मंगलवार, 30 सितंबर 2014

हिंदी में वैज्ञानिक शब्दावली की समस्या (जनसत्ता से साभार)

मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक शब्दावली का कोश तैयार करने का बीड़ा उठाया हुआ है। वर्ष 1961 में संसद में पारित प्रस्ताव के मुताबिक सभी विषयों के लिए सभी भाषाओं में शब्दावली तैयार की जाएगी। हर भाषाई क्षेत्र में कार्यशालाएं आयोजित की जाती हैं, जहां भाषा और विषय के विद्वान एक साथ बैठ कर शब्दों पर बहस करते हैं और शब्दावली बनाते हैं। ऐसे शब्दकोश को तैयार करने का मकसद क्या होना चाहिए? आज तक चला आ रहा पुराना सोच यह है कि तकनीकी शब्दावली भाषा को समृद्ध बनाती है। पर इसमें समस्या यह है कि हमारी भाषाओं में समृद्धि को अक्सर क्लिष्टता और संस्कृतनिष्ठता का पर्याय मान लिया गया है। इसलिए तकनीकी शब्दावली पूरी तरह संस्कृतनिष्ठ होती है।

इसके पक्ष में कई तर्क दिए जा सकते हैं। वैज्ञानिक शब्दों में भिन्न अर्थों की गुंजाइश कम होती है। संस्कृत में व्याकरण और शब्द-निर्माण के नियमों में विरोधाभास नहीं के बराबर हैं। भाषा जानने वालों को संस्कृत शब्दों में ध्वन्यात्मक सौंदर्य भी दिखता है। पर विद्वानों की जैसी भी मुठभेड़ संस्कृत भाषा में होती रही हो, लोक में इसकी कोई विशेष जगह न कभी थी, और न ही आज है। इस वजह से कोशिश हमेशा यह रहती है कि शब्दों के तत्सम रूप से अलग सरल तद्भव शब्द बनाए जाएं। कइयों में यह गलत समझ भी है कि संस्कृत का हर शब्द हिंदी में स्वाभाविक रूप से इस्तेमाल हो सकता है। इसलिए विद्वानों में यह संशय पैदा नहीं होता कि शब्दावली क्लिष्ट हो रही है। सामान्य छात्रों और अध्यापकों को परेशानी झेलनी पड़ती है।

इसके विपरीत, मकसद पर एक समझ यह भी है कि शब्दावली ऐसी हो जो विज्ञान सीखने में मदद करे और विषय को रुचिकर बनाए। बीसवीं सदी के प्रख्यात भौतिकीविद रिचर्ड फाइनमैन ने अध्यापकों को दिए एक व्याख्यान में समझाया था कि शब्द महत्त्वपूर्ण हैं, उनको सीखना है, पर पहली जरूरत यह है कि विज्ञान क्या है, यह समझ में आए। ये दो बातें बिल्कुल अलग हैं और खासतौर पर हमारे समाज में जहां व्यापक निरक्षरता और अल्प-शिक्षा की वजह से आधुनिक विज्ञान एक हौवे की तरह है। इस तरह लोकतंत्र के निर्माण में इन दो प्रवृत्तियों की अलग राजनीतिक भूमिका दिखती है।

तकरीबन हर भारतीय भाषा में इन दो तरह की समझ में विरोध है। हिंदी में यह द्वंद्व सबसे अधिक तीखा बन कर आता है। बांग्ला, तेलुगू जैसी दीगर भाषाओं में उन्नीसवीं सदी तक काफी हद तक संस्कृत शब्दों की आमद हो चुकी थी। हिंदी में इसके विपरीत, जब से कविता से ब्रजभाषा विलुप्त हुई और खड़ी बोली हर तरह से मान्य भाषा बन गई, तद्भव शब्द काफी हद तक बचे रहे, पर तत्सम शब्दों का इस्तेमाल अटपटा लगने लगा। आजादी के बाद कुछ सांप्रदायिक और कुछ सामान्य पुनरुत्थानवादी सोच के तहत हर क्षेत्र में पाठों में तत्सम शब्द डाले गए। उस संस्कृतनिष्ठ भाषा को पढ़-लिख कर तीन-चार पीढ़ियां बड़ी हो चुकी हैं। हिंदी को जबरन संस्कृतनिष्ठ बनाने की यह कोशिश कितनी विफल रही है, यह हम सब जानते हैं। यह समस्या और गंभीर हो जाती है, जब नए कृत्रिम तत्सम या तद्भव शब्द बना कर भाषा में डाले जाते हैं।

एक समय था जब लोगों को लगता था कि धीरे-धीरे ये नए कृत्रिम शब्द बोलचाल में आ जाएंगे, पर ऐसा हुआ नहीं है। अब ग्लोबलाइजेशन के दबाव में सरकारों की जन-विरोधी अंगरेजीपरस्त नीतियों और अन्य कारणों से स्थिति यह है कि भाषाएं कब तक बचेंगी, यह सवाल हमारे सामने है। ऐसे में गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि इन कोशिशों का मतलब और मकसद क्या हो। अगर हम अपने मकसद में कामयाब नहीं हैं, तो वैकल्पिक तरीके क्या हों। क्या तत्सम शब्दों के अलावा तकनीकी शब्दों को ढूंढ़ने का कोई और तरीका भी है।

