रविवार, 15 जून 2014

In other words, in other tongues (डी.एन.ए. से साभार)

Translated copies of Indian novels continue to do very well in European countries, providing a lucrative channel of income for Indian authors, finds Gargi Gupta.

It is one of those apocryphal stories that the publishing world thrives on — a manuscript by an unknown author gets picked up by a discerning agent/publisher and becomes a bestseller, not just in the language it was written in but also in its translated version.

Marc Parent, the French publisher and Indophile who now runs India Maya Literary agency, was at the London Book Fair in 2006, when an agent gave him a manuscript to read. "I devoured it through the night," he remembers, "and went back the next morning and acquired the rights to it." Parent was then editorial director of foreign literature for French publishing house Buchet-Chastel and the manuscript was Aravind Adiga's The White Tiger.

By the time the French translation hit the shops in August 2008, Adiga's book had already been published by Atlantic to much acclaim. A month later in September, The White Tiger won the Man Booker Prize and Le Tigre Blanc became a bestseller, selling as many as 150,000 copies to date. Not bad, if you compare it with the upwards of 300,000 copies of The White Tiger sold in India.

But this was not Parent's biggest success. That goes to Tarun Tejpal's debut novel The Alchemy of Desire (2006), which has sold 300,000 copies in its many editions, won the Le Prix Mille Pages for Best Foreign Literary Fiction and was shortlisted for the Prix Femina.

More recently, the German translation of Pankaj Mishra's From the Ruins of Empire: The Intellectuals Who Remade Asia won the 2014 Leipzig Book Award for European understanding, the first non-Western book to get the prestigious Euro 15,000 award.

And it's not just in France and Germany that Indian authors are finding readers in tongues other than their own. They've also got a following in smaller countries such as Portugal, Italy, Finland, Norway, Sweden, Denmark, Estonia, Holland, and Greece.

Translation rights for The White Tiger were sold for 26 languages. Even Chandrahas Choudhury's Arzee the Dwarf was translated into German and Spanish. Polish publisher Wielka Litera is bringing out a translation of Arundhati Roy's Broken Republic early next month. Wielka Litera has also published Kishwar Desai's Witness the Night.

Friederike Barakat, part of the foreign rights team at German publishing house Hanser, says Indian authors like Vikram Seth, Amitav Ghosh and Jeet Thayil are well known in her country.

"The trend began with Roy's The God of Small Things, which was the first real bestseller by an Indian author," says Barakat, who was in New Delhi for the World Book Fair. Hanser has published the Mumbai-based poet Ranjit Hoskote and is coming out with a book on Gulaabi Gang founder Sampat Pal Devi.

But what is it about Indian novels that so appeal to European readers? Most of their narratives are specific to India, and refer to experiences that are unique to it. "The Germans don't necessarily want to read only about themselves. Cultural difference can be interesting too, or how would the Scandinavian detective novel become such a global rage," says Barakat.

"What played a part in The White Tiger's success was the French desire for the sweeping story of India," says Parent. "While India is a developing country and an emerging economic power, for most French people it is still associated with poverty."

Sometimes, a minor tweak can work wonders. Manil Suri's The Age of Shiva sold a creditable 18,000 copies in its French version, but its publishers, Albin Michel, changed its title to Mother India.

Of course, the West's fascination with India is not new. After all, the French were one of the major purveyors of Orientalism, and Indian and Eastern cultures had a major influence on Western philosophy, culture, arts, music, even fashion. Among Indian writers, Rabindranath Tagore is best known in Europe. Pioneers of Indian writing in English such as RK Narayanan have been widely translated, as have the first-wave of Indian writers in English who made it big on the international scene — Arundhati Roy, Salman Rushdie, Vikram Seth and Amitav Ghosh. What has changed now, says Parent, is the pace of the translations and how well they do commercially.

As a result, translation rights have emerged as a lucrative source of income for Indian authors. Parent negotiated the sale of the German translation rights for Saltwater, the debut novel by Mumbai-based Shrey, for a "five-figure Euro." Parent says it was a generous deal, but overseas rights can bring in as much as Rs10 lakh at current exchange rates. A tidy sum by any reckoning!

