बुधवार, 14 मार्च 2012

अनुवादक संघ की पहली बैठक

चार मार्च, 2012 को प्रगति मैदान में आयोजित बैठक में अनुवाद, अनुवादक और संघ से संबंधित बहुत-से मुद्दों पर चर्चा हुई।

अनुवाद

भारत में अनुवाद को अभी तक स्वतंत्र विधा का दर्जा नहीं मिल पाया है। अनुवाद के बौद्धिक श्रम का मूल्यांकन होना अभी बाकी है। अकादमिक जगत में भी बहुत-से लोग यह समझते हैं कि अनुवाद शब्द के स्तर पर होता है। उन्हें अनुवाद की जटिलता की जानकारी नहीं है। मानव सभ्यता के विकास में अनुवाद ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अनुवाद के बिना विज्ञान और साहित्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। हमें अनुवाद के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए सामूहिक प्रयास करना होगा। अनुवाद को पुनर्सृजन मानना चाहिए।


अनुवाद का सवाल भाषा के सवाल से जुड़ा हुआ है। हिंदी और तमाम भारतीय भाषाओं में मानकीकरण की समस्या बनी हुई है। मानकीकरण को लेकर बहुत-से भ्रम हैं। बहुत-से लोग यह नहीं समझ पाते हैं कि मानकीकरण के बिना भाषाई अराजकता पर नियंत्रण करना असंभव है। एकरूपता के लिए भी भाषा का मानकीकरण आवश्यक है। मानकीकरण को भाषाई अराजकता में 'यथासंभव' व्यवस्था बनाए रखने की कोशिश के रूप में देखना चाहिए।


सरकारी संस्थानों में भी हिंदी के नियमों को लेकर मतैक्य नहीं है। एन.सी.ई.आर.टी. में 'ज' और 'फ' में नुक्‍ते का प्रयोग किया जाता है, जबकि साहित्य अकादेमी में 'क', 'ख', 'ग', 'ज' और 'फ' में नुक्‍ता लगाया जाता है। इस स्थिति में भ्रम से बचने के लिए अनुवादक को काम शुरू करने से पहले क्लाइंट, कंपनी या संस्था से हिंदी के नियमों के संदर्भ में चर्चा कर लेनी चाहिए। पहले से तय नियमों का पालन करने से अनुवाद में एकरूपता सुनिश्‍चित करने में मदद मिलती है। कई बार क्लाइंट भाषा के मसलों को आधार बनाकर पैसा नहीं देने की कोशिश करते हैं। अगर हम कुछ नियमों पर सहमति बनाकर काम करें तो इससे बाद में भाषा से संबंधित विवाद से बचने में भी मदद मिलेगी।


शाब्दिक अनुवाद भी बहुत बड़ी समस्या है। संदर्भ को समझते हुए कोशीय अर्थ के बदले संदर्भगत अर्थ को सामने लाने की कोशिश करनी चाहिए। अनुवाद करते समय किसी व्यक्‍ति या संस्था के दबाव में नहीं आना चाहिए। निर्देशों का आँख मूँदकर पालन करने से कई बार गलतियाँ भी हो सकती हैं।


भाषा को यथासंभव आसान बनाने की कोशिश करनी चाहिए। तकनीकी विषयों के अनुवाद में कठिन शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है, लेकिन हमें पाठकों की भाषाई क्षमता को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए।


स्तरहीन अनुवाद का एक कारण यह है कि बहुत-से प्रकाशक अच्छे अनुवादकों को काम देने के बदले जान-पहचान के लोगों से अनुवाद करवाते हैं। कुछ शब्दकोश ऐसे हैं जिनमें कोशकारों के जीवित या दिवंगत होने की भी जानकारी नहीं दी जाती है। हम बरसों पुराने संस्करण को संशोधित शब्दकोश समझकर खरीद लेते हैं। प्रगति मैदान में आयोजित पुस्तक मेले में एक ऐसा शब्दकोश भी बेचा जा रहा था जिसमें 'दिनांक' को 'दिनाँक' लिखा गया है। पुस्तक मेले में 'राजनीति की व्याकरण' जैसा शीर्षक और 'सचमूच' जैसी वर्तनी देखकर किताबों के गिरते स्तर को लेकर चिंतित होना स्वाभाविक है।