कुछेक उदाहरणों से बात ज्यादा साफ होगी। रसायन के कोश का पहला शब्द अंगरेजी के ऐबरेशन शब्द का अनुवाद ‘विपथन’ है। यह शब्द कठिन नहीं है, ‘पथ’ से बना है, जिसे बोलचाल में इस्तेमाल न भी किया जाए, हर कोई समझता है। ‘विपथ’ कम लोगों के समझ आएगा, जैसे मैथिल भाषियों के लिए यह आम शब्द है। ‘विपथन’ हिंदी के अधिकतर अध्यापकों को भी समझ नहीं आएगा, जबकि अंगरेजी में ऐबरेशन हाई स्कूल पास किसी भी छात्र को समझ में आता है। इसकी जगह अगर ‘भटकना’ से शब्द बनाया गया होता, मसलन ‘भटकन’, तो अधिक लोगों को पल्ले पड़ता। यहां तर्क यह होता है कि संस्कृत के नियमों के अनुसार ‘विपथन’ से कई शब्द बन सकते हैं, पर ‘भटकन’ से ऐसा संभव नहीं है। पर क्यों नहीं? ऐसे पूर्वग्रहों से मुक्त होने की जरूरत है। अज्ञेय और रघुवीर सहाय जैसे कवियों ने हिंदी में कई शब्दों को सरल बनाया और कई नए शब्द जोड़े।

यह विडंबना है कि एक ओर अखबारों के प्रबंधक संपादकों को अंगरेजी शब्दों का इस्तेमाल करने को मजबूर कर रहे हैं, तो दूसरी ओर बोलचाल के शब्दों के साथ सामान्य खिलवाड़ कर नए शब्द बनाना गलत माना जा रहा है। मसलन कल्पना करें कि कोई ‘भटकित’ शब्द कहे तो प्रतिक्रिया में हिंसा नहीं तो हंसी जरूर मिलेगी। अगर ‘भटक गया’ या ‘भटक चुका’ लिखें तो लोग कहेंगे कि देखो तत्सम होता तो दो शब्द न लिखने पड़ते।

हिंदी के अध्यापकों के साथ बात करने से मेरा अनुभव यह रहा है कि वैज्ञानिक शब्दावली के अधिकतर शब्द उनकी पहुंच से बाहर हैं। मिसाल के तौर पर अंगरेजी का सामान्य शब्द ‘रीवर्सिबल’ लीजिए। हिंदी में यह ‘उत्क्रमणीय’ है। हिंदी के अध्यापक नहीं जानते कि यह कहां से आया। क्या यह उनका दोष है? इसकी जगह ‘विपरीत संभव’ या और भी बेहतर ‘उल्टन संभव’ क्यों न हो! एक शब्द है ‘अनुदैर्घ्य’- अंगरेजी के ‘लांगिच्युडिनल’ शब्द का अनुवाद है। सही अनुवाद है- दीर्घ से दैर्घ्य और फिर अनुदैर्घ्य। हिंदी क्षेत्र में अधिकतर छात्र इसे अनुदैर्ध्य पढ़ते हैं। ‘घ’ और ‘ध’ से पूरी दुनिया बदल जाती है। ऐसे शब्द का क्या मतलब, जिसे छात्र सही पढ़ तक न पाएं!

ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं, जहां शब्द महज काले अक्षर हैं और वैज्ञानिक अर्थ में उनका कोई औचित्य नहीं रह गया है। जो शब्द लोगों में प्रचलित हैं, उनमें से कई को सिर्फ इस वजह से खारिज कर दिया गया है कि वे उर्दू में भी इस्तेमाल होते हैं, जैसे कीमिया और कीमियागर जैसे शब्दों को उनके मूल अर्थ में यानी रसायन और रसायनज्ञ के अर्थ में शामिल नहीं किया गया है। यह मानसिकता हम पर इतनी हावी है कि करीब तीस साल पहले मैंने प्रख्यात कथाकार और ‘पहल’ पत्रिका के संपादक ज्ञानरंजन को अपनी चिंता साझा करते हुए लिखा था कि हिंदी में वैज्ञानिक शब्दावली हिंदी-भाषियों के खिलाफ षड़्यंत्र लगता है। इससे जूझने के लिए हमें जनांदोलन खड़ा करने की जरूरत है। शब्दावली बनाने की प्रक्रियाओं के समाजशास्त्रीय विश्लेषण की जरूरत है। ऐसा क्यों है कि हिंदी क्षेत्र के नामी वैज्ञानिक इसमें गंभीरता से नहीं जुड़ते। जो जुड़ते हैं, उनकी भाषा में कैसी रुचि है? यह भी एक तकलीफ है कि पेशे से वैज्ञानिक होना और वैज्ञानिक सोच रखना या विज्ञान-शिक्षा में रुचि रखना एक बात नहीं है।

अधिकतर वैज्ञानिकों के लिए विज्ञान महज एक नौकरी है। चूंकि पेशे में तरक्की के लिए हर काम अंगरेजी में करना है, इसलिए सफल वैज्ञानिक अक्सर अपनी भाषा में कमजोर होता है। इस बात को ध्यान में रख सत्येंद्रनाथ बोस जैसे महान वैज्ञानिकों ने भारतीय भाषाओं में विज्ञान लेखन पर बहुत जोर दिया था। चूंकि हिंदी क्षेत्र में गरीबी, भुखमरी और बुनियादी इंसानी हुकूक जैसे मुद्दे अब भी ज्वलंत हैं, विज्ञान और भाषा के इन सवालों पर जमीनी कार्यकर्ताओं का ध्यान जाता भी है तो वे सवाल महत्त्वपूर्ण नहीं बन पाए हैं। हिंदी में विज्ञान-कथाओं या विज्ञान-लेखन के अभाव (कुछेक अपवादों को छोड़ कर) के समाजशास्त्रीय कारणों को ढूंढ़ा जाए तो भाषा के सवालों से हम बच नहीं पाएंगे।

