सोमवार, 22 जून 2015

अनुवाद पर सामान्य चर्चा (लेखक: विनोद शर्मा)

भारत में अनुवाद के संबंध में यह मिथक अत्यंत व्यापक रूप से प्रचलित है अनुवाद में क्या है। फलाँ भाषा में ही तो लिखना है। नया तो कुछ करना नहीं है।एक बार मेरे पास एक सज्जन आए और बोले कुछ पेज हिंदी में टाइप करवाने हैं। मैंने विनम्रता से कहा, भाई, मैं टाइपिस्ट नहीं हूँ।इस पर वे सज्जन बोले, ‘ये पेज अंग्रेजी में हैं, बस इनको हिंदी में टाइप करवाना है।’ मैंने उन्हें बताया कि किसी पाठ को एक भाषा से दूसरी भाषा में परिवर्तित करने को अनुवाद कहते हैं और मैं यह काम कर सकता हूँ। इसकी अमुक फीस होगी। फीस सुनते ही वे सज्जन भड़क गए और बोले, ‘खाली हिंदी में टाइप करने के इतने पैसे, यह काम तो किसी टाइपिंग इंस्टीट्यूट वाला कोई भी टाइपिस्ट कर देगा।’ मैंने हाथ जोड़ कर उन सज्जन से प्रार्थना की कि कृपया किसी टाइपिस्ट से ही यह काम करवा लें, मुझसे नहीं हो सकेगा।

यह तो था एक आम आदमी के मन में अनुवाद के प्रति दृष्टिकोण का उदाहरण। ऐसे ही एक दिन एक वकील साहब आ पहुँचे जमीन संबंधी किसी मुकदमे के 25-30 पृष्ठ ले कर और मुझसे बोले, ‘ये कागजात हिंदी में हैं और इनको अंग्रेजी में टाइप करवाना है। उच्च न्यायालय में हिंदी के दस्तावेज स्वीकार नहीं किए जाते। वैसे तो मैं खुद अंग्रेजी में एमए हूँ, लेकिन आप अनुवाद करते रहते हैं तो आपको अदालती भाषा का अनुभव होगा।’ मैंने उन्हें बता दिया कि उनका काम हो जाएगा और उसके लिए प्रति पृष्ठ अमुक राशि की फीस लगेगी। वकील साहब फीस की राशि सुन कर उछल पड़े और बोले, ‘हमारी कचहरी में बैठे टाइपिस्ट रोज सैकड़ों दस्तावेज टाइप करते हैं, इससे अच्छा तो मैं उनसे टाइप करवा लूँगा।’ मैंने विनम्रता से उनसे कहा, ‘वकील साहब, अगर कचहरी के टाइपिस्ट से काम चल सकता तो आप कभी का करवा लेते। दूसरे, आप किसी न किसी से पता लगा कर मेरे पास आए हैं, तो आपको पता है कि हिंदी से अंग्रेजी भाषा में अनुवाद, वह भी विधिक दस्तावेजों का, आसान काम नहीं है। कठिन काम और वह भी पूरी सटीकता से किया जाएगा तो उसकी फीस तो लगेगी ही। आप ये दस्तावेज ले जाइए और पहले अनुवाद की दर का पता कर लीजिए, फिर आप चाहेंगे तो मैं आपका काम कर दूँगा।’ वकील साहब चले गए। दो दिन बाद फिर उनका फोन आया, ‘विनोद जी, मैं जमीन के मुकदमे वाले कागजात ले कर आपसे मिला था। क्या आप वह काम कर देंगे?’ मैंने उनको आश्वस्त किया कि कागजात ले कर आ जाएँ, उनका काम हो जाएगा।

इन दो उदाहरणों को उद्धृत करने का प्रयोजन यही है कि आम लोगों को अनुवाद के बारे में सही जानकारी नहीं है। हम अनुवादकों का यह दायित्व हो जाता है कि हम उन्हें न केवल अनुवाद की प्रक्रिया बल्कि उसकी जटिलताओं और उसमें लगने वाले श्रम के बारे में अवगत कराएँ तथा अनुवाद में क्या है वाले मिथक को तोड़ने का प्रयास करें।

