस बात को फ़िलिपसन ने डेविड ग्रैडॉल नाम के भाषाविद की 2010 में प्रकाशित रिपोर्ट 'इंग्लिश नेक्स्ट इंडिया' की आलोचना करते हुए प्रभावशाली ढंग से सामने रखा है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि अंग्रेज़ी एक ऐसी भाषा है जिसकी मदद से संसार के किसी भी देश के लोगों से संपर्क किया जा सकता है, जबकि तथ्य यह है कि संसार की दो-तिहाई आबादी अंग्रेज़ी नहीं जानती है। लातिन अमेरिका, दक्षिण यूरोप, मध्य-पूर्व आदि में अंग्रेज़ी से काम चलाना नामुमकिन है। यह एक ऐसा तथ्य है जिस पर पर्दा डालने की कोशिश की जाती रही है। इस रिपोर्ट में अंग्रेज़ी को आधारभूत कौशल साबित करने की कोशिश की गई है जिसका उद्देश्य इस भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाना ही है। हमें ऐसी कोशिशों का विरोध करना चाहिए। यहाँ हमें फ़िलिपसन के तर्क से मदद मिलती है। उनका कहना है कि फ़िनलैंड, नीदरलैंड आदि देशों में लोगों की अंग्रेज़ी पर अच्छी पकड़ का कारण उन देशों में एक विषय के तौर पर अंग्रेज़ी की स्तरीय शिक्षा है न कि शिक्षा के माध्यम का अंग्रेज़ी होना। यह बहुत महत्वपूर्ण तथ्य है। हमें यह तय करना होगा कि हम ब्रिटिश काउंसिल के शिक्षा उत्पादों के व्यापार को बढ़ावा देने के लिए अपने देश की शिक्षा नीति में बदलाव लाएँगे या अपने देश के हितों को ध्यान में रखते हुए यह काम करेंगे। फ़िलिपसन हमें इस ख़तरे के प्रति आगाह करते हैं कि भारत में शिक्षा नीति तय करने वाले लोग ग्रैडॉल की रिपोर्ट में पेश की गई मान्यताओं को तथ्य मान सकते हैं। इस रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि अंग्रेज़ी यूरोप में व्यापार की भाषा है। फ़िलिपसन इस दावे की असलियत बताते हुए कहते हैं कि यूरोप में व्यापार के लिए कई भाषाओं का प्रयोग किया जाता है। रिपोर्ट में यूरोपीय विश्‍वविद्यालयों द्वारा अंग्रेज़ी को अपनाने की बात कही गई है। फ़िलिपसन बताते हैं कि इन विश्‍वविद्यालयों में अंग्रेज़ी को एक विषय के रूप में जोड़ा गया है और ऐसा करते हुए स्थानीय भाषाओं की अनदेखी नहीं की गई है। वे इस रिपोर्ट में अंग्रेज़ी सीखने के सर्वस्वीकृत तरीके के मौजूद होने की बात को भी ग़लत बताते हैं। ब्रिटिश काउंसिल अपने शिक्षा उत्पादों को बेचने के लिए ब्रिटेन की शिक्षण पद्धति को सभी देशों के लिए उपयुक्‍त साबित करने की कोशिश करती है। इससे मिलती-जुलती कोशिश बीज बेचने वाली कंपनियाँ भी करती हैं। विकासशील देशों के भ्रष्ट शासकों के कारण जिन किसानों को मजबूरी में उनका बीज खरीदना पड़ता है उन्हें इसकी कीमत कभी खेत के बंजर होने तो कभी फ़सल के बर्बाद होने के रूप में चुकानी पड़ती है। स्थानीय ज़रूरतों की अनदेखी करके विदेशी उत्पादों की ख़रीद के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा डाले जाने वाले दबाव पर पत्र-पत्रिकाओं में थोड़ी-बहुत बात हो भी जाती है लेकिन भाषा के मामले में ऐसे दबाव पर ध्यान नहीं दिया जाता। इस लापरवाही की कीमत पूरे देश को चुकानी पड़ेगी क्योंकि अपनी भाषा से दूर होने के कारण दिमाग़ का बंजर होना हर हाल में ज़मीन के बंजर होने जितना ही ख़तरनाक है।