आखिर समस्या का समाधान क्या है। शब्द महज ध्वनियां नहीं होते। हर शब्द का अपना एक संसार होता है। जब वे अपने संसार के साथ हम तक नहीं पहुंचते, वे न केवल अपना अर्थ खो देते हैं, वे हमारे लिए तनाव का कारण बन जाते हैं। खासतौर पर बच्चों के लिए यह गंभीर समस्या बन जाती है। अंगरेजी में हर तकनीकी शब्द का अपना इतिहास है। हमारे यहां उच्च-स्तरीय ज्ञान आम लोगों तक नहीं पहुंच पाया, इसके ऐतिहासिक कारण हैं, जिनमें जाति-प्रथा की अपनी भूमिका रही है। यह सही है कि अंगरेजी में शब्द की उत्पत्ति कहां से हुई, इसे समझ कर उसका पर्याय हिंदी में ढूंढ़ा जाना चाहिए। पर लातिन या ग्रीक तक पहुंच कर उसे संस्कृत से जोड़ कर नया शब्द बनाना किस हद तक सार्थक है- यह सोचने की बात है।

भाषाविदों के लिए यह रोचक अभ्यास हो सकता है, पर विज्ञान सिर्फ भाषा का खेल नहीं है। आज अगर तत्सम शब्द लोग नहीं पचा पाते तो उनको थोपते रहने से स्थिति बदल नहीं जाएगी। किसी भी शब्द को स्वीकार या खारिज करने का सरल तरीका यह है कि वह हमें कितना स्वाभाविक लगता है, इस पर कुछ हद तक व्यापक सहमति होनी चाहिए। अगर सहमति नहीं बनती तो ऐसा शब्द हटा देना चाहिए, भले ही भाषाविद और पेशेवर वैज्ञानिक उसकी पैरवी करते रहेंं।

यह संभव है कि जैसे-जैसे वैज्ञानिक चेतना समाज में फैलती जाए, भविष्य में कभी सटीक शब्दों की खोज करते हुए आज हटाए गए किसी शब्द को वापस लाया जाए। पर फिलहाल भाषा को बचाए रखने की जरूरत है। और समय के साथ यह लड़ाई और विकट होती जा रही है। गौरतलब है कि कई तत्सम लगते शब्द सही अर्थ में तत्सम नहीं हैं, क्योंकि वे हाल में बनाए गए शब्द हैं। कृत्रिम शब्दों का जबरन इस्तेमाल संस्कृत भाषा के प्रति भी अरुचि पैदा कर रहा है। यह बात संस्कृत के विद्वानों को समझ में आनी चाहिए। लोक से हट कर संस्कृत का भविष्य सरकारी अनुदानों पर ही निर्भर रहा तो यह पूरे उपमहाद्वीप के लिए बदकिस्मती होगी।

पर वैज्ञानिक शब्दावली का सरलीकरण आसानी से नहीं होगा। कट्टर पंडितों और उनकी संस्कृत का वर्चस्व ऐसा हावी है, कि सामान्य समझ लाने के लिए भी जनांदोलन खड़ा करना होगा। जब तक ऐसा जनांदोलन खड़ा नहीं होता, हिंदीभाषियों के खिलाफ यह षड़्यंत्र चलता रहेगा। यह भाषा की समृद्धि नहीं, भाषा के विनाश का तरीका है। संभवत: इस दिशा में जनपक्षधर साहित्यकारों को ही पहल करनी पड़ेगी। आखिरी बात यह कि मुद्दा महज तत्सम शब्दों को हटाने का नहीं, बल्कि सरल शब्दों को लाने का है। विज्ञान-चर्चा जब सामान्य विमर्श का हिस्सा बन जाएगी, तो जटिल सटीक शब्दों को वापस लाया जा सकेगा।

लेखक: लाल्टू

जनसत्ता से साभार



सोमवार, 22 सितंबर 2014

सीसैट विवाद के अनदेखे पहलू

सिविल सेवा परीक्षा में 2011 से लागू हुए सीसैट के विरोध में जो आंदोलन इस साल उठ खड़ा हुआ है उसमें भारतीय लोकतंत्र में समाज के सभी तबकों की भागीदारी के सवाल से जुड़ा आंदोलन बनने की संभावना मौजूद है। इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस संभावना को यथार्थ में बदलने की लिए जो इच्छाशक्‍ति चाहिए वह अभी हमारे समाज और राजनीति में मौजूद नहीं है। हालाँकि इस मुद्दे पर समाज के प्रगतिशील तबके को संगठित करने के प्रयास को जारी रखने का अपना अलग महत्व है। हाल के दशकों में भाषा के मसले को जिस मज़बूती से इस आंदोलन में सामने रखा गया है उसकी दूसरी मिसाल शायद ही कहीं मिलेगी।