डी.एन.ए. से साभार

मंगलवार, 10 जून 2014

अनुवादक संघ की पहली ऑनलाइन बैठक


अनुवादक संघ की पहली ऑनलाइन बैठक 22 फ़रवरी, 2014 को फ़ेसबुक पर आयोजित की गई। आप इस बैठक में हुई चर्चा के महत्वपूर्ण अंश नीचे पढ़ सकते हैं :

ललित सती

ब्लॉग का सुझाव तो बहुत अच्छा है। नियमित लिखने में समस्या है। अभी कोई ज़िम्मेदारी लेने की बात चलेगी तो हो सकता है मैं कहूं कि अगले दो माह तक ज़बरदस्त व्यस्तता है। वाकई है भी। ऐसा अन्य स्वतंत्र अनुवादकों के साथ भी हो सकता है। मुझे यह लगता है कि अनुवादक समूह में बीच-बीच में जो चर्चाएँ चलती हैं उन्हें संपादित रूप में हम ब्लॉग पर डालते चलें। इस तरह की ग्रुप चैट को भी हम ब्लॉग पर डाल सकते हैं। इस तरह की ग्रुप चैट या अनुवादक समूह की चर्चाओं में हम व्यस्तता के बीच भी भाग ले लेते हैं और कई बार बड़े काम की बातें भी सामने आ जाती हैं। मुझे यह लगता है कि अनुवादक समूह में बीच-बीच में जो चर्चाएँ चलती हैं उन्हें संपादित रूप में हम ब्लॉग पर डालते चलें। इस तरह की ग्रुप चैट को भी हम ब्लॉग पर डाल सकते हैं। इस तरह की ग्रुप चैट या अनुवादक समूह की चर्चाओं में हम व्यस्तता के बीच भी भाग ले लेते हैं और कई बार बड़े काम की बातें भी सामने आ जाती हैं। अभी भी हिंदी में एक बड़ी समस्या है। अनुवाद की हैसियत टाइपिस्ट या नगरपालिका के बाबू से अधिक नहीं है। अनुवाद पर लेख लिखेंगे तो हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष लिखेंगे और उस शोधपत्र को पढ़ने के लिए मारीशस हो आएँगे।



एक तो यह बड़ी चीज़ है, जिसे प्रकाश जी ने इंगित किया और जिस पर सुयश व अन्य साथी भी विचार प्रकट करते रहे हैं कि महत्वपूर्ण स्थानों व विभागों में ही हिंदी ग़लत लिखी होती है। इसका वेबसाइट में या ब्लॉग में एक अलग स्थान हो सकता है। जो हिंदी की ऐसी-तैसी के उदाहरणों को एक जगह रखेगा। इसे मीडिया भी नोटिस करेगा।

यदि चर्चाओं को असंपादित रूप में भी ब्लॉग में डाल दिया जाए तो कोई दिक्कत नहीं है। यह एक अलग विधा के रूप में दिलचस्प हो सकती है पढ़ने में।

व्यक्तिगत तौर पर कहूँ तो महीने में एक पोस्ट लिखने के लिए समय निकालने की मेरी पूरी सदिच्छा है। समय की जहाँ तक बात है कई-कई दिन यूँ ही भी निकल जाते हैं। लेकिन एक स्वतंत्र अनुवादक के तौर पर काम करते हुए हमेशा चल रहे प्रोज़ेक्ट का बोझ दिमाग पर बना रहता है। यह एक आलसी व्यक्ति की समस्या हो सकती है, हो सकता अन्य मित्रों को अनुशासित हो पाने में समस्या न आती हो। जहाँ तक अनुवादक समूह में त्वरित टिप्पणी करने की बात है, उसमें मेरी दिलचस्पी रहती है।

अमृतराय या रांगेय राघव जैसे अनुवादकों की श्रेणी को छोड़ दिया जाए, तो कमर्शियल अनुवाद के क्षेत्र में लगे अनुवादक ही वे अनुवादक हैं जो नानाविध समस्याओं से जूझते हैं और नानाविध विषयों में सर खपाते हैं।

पढ़े-लिखे लोगों को भी नहीं पता होता है कि कमर्शियल अनुवाद की एक अलग ही दुनिया है, जिसका कार्य न तो किसी पुस्तक मेले में विमोचित होता है, न किसी किताब के सुनहरे अक्षरों में दर्ज होता है।

मीडिया में अपने मित्रों को पकड़ना पड़ेगा। स्टोरी तो कई अच्छी बन सकती हैं। यही कि हिंदी विभागों में ही हिंदी की कैसी दुर्गति है। राजभाषा के नाम पर कैसे लूट हो रही है इत्यादि। और ऐसा 14 सितंबर के आसपास किया जा सकता है।