अंग्रेज़ी के कई देशों में विस्तार से संबंधित लेखन में डेविड क्रिस्टल का नाम भी उल्लेखनीय है। उनके लेखन की सबसे बड़ी सीमा यह है कि वे अंग्रेज़ी के नवसाम्राज्यवादी संदर्भों को या तो समझने में विफल रहे हैं या उन्होंने जान-बूझकर साम्राज्य के सामने चुप रहने का फ़ैसला लिया है। उन्होंने अंग्रेज़ी के विस्तार का वर्णन करते हुए औपनिवेशिकता से जुड़े महत्वपूर्ण संदर्भों का उल्लेख ही नहीं किया है। उपनिवेशों के आज़ाद होने के बाद भी जिन संस्थानों ने साम्राज्यवाद की भाषाओं के वर्चस्व को बनाए रखने की कोशिश की उनके बारे में कुछ नहीं लिखने को केवल संयोग नहीं कहा जा सकता है। साम्राज्यवाद के पुराने तरीकों के अप्रभावी होने के बाद नए तरीके अपनाए गए। हमें इन तरीकों के बारे में ह्यू नामक विद्वान बताते हैं। उन्होंने 1992 में दक्षिण अफ़्रीका में विश्‍व बैंक के अधिकारियों द्वारा शिक्षण में द्विभाषिकता का समर्थन नहीं करने की घोषणा करने के बारे में लिखा है। यह विरोध औपनिवेशिकता के चंगुल से निकलने वाले देशों में साम्राज्यवाद से जुड़ी भाषाओं के वर्चस्व को कायम रखने के प्रयास का छोटा-सा हिस्सा था। विश्‍व बैंक से मिलने वाली आर्थिक सहायता में स्थानीय भाषाओं के उत्थान की कोई गुंजाइश नहीं होती है। स्थानीय भाषाओं से अंग्रेज़ी की ओर ले जाने की सुदृढ़ व्यवस्था बनाने वाले तंत्र को नवसाम्राज्यवादी तंत्र ही कहा जाएगा। जो लोग एशिया, अफ़्रीका आदि के पूर्व उपनिवेशों में अंग्रेज़ी के प्रति बढ़ते रुझान का उदाहरण देकर भाषाई साम्राज्यवाद की बात को नकारते हैं, वे यह भूल जाते हैं कि तंत्र के दबाव के कारण आम जनता की मानसिकता में बदलाव आना स्वाभाविक है। असल में अंग्रेज़ी के संदर्भ में दबाव और रुझान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

फ़िलिपसन हमारे लिए महत्वपूर्ण इसलिए भी हैं कि उन्होंने भाषा के मुद्दे पर बात करते हुए एक ऐसा सभ्यता विमर्श शुरू किया है जिसकी अनदेखी करके हम भाषाई साम्राज्यवाद को ठीक से समझ ही नहीं सकते। वे औपनिवेशिकता के संदर्भ में विजेताओं और विजितों दोनों की असामान्य मानसिक अवस्था का उल्लेख करते हैं। जहाँ विजेता अपनी भाषा को संसार की एकमात्र उपयोगी भाषा मानते हैं, वहीं विजित अपनी ही भाषाओं को हेय दृष्टि से देखने लगते हैं। उन्होंने अपने एक आलेख में विजेताओं की मानसिकता के बारे में बताते हुए आशीष नंदी की इस बात को उद्धृत किया है कि उपनिवेशवाद का भारतीयों की तुलना में अंग्रेज़ों पर अधिक असर पड़ा क्योंकि साम्राज्य के आदर्शों को ब्रिटेन के सभी वर्गों ने आत्मसात कर लिया था। इसी आलेख में उन्होंने साम्राज्य को बनाए रखने में मददगार शिक्षा पर बर्ट्रेंड रसेल के विचार को उद्धृत किया है। बर्ट्रेंड रसेल ने इस शिक्षा का मूल्यांकन करके बताया था कि अपने नागरिकों को ऐसी शिक्षा देने का उद्देश्य था ऐसे लोगों को तैयार करना जो सत्ता और शक्‍ति से जुड़े पदों के लिए योग्य हों। ऐसे व्यक्‍तियों में ऊर्जावान, भावहीन और चुस्त-दुरुस्त होने के गुण अपेक्षित थे। उन्हें इस तरह प्रशिक्षित किया जाता था कि उनकी मान्यताओं में किसी तरह का बदलाव संभव नहीं था। उन लोगों के मन में यह बात बैठ जाती थी कि उनके जीवन का एक मिशन है। यह मिशन था अपनी भाषा और सभ्यता के पूरे