हमारे लोकतंत्र के लिए यह शर्म की बात है कि अपनी भाषाओं को सिविल सेवा परीक्षा में जगह दिलाने की कोशिश कर रहे परीक्षार्थियों को पुलिस की मार झेलनी पड़ती है। दिल्ली के मुखर्जी नगर में भारतीय सीमा की सुरक्षा करने वाले जवानों को तैनात करने के फ़ैसले की पृष्ठभूमि को समझे बिना इस आंदोलन को ठीक से समझना नामुमकिन है। मुखर्जी नगर में लड़कियों पर भी लाठियाँ बरसाई गईं। आंदोलन के इतने हिंसात्मक दमन के कारणों पर बात होनी चाहिए। एक ओर तो भाजपा के सांसद मनोज तिवारी आंदोलनकारियों को हर तरह के सहयोग का आश्‍वासन दे रहे थे, वहीं दूसरी ओर मुखर्जी नगर में पुलिस ने ऐसा माहौल बना रखा था कि आंदोलनकारी अपने कमरे से बाहर निकलने से भी डर रहे थे। आख़िर ऐसी क्या वज़ह थी कि श्याम रुद्र पाठक जैसे आंदोलनकारी के नेतृत्व में शांतिपूर्वक प्रदर्शन कर रहे परीक्षार्थियों की आवाज़ को दबाने के लिए सरकार ने साम, दाम, दंड, भेद के तमाम तरीके अपना लिए? इस पर बात करने से पहले इस आंदोलन के प्रति लेकर सरकार और राजनीतिक दलों के रवैये पर नज़र डालते हैं।

पहले सरकार ने इस आंदोलन की अनदेखी करने की रणनीति अपनाई थी। जब मुखर्जी नगर और आस-पास के इलाकों से सैकड़ों आंदोलनकारी कड़ी धूप में चलकर रेसकोर्स गए तो प्रधानमंत्री ने अपने किसी प्रतिनिधि को उनसे बात करने के लिए नहीं भेजा। बाद में जब कई राजनीतिक दलों के नेताओं ने आंदोनकारियों की माँगों का समर्थन किया तो सरकार ने रक्षात्मक मुद्रा अपना ली। इन नेताओं में आम आदमी पार्टी के योगेंद्र यादव, आनंद कुमार, जनता दल (संयुक्‍त) के शरद यादव, राष्ट्रीय जनता दल के पप्पू यादव आदि शामिल हैं। जब जयपुर, इलाहाबाद, चेन्नई, लखनऊ, पटना आदि शहरों से भी धरना-प्रदर्शन की ख़बरें आने लगीं तो सरकार के पास यह विकल्प भी नहीं बचा कि वह इस आंदोलन को दिल्ली के कुछ कोचिंग संस्थानों द्वारा प्रायोजित होने की बात कहकर इसकी अनदेखी कर सके। श्याम रुद्र पाठक ने इस आंदोलन के प्रायोजित होने की बात का खंडन करते हुए कहा कि पुलिस की लाठी खाते हुए आंदोलन करने वाले युवाओं पर इस तरह का आरोप लगाना अपने ही देश की युवाशक्‍ति का अपमान करने के समान है। उन्होंने अपने नेतृत्व में चले आंदोलन में कोचिंग संस्थानों से आर्थिक मदद मिलने की बात से इनकार किया।

आंदोलनकारियों की बड़ी सफलता यह रही कि अगस्त के पहले सप्ताह में संसदीय कार्य मंत्री वेंकैया नायडू को लोक सभा में यह कहना पड़ा कि सरकार सिविल सेवा परीक्षा को आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं में आयोजित करने पर विचार करेगी। लेकिन सरकार के इस आश्‍वासन पर भरोसा करना मुश्किल है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि इसी सरकार ने आंदोलनकारियों की तमाम माँगों को दरकिनार करते हुए ऐसा कदम उठाया जिसका सिविल सेवा परीक्षार्थियों के लिए कोई महत्व नहीं है। सरकार ने सीसैट में अंग्रेज़ी के उन आठ सवालों को छोड़ देने का निर्देश जारी किया जिन्हें हटाने की माँग आंदोलनकारियों ने की ही नहीं थी। कोढ़ में खाज यह कि अनुवाद का स्तर इस साल भी इतना ख़राब था कि प्रतियोगियों का कीमती वक्‍त सवालों को समझने में ही बर्बाद हो गया। इसका फ़ायदा अंग्रेज़ी माध्यम के प्रतियोगियों को ही मिलेगा।

अब सवाल यह उठता है कि आंदोलनकारियों का मनोबल गिराने के लिए सरकार ने ऐसा कदम क्यों उठाया जिससे आंदोलनकारियों में यह संदेश गया कि सरकार उनकी माँगों का मज़ाक उड़ा रही है। इसका जवाब यह है कि सरकार जिस शोषक वर्ग के हित साधने का साधन बनकर रह गई है वह अंग्रेज़ी के बहाने दशकों से देश के संसाधनों पर अपने एकाधिकार पर किसी तरह की दावेदारी को बर्दाश्त नहीं कर सकता है। यहीं आकर हमें इस आंदोलन के हिंसक दमन का कारण समझ में आता है। शोषक वर्ग को अपने एकाधिकार पर उठने वाली उँगली को मरोड़ने की आदत पड़ चुकी है और उसे इस बात से अब कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि वह जिन लोगों का दमन कर रहा है वह मीडिया की सीधी पहुँच से दूर रहने वाले आदिवासी हैं या दिल्ली में रहकर सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने वाले ऐसे लोग जिन तक मीडिया की आसान पहुँच है। ऐसे समय में प्रगतिशील बुद्धिजीवियों का संगठित होना ज़रूरी है। उन्हें केवल इस आधार पर आंदोलन से दूर रहने का नैतिक कारण नहीं मिल जाता कि अधिकतर आंदोलनकारियों में इस मुद्दे को लोकतंत्र के बड़े मूल्यों से जोड़ने की दृष्टि नहीं है। उन्हें इस आंदोलन को सही नज़रिये से देखने की सलाह देने की ज़िम्मेदारी किस वर्ग की है? क्या यह काम सरकार की तमाम ग़लत नीतियों का समर्थन करने वाला मीडिया करेगा?