वैसे यह सुझाव अच्छा था कि एक सर्वे किया जाए जिसमें यह पता किया जाए कि सरकारी विभागों में कितने ऐसे हैं जिनकी वेबसाइट हिंदी में है। और कुल कितने ऐसे विभागों की वेबसाइटें हैं जिनमें भीषण ग़लतियाँ नहीं हैं।

इसीलिए मैं तो स्वतंत्र अनुवादकों के श्रम के सही मूल्य को हासिल करने की दिशा में काम करने का प्रबल पक्षधर हूँ। यद्यपि अनुवादक संघ थोड़ी विस्तृत सोच रखता है।

कामगार अनुवादक, मेहनतकश लेखक एकजुट हों और फ़र्ज़ी हिंदी विद्वानों को सत्ता से बेदखल करें, अपनी तो यही कामना है।

सुयश सुप्रभ

शायद वेबसाइट से नियमित लेखन की समस्या दूर हो जाए।

प्रोफ़ेसरों और विद्वानों से भी लिखवाया जा सकता है।

वेबसाइट से अकादमिक जगत के लोगों से संपर्क करने में भी सुविधा होगी।

क्या हम महीने में एक पोस्ट के लिए समय नहीं निकाल सकते हैं? तात्कालिक लाभ नहीं हो तो हम सभी उत्साह नहीं जुटा पाते हैं। लेकिन लंबे समय में मिलने वाला फ़ायदा भी तो महत्वपूर्ण है। इससे पूरे समुदाय का फ़ायदा होता है।

हमने मानक सामने नहीं रखे हैं, इसलिए अनुवाद की गुणवत्ता को लेकर अनावश्यक विवाद भी खड़ा होता रहता है। विवाद तो हमेशा होगा।

बाबुओं को नींद से जगाने के लिए सूचना के अधिकार का भी प्रयोग किया जा सकता है।

अगर 10 अनुवादक भी महीने में एक पोस्ट लिखने की ज़िम्मेदारी ले लें तो कंटेंट की समस्या नहीं रहेगी।


एक सलाह यह भी है कि हम अंग्रेज़ी या किसी अन्य भाषा के ब्लॉग की पोस्ट का हिंदी अनुवाद करें। ब्लॉगों की सूची यहाँ देखें : अनुवाद से संबंधित 100 महत्वपूर्ण ब्लॉग

मीडिया में अनुवादकों की कमी नहीं है। बहुत-सी पत्रिकाओं में केवल अनुवाद का काम होता है। हमें वहाँ से भी अच्छे लोग मिल सकते हैं।

औपचारिक रूप वाले संगठनों की कमी नहीं है। अगर हम ठोस और सार्थक काम के कुछ उदाहरण सामने रखकर औपचारिक स्वरूप की तरफ़ बढ़ें तो अच्छा रहेगा। अभी सक्रिय सदस्यों की भी कमी है।

दो मोर्चे हैं। स्तरीय अनुवाद और भाषा के उदाहरण सामने रखना है और स्तरहीन अनुवाद को बाज़ार में चलाने की कोशिश का विरोध करना है।

हरिशंकर साही

भाषाई स्तर पर काम करते समय एक समस्या या यूं कहें कि एक प्रक्रिया रहती है शब्दों के चयन की. ऐसे में अनुवादक संघ के ब्लाग पर भी मैं गया हूँ, और ग्रुप या अन्य जगहों पर भी, लेकिन शब्दों के प्रचलन में होने या चलन से बाहर जाने पर एक लगातार हो रहे परिवर्तन पर कुछ खास नहीं मिल पाता है... ऐसे में इसे अगर आप लोग ब्लाग और वेबसाईट पर जोड़ें तो बेहतर रहेगा.


वैसे एक बात और कहना चाहूँगा कि अनुवाद कराने वाली देशी-विदेशी एजेंसियों के कार्य व्यवहार और भुगतान के आधार पर भी अनुभव साझा होने चाहिए, जिससे काम लेते समय कुछ जानकारी पहले से हो सके.

पढ़े-लिखे लोग खास तौर पर हिंदी पट्टी में लोग अनुवाद को बहुत आसानी से किए जा सकने वाले कार्य के रूप में मापते हैं. जबकि यह क्षेत्र कई सारी विधाओं को साथ लेकर चलता है.

बहुत से पत्रकार भी अनुवादक का काम करते हैं. लेकिन मुद्दों को जगह देने के लिए तो खुद ही पहल करनी पड़ेगी. अन्यथा खबर व्यवसायी अपनी जगह क्यों देने लगे.