भारतीय भाषाओं के अनुवाद में अंग्रेज़ी को माध्यम बनाने की प्रवृत्ति से भी अनुवाद की स्तरीयता पर नकारात्मक असर पड़ता है। भारतीय भाषाओं के साहित्य में ऐसी अनेक स्तरीय रचनाएँ हैं जो अन्य भाषाओं में अनूदित नहीं होने के कारण पाठकों के सामने नहीं आ पा रही हैं। एक समस्या यह भी है कि अनूदित किताबों की समीक्षाओं में साहित्येतर विषयों से संबंधित किताबों की उपेक्षा होती है। अनुवाद के महत्व पर बात करते समय समाज में लेखन के महत्व पर भी बात होनी चाहिए। अगर स्तरीय लेखन की उपेक्षा होती है तो इससे अंतत: अनुवाद पर नकारात्मक असर पड़ेगा। हमें लेखन की प्रतिष्ठा के लिए भी संघर्ष करना होगा।

अधिकतर सरकारी वेबसाइटें केवल अंग्रेज़ी में हैं। हमें सरकार पर दबाव डालकर भारतीय भाषाओं में उनका अनुवाद करवाना चाहिए।


अनुवादक


अनुवादक के पारिश्रमिक पर उतनी चर्चा नहीं हो पाती है जितनी होनी चाहिए। सरकारी संस्थानों में इस मसले की उपेक्षा होती आई है। सरकार को न्यूनतम पारिश्रमिक तय करना चाहिए।


अनुवादकों में भी भाषा और अनुवाद के प्रति वैसी जागरूकता नहीं है जैसी होनी चाहिए। इंटरनेट के इस युग में भी भारतीय भाषाओं से संबंधित ब्लॉगों और वेबसाइटों की कमी चिंता का विषय है। भारतीय भाषाओं में ऐसे ब्लॉग या वेबसाइटें नहीं हैं जहाँ भाषा के बदलते स्वरूप, व्याकरण, प्रयोग आदि से संबंधित जानकारी मिल सके। हमें अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास होना चाहिए। अगर हम थोड़ा समय निकाल सकें तो भाषाई जड़ता दूर की जा सकती है।


अनुवादकों को आत्मकेंद्रित नहीं होना चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि संगठन में ही शक्‍ति है। अगर हम बिचौलियों पर निर्भर नहीं होना चाहते हैं तो इसके लिए हमें मिल-जुलकर कोशिश करनी होगी।


कुछ अनुवादक बिना सोचे-समझे अपना काम कई अनुवादकों को सौंप देते हैं। इससे अनुवाद में एकरूपता नहीं रहती है। हमें यह भी तय करना होगा कि एक दिन में कितने शब्दों का अनुवाद किया जा सकता है। अगर विषय की जानकारी नहीं हो तो अनुवाद करने से मना कर देना चाहिए।

संघ


हमें संघ के औपचारिक गठन के लिए जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए। भारत में हज़ारों पंजीकृत संघ और संस्थाएँ हैं, लेकिन इनमें से अधिकतर का अस्तित्व केवल कागज़ पर है। हमें संघ की सक्रियता को अधिक महत्व देना है। हम संघ की गतिविधियों के लिए गूगल समूह बना सकते हैं। हमारी एक वेबसाइट भी होनी चाहिए। मासिक न्यूज़लेटर निकालने के बाद हम अनुवाद से संबंधित पत्रिका के प्रकाशन के बारे में भी सोच सकते हैं। हमें सदस्यता शुल्क पर भी विचार करना होगा। वेबसाइट, पत्रिका आदि पर होने वाले खर्च का हिसाब-किताब रखने की भी व्यवस्था होनी चाहिए।


हमें संघ में सभी भारतीय भाषाओं के अनुवादकों को शामिल करने की कोशिश करनी चाहिए।


बैठक में शामिल सदस्यों के नाम


1. प्रमोद कुमार तिवारी
2. डॉ. शेखर सरकार
3. रघुबीर शर्मा
4. अरुण कुमार
5. दिगम्बर
6. विक्रम
7. पारिजात
8. सुमन
9. मानस रंजन महापात्र
10. श्रीधर नायक
11. अभय नेमा
12. आनंद
13. संजीव
14. विनोद
15. संदीप
16. पूजा सिंह
17. सौरभ खंडेलवाल
18. प्रकाश शर्मा
19. स्वप्निल कुमार
20. मनोज पटेल
21. रश्‍मि सहारे
22. गाजी देवबंदी
23. श्रीकृष्ण शर्मा
24. विजय कुमार झा
25. भावना मिश्रा
26. सोमिल मिश्रा
27. नारायण चौधरी
28. रवि विद्रोही
29. अर्चना सक्सेना
30. सुयश सुप्रभ
31. मुकेश पोपली