सीसैट में अनुवाद की ग़लतियों को सुधारने के लिए सरकार के पास लगभग डेढ़ महीने का समय था। जिन गड़बड़ियों की चर्चा टेलीविज़न चैनलों के स्टूडियो से लेकर संसद में हो रही हो, उन्हें इस साल की परीक्षा में भी नहीं सुधारना असल में एक ऐसी लापरवाही है जिसके लिए संघ लोक सेवा आयोग के अधिकारियों को भी जनता की अदालत के कठघरे में खड़ा करना चाहिए। मीडिया में अनुवाद की ग़लतियों पर तो अच्छी-ख़ासी चर्चा हुई लेकिन भाषा से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहुत कम लोगों का ध्यान गया। सिविल सेवा परीक्षा में अंग्रेज़ी प्रश्‍नों के हिंदी अनुवाद में a, b, c, d आदि को हिंदी में न लिखकर अंग्रेज़ी में भी जस का तस छोड़ दिया जाता है। यह एक तरह से हिंदी वर्णमाला के अस्तित्‍व से इनकार करने के समान है। सालों से ऐसा इस तथ्य के बावजूद किया जा रहा है कि केंद्रीय हिंदी निदेशालय ने 1980 में ही a, b, c, d आदि को हिंदी में क, ख, ग, घ आदि लिखने का नियम बना लिया था। ऐसा इसलिए किया गया था कि हिंदी अनुवाद में कुछ लोग क, ख, ग, घ लिखते हैं तो कुछ अ, आ, इ, ई या अ, ब, स, द। इस नियम की अनदेखी करके हिंदी अनुवाद में भी अंग्रेज़ी वर्णों का प्रयोग भारतीय शासन तंत्र में हिंदी के सूक्ष्म अपमान का उदाहरण है।

सीसैट में ग़ैर-मानविकी विषयों के विद्यार्थियों को अनुचित फ़ायदा मिलने की बात को भी सरकार ने हवा में उड़ाने की कोशिश की। सच तो यही है कि गणित, तर्कशक्‍ति आदि के सवालों का बेहतर ढंग से जवाब देने के लिए सालों महँगे कोचिंग संस्थानों में तैयारी करने वाले परीक्षार्थियों की तुलना में मानविकी के विद्यार्थियों को बहुत अधिक मेहनत करनी पड़ती है। वहीं दूसरी ओर, ग़ैर-मानविकी विषयों के विद्यार्थी सामान्य अध्ययन के पेपर में बहुत कम अंक लाकर भी सीसैट के दूसरे पेपर की मदद से आसानी से मुख्य परीक्षा तक पहुँच जाते हैं। मानविकी से तमाम सरकारों को समस्या होती है। इसके विद्यार्थी सरकार से मुश्किल सवाल करने लगते हैं। जनतांत्रिक मूल्यों के प्रचार-प्रसार में मानविकी से मिलने वाली समझ और विश्‍लेषण क्षमता की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। लेकिन 2011 के बाद सिविल सेवा परीक्षा में जिस तरह परीक्षार्थियों के सामाजिक ज्ञान की तुलना में प्रबंधकीय योग्यता को बहुत अधिक महत्व दिया जा रहा है उसे देखते हुए ज्ञान की इस शाखा के हाशिये पर जाने की आशंका भी बढ़ रही है। उच्च शिक्षा में मानविकी की लगातार अनदेखी होती आई है। भारत में सिविल सेवा परीक्षा के बहाने मानविकी को महत्व मिलता रहा है। लेकिन अब सीसैट के कारण इसका महत्व और भी कम हो जाएगा। सरकार को अपनी जनविरोधी नीतियाँ लागू करने के लिए कुशल प्रबंधक चाहिए न कि उसकी मंशा पर सवाल करने वाले लोग। यही वजह है कि बड़ी कंपनियों के दबाव में बनने वाली शिक्षा नीतियों में मानविकी को हाशिये पर डालने की कोशिश की जा रही है।