सरकारी क्षेत्र में अनुवाद "अरे हो जाता है" प्रकार का काम होता है... लेकिन कंपनियां अपने जुगाड़ से अच्छा पैसा बना लेती हैं. सरकारी क्षेत्र को अनुवाद के प्रति सजग करना चाहिए.

मीडिया तब तक इस पर ध्यान नहीं देगा, जब तक उसे अनुवाद के क्षेत्र में खबरों के लिए पाठकों का दबाव नहीं पड़ेगा.



नरेंद्र तोमर

मुझे लगता है एक ज्‍यादा बडी समस्‍या यह है कि क्‍या और किन विषयों को लेकर लिखा जाए । अनुवाद कहीं शून्‍य में नहीं होता । बाजार, प्रकाशक, पाठक और भाषा और खास तौर पर हिंदी की वर्तमान स्थिति को सामने रखकर ही सार्थक बात हो सकती है।

एक विषय तो अनुवाद की भाषा ही है कि वो कैसी होनी चाहिए ? अखबारों वाली या साहित्यिक ? चारों ओर से अंग्रेजी की भारी घुसपैठ के बीच रह रहा आज का हिंदी पाठक किस भाषा को पसंद करता है ?

आनंद

हम सभी को माह में एक पोस्‍ट लिखने का वायदा अब पूरा करना ही पड़ेगा।

पहले सरकारी वेबसाइटों को देखें। विभिन्‍न मंत्रालयों से लेकर राज्‍य एवं जिला सरकार के विभिन्‍न विभागों की वेबसाइटों का सरसरी तौर पर सर्वे किया जाए।

99 प्रतिशत हिंदी में नहीं हैं। 90 प्रतिशत में शुरुआती पृष्ठ हिंदी में है, शेष अंग्रेजी में चल रही हैं। यह एक बहुत बड़ा बाजार है जिसका लाभ उठाया जा सकता है।

दो फ्रंट पर काम करना पड़ेगा, जैसे वाटर प्‍यूरीफायर वाले करते हैं। पहला , वे बताते हैं कि अब तक आप जो पानी पी रहे थे, कितना गंदा था, और दूसरा कि साफ पानी सप्‍लाई करने की मशीन हमारे पास है।


दोतरफा दबाव की रणनीति। शिकायत की एक प्रति संसदीय राजभाषा समिति को ईमेल या पंजीकृत डाक से भेजनी पड़ेगी, यदि फिर भी समाधान न हुआ तो इसे मीडिया में प्रचारित करने की धमकी देनी पड़गी। आखिर "संविधान" भी कोई चीज है।

जरूरत पड़े तो थोड़ा कानून भी खंगाला जा सकता है, जिसमें हिंदी को उसका दर्जा दिलाने की बात कही गई है। उन नियमों का हवाला भी दिया जा सकता है। अनेक निरीक्षण समितियाँ कागजी खानापूर्ति करती हैं। उन पर भी दबाव बनाया जा सकता है।

कुछ पैसा हिंदी सुधारने के नाम पर तो खर्च होगा। हिंदी जानने वालों की पूछ तो बढ़ेगी। और यकीन मानिए। वेबसाइट पर गलती सुधारना काफी टेढ़ी खीर है, कमीशन खाने वाले नहीं कर पाएंगे। वे अभी तक कृतिदेव के पत्र को पीडीएफ में बनाकर चेंप देते हैं।

प्रकाश शर्मा

हमने पिछली एक बैठक में ये तय किया था कि हिंदी की गंभीर गलतियों को संबंधित विभाग के ध्‍यान में लाया जाएगा। कुछ प्रयासों के तहत मैंने शुरुआत में सुयश जी को कुछ गलतियों के बारे में बताया भी था। कुछ गलतियां सुयश भाई ने खुद भी निकाली थीं। लेकिन इससे आगे कुछ खास प्रगति नहीं हो सकी। मेट्रो के एक अधिकारी का आश्वासन कोरा आश्‍वासन ही रह गया। और वही पुरानी गलतियां आज भी दिखाई देती हैं।

लेकिन हम अपनी पकड़ मीडिया या प्रेस तक दमदार रूप से कैसे बनाएं? हम जिन मुद्दों पर काम करें, उन्‍हें मीडिया भी नोटिस करे और अपने प्रकाशनों, कार्यक्रमों आदि में जगह दे।