विश्‍व में प्रचार-प्रसार करना। बर्ट्रेंड रसेल ने इस बात पर आश्‍चर्य भी प्रकट किया कि यह शिक्षा अपने तमाम लक्ष्यों को पाने में सफल साबित हुई। उनके अनुसार इन लक्ष्यों को समझ, सहानुभूति, कल्पनाशक्‍ति आदि की कीमत पर प्राप्त किया गया था। हमें फ़िलिपसन की इस बात को याद रखना चाहिए कि आज भी पश्‍चिमी जगत में ऐसी चारित्रिक विशेषताओं वाले लोगों की कमी नहीं है। औपनिवेशिक शिक्षा के कारण भारत में ऐसी सोच वाले बहुत-से बुद्धिजीवी मिल जाएँगे जो साहित्य, दर्शन आदि के मामलों में अंग्रेज़ी की सर्वश्रेष्ठता की औपनिवेशिक मान्यता का समर्थन करते हैं। सच्चाई तो यह है कि जर्मन, रूसी, इतालवी, चीनी, जापानी जैसी भाषाएँ दर्शन, साहित्य, विज्ञान आदि में अंग्रेज़ी से किसी भी तरह कमतर नहीं हैं। न्गूगी वा थ्योंगों ने पूर्व-औपनिवेशिक देशों के बुद्धिजीवियों की उस मानसिकता के बारे में लिखा है जिसके कारण वे अपनी भाषाओं में छिपी संभावना से अनजान बने रहते हैं। जब समाज के महत्वपूर्ण मसलों के प्रति जनता को जागरूक बनाने वाले बुद्धिजीवियों में अपनी भाषाओं को लेकर हीनभावना रहेगी तो आम जनता की मानसिकता कैसी होगी इसके बारे में कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं है।

भाषा के मसले पर सही संदर्भों के साथ तर्क पेश करके ही अंग्रेज़ी के प्रचार तंत्र का सामना किया जा सकता है। अंग्रेज़ी को उत्पाद बनाकर उससे खरबों रुपये कमाने वाली संस्थाएँ अपनी प्रचार सामग्री को तथ्य के रूप में पेश करती हैं। अंग्रेज़ी को ज्ञान की प्राप्ति के एक साधन के रूप में पेश करने के बदले इसे एकमात्र साधन साबित करने की कोशिश की जाती है। इतिहास, राजनीति विज्ञान, समाजशास्त्र आदि की पढ़ाई के लिए अंग्रेज़ी को माध्यम बनाए रखने का मतलब है अंग्रेज़ी किताबों के करोड़ों रुपये के बाज़ार को बनाए रखना। अगर उच्च शिक्षा में भारतीय भाषाओं को शामिल किया जाएगा तो इससे यह बाज़ार मंदा पड़ जाएगा। इस बात को अच्छी तरह जानने-समझने वाली ताकतें शिक्षा नीति में अंग्रेज़ी के वर्चस्व को हटाने की हर कोशिश का ज़ोरदार विरोध करती हैं। ऐसी कोशिशें विश्‍व बैंक से लेकर ब्रिटिश काउंसिल तक हर स्तर पर देखी जा सकती हैं। इन कोशिशों को सिलसिलेवार ढंग से हमारे सामने प्रस्तुत करने वाले तमाम लेखकों की किताबों का भारतीय भाषाओं में अनुवाद होना चाहिए। आलोचना के हर स्वर को 'निरर्थक षड्यंत्र सिद्धांत' कहकर ख़ारिज़ करने की कोशिश की जाती है। ऐसे समय में फ़िलिपसन का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि वे ख़ारिज़ करने की इस प्रवृत्ति को उन बड़े फ़ैसलों और प्रक्रियाओं की जानकारी को सहेजकर रखने की कोशिश को हतोत्साहित करने का षड्यंत्र बताते हैं जिनकी बुनियाद पर शोषण और असमानता का तंत्र टिका हुआ है। अगर हमें लोकतंत्र की रक्षा करनी है तो हमें बहुभाषिकता को बढ़ावा देना ही होगा। हमें यह बात डंके की चोट पर कहनी चाहिए कि विविधता का सम्मान करने वाले आधुनिक विश्‍व में किसी एक भाषा को मानवता की भाषा नहीं कहा जा सकता है। यूरोप के लोगों ने यह बात पहले ही कह दी है। अब इसकी घोषणा करने की हमारी बारी है।

मेरा यह आलेख सामयिक वार्ता के नवंबर अंक में प्रकाशित हुआ है।