नौकरशाहों का एक वर्ग सीसैट का पक्ष लेते हुए यह तर्क देता है कि इससे उन परीक्षार्थियों को सिविल सेवा से दूर रखने में मदद मिलती है जो अपनी सत्तावादी और सांप्रदायिक सोच के कारण लोकतंत्र के लिए ख़तरा बन सकते हैं। अगर हम यह मान लें कि तर्कशक्‍ति के मूल्यांकन का इस संदर्भ में महत्व हो सकता है तो भी इन सवालों का आवश्यकता से अधिक संख्या में होने और परीक्षा के अंग्रेज़ी और अबूझ सरकारी हिंदी में होने का सवाल अपनी जगह बना रहेगा। क्या विवेक की भी कोई भाषा होती है? भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में समाज के सभी तबकों को शासन व्यवस्था में शामिल करने के लिए चुने गए प्रतियोगियों को प्रशिक्षण की अवधि के दौरान अंग्रेज़ी में दक्ष बनाया जा सकता है। आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भारतीय भाषाओं में परीक्षा आयोजित करना भी असंभव नहीं है। क्या मानविकी के विद्यार्थियों पर गणित और तर्कशक्‍ति के बहुत-से सवालों का अनावश्यक बोझ डालकर उन्हें परीक्षा की दौड़ में पीछे रहने पर मजबूर करना सही है? क्या स्थानीय समस्याओं को ठीक से समझने के लिए इतिहास, भूगोल, संस्कृति आदि की औसत से बेहतर जानकारी से ज़्यादा महत्वपूर्ण वह गणितीय या तर्कशक्‍ति योग्यता है जिसका मूल्यांकन करने का दावा सीसैट के पक्षधर कर रहे हैं? जिस देश में असमान शिक्षा व्यवस्था हो, वहाँ उच्च वर्ग को प्रबंधन या इंजीनियरिंग की महँगी शिक्षा से मिलने वाली सुविधा को ध्यान में रखकर बनाई गई अलोकतांत्रिक परीक्षा पद्धति पर सवाल उठाना हर ज़िम्मेदार नागरिक का कर्तव्य है। इस सुविधा का अंदाज़ा आप इस तथ्य से लगा सकते हैं कि जहाँ 2010 में मुख्य परीक्षा तक पहुँचने वाले 47.5% प्रतियोगी मानविकी के विद्यार्थी थे वहीं सीसैट लागू होने के बाद 2011 में इनका प्रतिशत घटकर 31.2% रह गया।

इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता है कि भारत में अंग्रेज़ी केवल आर्थिक उन्नति से जुड़ी भाषा नहीं बल्कि औपनिवेशिकता से भी जुड़ी भाषा भी रही है। इसे सीखने पर किसी को आपत्ति नहीं है, लेकिन इसके आधार पर समाज के कमज़ोर तबकों को शासन व्यवस्था से दूर रखने की साज़िश का विरोध करना हमारा कर्तव्य है। सीसैट के विरोध के दौरान अनुवाद की जिन ग़लतियों पर मीडिया में चर्चा हुई वे शासक वर्ग के भाषाई षड्यंत्र के उदाहरण हैं। हिंदी को अनुवाद की भाषा बनाकर उसे न केवल आम लोगों बल्कि हिंदी भाषा के विद्यार्थियों के लिए भी अनुपयोगी बना दिया गया है। यह हिंदी हाशिये पर रहने वाले तबकों को आगे बढ़ने का अवसर देने में नाकाम रहती है। इसे ऐसा बनाकर शासक वर्ग हिंदी को कामकाजी तबके के लिए अनुपयोगी साबित कर देता है। हमें सभी भारतीय भाषाओं को ज्ञान की भाषा बनाने का संकल्प लेना चाहिए। ऐसा करना असंभव नहीं है। भारतीय भाषाओं को साहित्य तक सीमित रखने का नुकसान भारतीय लोकतंत्र को उठाना पड़ा है। अंग्रेज़ी को भाषा न मानकर ज्ञान मान लिया गया है। इससे अंग्रेज़ी में कही गई अधकचरी बात भी भारतीय भाषा में व्यक्‍त की गई सार्थक बात से कमतर साबित हो जाती है।

हमें यह समझना होगा कि भारत में अभी राजनीति जिस दिशा में आगे बढ़ रही है उसमें सरकारी तंत्र बार-बार शासन से ज़्यादा प्रबंधन को महत्व देने की बात कह रहा है। ज्ञान की सभी शाखाओं को प्रबंधन की योग्यता से कमतर आँकने की मानसिकता का विरोध करने के लिए अकादमिक जगत को भी आगे आना चाहिए। तमाम असुविधाओं का सामना करके सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहे आंदोलनकारियों को शिक्षकों, लेखकों, आलोचकों आदि का सहयोग मिलना ही चाहिए। यह देखकर अफ़सोस होता है कि प्रगतिशीलता के अनेक नामवरों ने इस मसले पर चुप्पी साधी रखी। लोकतांत्रिक मूल्यों की लड़ाई केवल कहानी, कविता आदि में नहीं लड़ी जा सकती है। इसके लिए सड़क पर पुलिस की लाठियों का सामना कर रहे लोगों के समर्थन में आगे आना पड़ता है। सीसैट में भाषाओं का मसला उन भाषाओं को बोलने वाले तबकों के लोकतंत्र में प्रतिनिधित्व का मसला है।

मेरा यह आलेख सामयिक वार्ता पत्रिका के सितंबर अंक में छपा है। 

बुधवार, 10 सितंबर 2014

अनुवाद में दम तोड़ती भारतीय भाषाएँ

सिविल सेवा परीक्षा में 2011 से लागू हुए सीसैट के विरोध में इस साल जो आंदोलन उठ खड़ा हुआ है उसके कारण लंबे समय के बाद हमारे लोकतंत्र में भारतीय भाषाओं की अनदेखी पर बहस का माहौल बना है। हालाँकि जिस देश में पिछले 50 साल में 250 भाषाएँ लुप्त हो गई हैं वहाँ आज़ादी मिलने के दशकों बाद इस मुद्दे पर लोगों का ध्यान जाना कम आश्‍चर्यजनक नहीं है। भाषाओं की अनदेखी का अर्थ है उस भाषा को बोलने वाले लोगों की अनदेखी और यही वजह है कि लोकतंत्र में विविधता को बचाए रखने का एक बहुत बड़ा साधन उन भाषाओं को समृद्ध करना है जो पूँजी की तानाशाही के इस दौर में हाशिये पर जा रही हैं। लोकतंत्र की विफलता का इससे बड़ा प्रमाण नहीं मिल सकता कि हमारे देश में अपने विषय के जानकारों को भी ज़िंदगी की दौड़ में उन लोगों से पीछे रहना पड़ता है जो अपनी वर्गीय स्थिति के कारण अंग्रेज़ी अच्छी तरह जानते हैं। इसके कुछ अपवाद ज़रूर हैं, लेकिन इन अपवादों से अंग्रेज़ी के वर्चस्व की पुष्टि ही होती है।