भारत में अधिकतर अनुवाद कार्य हमें कंपनियों या एजेंसियों के माध्यम से मिलता है। चूँकि एजेंसियाँ भी व्यवसाय करने के लिए खोली गई हैं, वे अधिकाधिक मुनाफा कमाने के उद्देश्य से अनुवादक को कम से कम राशि का भुगतान करना चाहती है। यहाँ मैं सभी अनुवादकों से अनुरोध करना चाहूँगा कि बाजार में अनुवाद की दर के स्तर को बनाए रखने या गिरने देने में हमारा पूरा योगदान होता है। यदि हमें अनुवाद के इस असंगठित क्षेत्र में अनुवाद दरों को एक मान्य स्तर पर बनाए रखना है तो हमें अपनी न्यूनतम अनुवाद दर को तय करना ही होगा। सरसरी तौर पर यदि देखा जाए तो एक रुपया प्रति शब्द वह दर है जिससे नीचे किसी अनुवादक को काम नहीं करना चाहिए। हाँ, अपने अनुभव, दक्षता और विषय विशेष की क्लिष्टता के आधार पर आप एक रुपए से अधिक की दर अपने लिए तय कर सकते हैं। हममें से कुछ अनुवादक अति निम्न दरों पर कार्य ले लेते हैं जिससे एजेंसियों का काम आसान हो जाता है और वे सभी अनुवादकों से उसी निम्न दर की अपेक्षा करने लगती हैं।

एक और समस्या आती है थोक काम की- अधिकतर एजेंसियाँ इस आधार पर अनुवादकों को निम्न दर देना चाहती हैं कि अनुवाद कार्य की मात्रा अत्यधिक है, लंबा काम है। ऐसी स्थिति में 10-20 पैसे की रियायत देने तक तो कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन इससे अधिक छूट के लिए हाँ न करें। एजेंसी को समझाने की कोशिश करें कि अनुवाद आपका व्यवसाय है। आपके कार्य के घंटे निश्चित हैं और औसत आय भी निश्चित है। 10 घंटे काम करने के बाद यदि आपको औसत आय नहीं होगी तो काम कैसे चलेगा। एजेंसी का काम छोटा हो या बड़ा आपको तो 10 घंटे काम करना है और उन 10 घंटों में उतना ही उत्पादन होगा। बड़े काम से आपका उत्पादन तो बढ़ नहीं जाएगा। इसलिए एजेंसियों के बड़े काम के झाँसे में न आएँ। अपनी न्यूनतम दर से कोई समझौता न करें।

समय-सीमा या डेडलाइन का पालन करना प्रत्येक अनुवादक के लिए अनिवार्य है। अनुवाद की गुणवत्ता के बाद यही सबसे महत्वपूर्ण कारक है जो किसी भी अनुवादक की प्रतिष्ठा को बनाता या बिगाड़ता है। जब भी अनुवाद का कोई प्रस्ताव मिले, पहले फाइलों की जाँच कर लें और उनके अनुवाद में लगने वाले समय में किसी अप्रत्याशित विलंब की गुंजाइश को शामिल करके ही समय-सीमा माँगें या स्वीकार करें। कई बार ऐसा होता है कि एजेंसी से काम का प्रस्ताव मिलते ही, बिना फाइलों को देखे, अनुवादक पुष्टि कर देते हैं और जब निश्चित समय पर एजेंसी द्वारा अनूदित फाइलों की माँग की जाती है तो तरह-तरह के बहाने बनाने पड़ते हैं। इससे हमारी प्रतिष्ठा ही गिरती है।

अंत में, सबसे महत्वपूर्ण है अनुवाद की विषयवस्तु। बहुत से अनुवादक किसी भी विषय के अनुवाद के लिए हाँ कर देते हैं, जबकि उस विषय पर उनकी जानकारी न के बराबर होती है। अनुवाद का कार्य श्रमसाध्य तो है ही साथ में गजब के धैर्य की भी आवश्यकता होती है। यदि अनुवाद हमारी आजीविका है तो हमें अपनी प्रतिष्ठा भी बनानी है। दो-चार दिन कोई काम नहीं मिला, तो इसका अर्थ यह नहीं होना चाहिए कि हम किसी भी कीमत पर किसी भी विषय को ले लें, भले ही बाद में गुणवत्ता को ले कर हमसे तरह-तरह के प्रश्न किए जाएँ। ऐसी स्थिति में सबसे अच्छा तो यह होता है कि एजेंसी को साफ-साफ बता दिया जाए कि आपको इस विषय का अधिक अनुभव तो नहीं है किंतु अपनी तरफ से अच्छे से अच्छा करने का प्रयास किया जाएगा। अब यदि एजेंसी आपको फिर भी काम देती है तो गुणवत्ता के संबंध में आपकी उतनी जिम्मेदारी नहीं रह जाएगी।

एक अच्छा अनुवादक बनने के तीन मूलमंत्र हैं – 1. गुणवत्ता 2. समय की पाबंदी 3. भाषा पर पकड़। इसके बाद आती है संबंधित विषय की पूर्ण जानकारी। हम अनुवादकों को अनुवाद के लिए अधिकतर आने वाले विषयों पर अपनी जानकारी को अद्यतन करते रहना आवश्यक है। आज इंटरनेट पर उपलब्ध संसाधनों के चलते यह कार्य काफी सुगम हो गया है।

लेखक: विनोद शर्मा

मंगलवार, 16 जून 2015

एजेंसियाँ त्‍याज्‍य नहीं हैं... (लेखक: आनंद)

एजेंसियाँ त्‍याज्‍य नहीं हैं...