हम अलग-अलग विचारों वाले व्‍यक्ति हैं। लेकिन यहां हमारा उद्देश्‍य कमोबेश एक ही है। अनुवाद विधा और हिंदी भाषा को सम्‍मानजनक स्‍थान दिलाना।

मैंने एक बात महसूस की है कि सरकारी दफ्तरों में अनुवादकों को अधिकांशत: कॉन्‍ट्रैक्‍ट पर ही रखा जा रहा है। और उस पर भी अधिकारियों और अनुवादकों के बीच एक ठेकेदार विराजमान होता है।

यहां अनुवादकों का बहुत बुरी तरह से शोषण होता है, इस बारे में जानकारी किसे और कैसे उपलब्ध कराई जाए। यानी सरकारी कंपनी तनख्‍वाह का चेक ठेकेदार के नाम बनाती है और ठेकेदार से अनुवादक को पैसे मिलते हैं।

और अब तो नौबत ये आ चुकी है कि ठेकेदार कंपनियां अनुवादकों को फ्रीलांस के रूप में एक-दो महीने रहने का न्‍यौता तक भेज रही हैं और वो भी बेहद कम दामों पर।

सरकारी स्‍तर पर मैंने जो महसूस किया है वो ये है कि वहां अफसर वही काम करने को लालायित होते हैं, जिनमें उन्‍हें कुछ कमीशन मिलता हो और लोक कल्‍याण के कामों से उन्‍हें कोई वास्‍ता नहीं है।

सीधा-सीधा खेल सरकारी महकमों में व्‍याप्‍त भ्रष्‍टाचार का है।

दबाव का काम केवल मीडिया के ज़रिए ही किया जा सकता है।

विनोद शर्मा

सवाल यही है सरकारी विभागों में इच्छा शक्ति की कमी है। अनुवाद विषय को कोई भी महत्व नहीं देता है।

संसदीय राजभाषा समिति केवल एक दिखावटी समिति है जिसके सदस्यों का काम जगह-जगह की यात्राएँ करना और 5-सितारा होटलों में दावत उड़ाना है।

मित्रो, समस्या नजरिया बदले जाने की है। आज के तथाकथित आधुनिक समाज में हिंदी की बात करने वाले को प्रतिगामी समझा जाता है। किसी लकीर को छोटा करने का सबसे अच्छा उपाय होता है उसके बराबर एक बड़ी लकीर बना देना। इसलिए हिंदी के अधिकाधिक प्रयोग को बढ़ावा देना होगा, तभी लोगों का नजरिया बदलेगा।

कल के लिए मेरे सुझाव- 1. प्रिंट मीडिया में सरकारों/विभागों/मंत्रालयों द्वारा मुद्रित सूचनाओं, अधिसूचनाओं, विज्ञप्तियों की समीक्षा सतत रूप से की जाए। जहाँ केवल अंग्रेजी भाषा का ही माध्यम चुना गया है, उस मामले में अनुवादक संघ की ओर से एक विरोध संबंधित कार्यालय को भेजा जाए। 2. हिंदी में प्रकाशित सामग्री में यदि भाषा संबंधी विसंगतियाँ पाई जाती हैं तो उन्हें भी इसी प्रकार से संबंधित कार्यालय के संज्ञान में लाया जाए। 3. कंपनियों के विज्ञापन यदि केवल अंग्रेजी में हैं तो संबंधित कंपनी को हिंदी का उपयोग करने के लिए लिखा जाए क्योंकि 95 प्रतिशत लोग अंग्रेजी नहीं समझते। 4. सरकारी विज्ञापनों, बैनरों आदि में यदि केवल अंग्रेजी का प्रयोग हुआ है तो संबंधित विभाग/कार्यालय को लिखा जाए। 5. इस तरह के कार्य हिंदी अनुवादक संघ का कोई भी सक्रिय सदस्य कर सकता है, भेजी जाने वाली ईमेल की एक प्रति अनुवादक संघ को अवश्य दी जाए।

प्रभात रंजन

आजकल तो हालत और भी बुरी हो गई है। हाल में एक मंत्रालय ने मुझसे कहा कि अनुवाद का सम्पादन कर दीजिये। जब अनुवाद आया मेरे पास तो अनुवादक ने गूगल ट्रांसलेशन से अनुवाद कर रखा था। एक भी वाक्य हिन्दी की प्रकृति के हिसाब से नहीं था। पूरा अनुवाद कर देना सम्पादन से अधिक आसान लगा।