भारत में अंग्रेज़ी का अपना एक वर्गीय आधार है। अंग्रेज़ी मीडिया ने सुनियोजित तरीके से इस आंदोलन को ऐसे रट्टुओं का आंदोलन बताया जो अंग्रेज़ी का विरोध करने के बहाने कम मेहनत करके देश की प्रतिष्ठित परीक्षा में अव्वल आने का सपना देखते हैं। आंदोलनकारियों के ज्ञापन को पढ़े बिना इसे केवल हिंदी पट्टी के परीक्षार्थियों का ऐसा आंदोलन बताया गया जो केवल दिल्ली तक सीमित है। सच तो यह है कि जयपुर, पटना, इलाहाबाद, चेन्नई, हैदराबाद आदि शहरों में सीसैट के विरोध में रैलियाँ निकाली गईं। दिल्ली में आंदोलनकारियों ने अपने ज्ञापन में तमाम भारतीय भाषाओं के परीक्षार्थियों की घटती सफलता दर के आँकड़े पेश किए। अंग्रेज़ी मीडिया ने इस मामले को अनुवाद की समस्या तक सीमित करने की भी कोशिश की, जबकि असली समस्या यह है कि भारतीय भाषाओं को शिक्षा व्यवस्था में अनुवाद की भाषा का दर्जा दे दिया गया है।

उच्च शिक्षा में किसी भाषा को अनुवाद पर निर्भर बना देने से उसका विकास रुक जाता है। अनुवाद को ज्ञान प्राप्त करने के कई साधनों में से एक साधन मानने के बदले उसे एकमात्र साधन मानने की मानसिकता ने तमाम भारतीय भाषाओं का नुकसान किया है। हिंदी में यह नुकसान पत्रकारिता, विज्ञापन आदि की बनावटी भाषा में भी दिखता है। इतिहास, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान आदि की हिंदी किताबों में अनुवाद को खाने में चटनी की तरह इस्तेमाल करने के बजाय भोजन ही बना दिया जाता है। इसे हिंदी माध्यम के परीक्षार्थियों के बौद्धिक हाज़मे के बिगड़ने की एक वजह माना जा सकता है। हिंदी के आलेखों में अंग्रेज़ी के शब्दों को रोमन लिपि में लिखने की प्रवृत्ति अंग्रेज़ी के सामने हिंदी के घुटने टेकने का उदाहरण है। भाषाई विविधता को ख़त्म करके अंग्रेज़ी के वर्चस्व वाली ऐसी दुनिया बनाने की कोशिश की जा रही है जिसमें पूँजी के तर्कों को काटने लायक न तो कोई विचारधारा बचे न भाषा।

हमारे देश में अंग्रेज़ी का एक ऐसा तंत्र विकसित किया गया है जिसके कारण सरकारी विभागों और भारतीय शिक्षा व्यवस्था में हिंदी अनुवाद की भाषा बनकर रह गई है। इसकी शुरुआत उसी समय हो गई थी जब संविधान के केवल अंग्रेज़ी संस्करण को मानक घोषित किया गया। इस ग़लती को सुधारने के बजाय हिंदी के ऐसे रूप को जनता पर लादने का काम जारी रखा गया जिसमें न तो भाषा की रचनात्मकता है न विचार का सौंदर्य। क्या करोड़ों लोगों की भाषा होने के बावजूद हिंदी को ज्ञान की भाषा मानने से इनकार करने के पीछे कोई बड़ा षड्यंत्र नहीं है? इस षड्यंत्र को समझने के लिए सीसैट का विरोध कर रहे आंदोलनकारियों की उस माँग को मानने से इनकार करने की वजह पर बात करनी होगी जिसमें सवालों का अनुवाद किए जाने के बजाय उसे हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में तैयार करने की बात कही गई है। जिस देश में सरकार द्वारा आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर करोड़ों रुपये खर्च किए जा सकते हैं, वहाँ इतनी छोटी माँग को मानने से इनकार करते हुए संसाधनों की कमी की बात कहना हास्यास्पद ही है। संघ लोक सेवा आयोग में वर्षों तक स्तरहीन अनुवाद को सुधारने की कोई कोशिश नहीं की गई। यह एक ऐसी लापरवाही है जिसके कारण न जाने कितने परीक्षार्थियों को सिविल सेवा परीक्षा में असफलता का सामना करना पड़ा। अगर किसी सवाल में 'लैंड रिफ़ॉर्म्स' के अनुवाद में 'लैंड' का अनुवाद ही न किया जाए तो इससे हिंदी के परीक्षार्थी की असफलता लगभग तय हो जाती है। सीसैट का विरोध कर रहे आंदोलनकारियों ने अपने ज्ञापन में ऐसे कई उदाहरण पेश किए हैं। अगर हमारे देश में सरकारी जवाबदेही नाम की कोई चीज़ होती तो योग्यता का ढोल पीटने वाले अधिकारियों को इस लापरवाही के कारण अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ता।

सरकारी तंत्र में जिस हिंदी का प्रयोग होता है उसे देवनागरी लिपि में लिखे ऐसे शब्दों का समूह कहना ग़लत नहीं होगा जिनका अर्थ न लिखने वाले व्यक्‍ति को पता होता है न पढ़ने वाले को। बाज़ार की हिंदी केवल सामान बेचने की भाषा के रूप में अपना अस्तित्व बचा पाई है। यह हिंदी अपनी जड़ों से कटी होने के कारण बेजान-सी दिखती है। मंत्रालयों में भी हिंदी की दुर्गति हो रही है। इसका एक उदाहरण देखिए:

"रक्षा के लिए और सामान्य में श्रमिकों के हितों और जो गरीब का गठन, समाज के वंचितों और नुकसान वर्गों की रक्षा. विशेष रूप से, उच्च उत्पादन और उत्पादकता और के लिए एक स्वस्थ माहौल बनाने का काम करने के कारण संबंध में मंत्रालय की मुख्य जिम्मेदारी है विकास और व्यावसायिक कौशल प्रशिक्षण और रोजगार सेवाओं के समन्वय." (श्रम एवं रोजगार मंत्रालय की वेबसाइट से)

मंत्रालयों की वेबसाइटों पर ऐसी हिंदी के प्रयोग पर मीडिया में भी कोई बहस नहीं होती। हिंदी की रोटी खाने वाले लोगों को भी अपनी भाषा के ऐसे अपमान पर ग़ुस्सा नहीं आता। इसकी वजह यह है कि भारतीय मध्यम वर्ग ने अपनी भाषाओं की चिंता करना छोड़ दिया है। आज़ादी के बाद भी देश की राजनीति में भारतीय भाषाओं को ज्ञान की भाषा का दर्जा दिलाने की कोशिशों को कभी सफलता नहीं मिली। जहाँ तक राजभाषा हिंदी की बात है तो उसे राजभाषा बनने के बावजूद बोली से भी कमतर दर्जा हासिल है। आप बोलियों को समझ सकते हैं, लेकिन राजभाषा हिंदी को समझना कभी-कभार नामुमकिन हो जाता है।

ऐसा नहीं है कि मंत्रालयों की वेबसाइटों में ही अबूझ हिंदी का प्रयोग होता है। सरकारी प्रकाशन में भी हिंदी के साथ वही व्यवहार किया जाता है जैसा ट्रेन की प्रथम श्रेणी बोगी में ग़लती से घुस आए ग़रीबों के साथ होता है। भारत सरकार के प्रकाशन विभाग की किताब 'भारत 2013' की भाषा देखिए:

"विकसित देशों द्वारा कमजोर न्यूनीकरण प्रतिबद्धताओं को सुददृढ़ बनाने, जलवायु परिवर्तन के नाम से एक पक्षीय व्यापार कार्यों को रोकन, जलवायु स्थिरीकरण के दीर्घावधि लक्ष्य के प्रति बढ़ने के उठाने में बराबरी अधिकार सुनिश्‍चित करने, बहुपक्षीय चैनलों के माध्यम से जलवायु परिवर्तन संबंधी वित्त पोषित करने के लिए पर्याप्त संसाधनों का प्रावधान और उन्हें जुटाने और प्रौद्योगिकी विकास और हस्तान्तरण प्रयासों के भाग के रूप में बौद्धिक सम्पदा अधिकारों पर वार्ता को निरंतर बनाए रखने के संबंध में अभी व्यापक कार्य किया जाना शेष है।"

क्या ऐसी हिंदी से प्रतियोगियों को परीक्षा की तैयारी करने में मदद मिल सकती है? क्या यह भारत सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं है कि वह सरकारी प्रकाशन में ऐसे स्तरहीन अनुवाद की जाँच के लिए विभागीय कार्रवाई का आदेश दे? सरकार इनमें से किसी सवाल का जवाब नहीं देना चाहती है, लेकिन क्या एक प्रबुद्ध नागरिक के रूप में आपकी इस मामले में कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती है? मेरा यह सवाल ऐसे हर नागरिक से है जिसकी रोज़ी-रोटी हिंदी से ही चलती है।

सीसैट के विरोध में जो आंदोलन उठ खड़ा हुआ है उसे तमाम भारतीय भाषाओं में अच्छी किताबों को उपलब्ध कराने, सरकारी नौकरी की परीक्षाओं में भारतीय भाषाओं की जगह बनाने और उच्च शिक्षा में भारतीय भाषाओं को शामिल करने के मुद्दों तक ले जाना होगा। अगर ऐसा नहीं होगा तो उन लोगों की बात सही साबित हो जाएगी जो इस आंदोलन को तलवार से काँटा निकालने की कोशिश बता रहे हैं। सीसैट विरोधी आंदोलन ने सिविल सेवा परीक्षा में भारतीय भाषाओं को शामिल करने के सवाल को ज़िंदा रखा है, लेकिन इस आंदोलन को समाज की दिशा बदलने की प्रक्रिया शुरू करने वाला आंदोलन तभी कहा जा सकेगा जब यह भाषा से जुड़े अन्य मुद्दों पर बहुत-से लोगों को सक्रिय करने में सफल साबित होगा। ऐसा तभी होगा जब हम भाषा के मुद्दे को नौकरी या आर्थिक लाभ के सीमित संदर्भ में न देखकर लोकतंत्र के मूल्यों से जोड़कर देखना शुरू करेंगे।

यह आलेख 'सबलोग' पत्रिका के सितंबर, 2014 अंक में प्रकाशित हुआ है।