फ्रीलांसर अनुवादकों के समक्ष एजेंसियों की छवि मुनाफाखोर खलनायक की बन गई है। कुछ टटपूँजिया एजेंसियों की वजह से सरसरी तौर पर एजेंसियों की भूमिका को खारिज कर दिया जाता है, जो सही नहीं है। एजेंसियों के लिए काम करना और उनसे जुड़े रहना घाटे का सौदा नहीं है।

अनुवाद की किताबों में यह बात अकसर कही जाती है कि अनुवाद कार्य एक सृजन के समतुल्‍य है। इसके लिए अत्‍यंत कुशलता और सृजनशीलता की जरूरत होती है। अनुवाद मौलिक लेखन से भी अधिक महत्‍वपूर्ण होता है। पढ़कर लगता है कि अनुवाद को एक विधा के रूप में बड़ी इज्‍जत हासिल है, लेकिन वास्‍तविक जीवन में बिलकुल इसँके उलट है। हिंदी जगत में इसे सम्‍मान तो क्‍या, काम भी नहीं समझा जाता। ऐसा नहीं कि ऐसी सोच वाले लोग अनपढ़ या जाहिल होते हैं। यह सोच बिना किसी भेदभाव के छोटे कर्मचारियों से लेकर बड़े अधिकारियों, छात्रों से लेकर बड़े-बड़े बुद्धिजीवियों और अकादमिक लोगों में एक समान रूप से पाई जाती है, “अनुवाद भी कोई काम है? इसे तो कोई भी कर लेगा। अच्‍छी सी डिक्‍शनरी देखो और बस हो गया। गूगल ट्रांसलेट में डालो, सारा अनुवाद अपने आप हो जाता है।” इस सोच ने अनुवादकों की दोतरफा वाट लगाई है। पहला, अनुवादकों के श्रम और योगदान का मूल्‍यांकन नहीं हो पाता, और दूसरा, व्‍हाइट कॉलर कार्य ढूँढ़ने वाले शॉर्टकट पसंदों ने स्‍वयं को अनुवादक घोषित कर रही सही कसर भी पूरी कर दी।

सर्वप्रथम अनुवाद को कला न कहकर कौशल कहना शुरू करना होगा। कला एक अमूर्त, अस्‍पष्‍ट और घोटाले वाला शब्‍द है। कला अराजकता होती है, और कलाकार मूडी होता है। कला या कलाकार किसी भी अनुशासन को मानने या उसमें बँधने से इनकार करता है, जबकि एक कौशल या हुनर वह है, जो आवश्‍यक ज्ञान के उपरांत धीरे धीरे अभ्‍यास से विकसित किया जाता है। इस विधा में कितनी कला है, कितना सृजन है, इसका फैसला शोधार्थियों को करने दें, लेकिन फिलहाल इसे कला की जकड़न से निकालना जरूरी है। इसे एक पेशा बनाना पड़ेगा। जो अनुवादक बंधु पार्ट-टाइम, फुल-टाइम नौकरी करते हैं या फ्रीलांसर हैं, वे समझते होंगे कि इसके लिए एक विशेष प्रकार के अनुशासन और कंसिस्‍टेंसी की जरूरत होती है। अनुवाद क्‍या, प्रत्‍येक धंधे के लिए अनुशासन और कंसिस्‍टेंसी की जरूरत होती है।

दरअसल हमारे देश में अनुवादक होना लेखक बनने की शुरुआती सीढ़ी माना जाता है। सभी स्‍टार लेखकों ने शुरुआती दौर में अनुवाद किया। चूँकि लेखन इस देश में पवित्र काम है, लेखक को पैसों से क्‍या लेना-देना, सो अनुवादकों से भी यही अपेक्षाएँ की जाने लगीं। हिंदी के प्रकाशनघर यही मानते हैं। लेखक की लेखक जाने, पर वे अनुवादक को पारिश्रमिक नहीं, जेबखर्च देने पर यकीन रखते हैं। विदेशों में ऐसी स्थिति नहीं है। विदेशों में प्रकाशनघर अपने लेखकों को भी सम्‍मानजनक पारिश्रमिक देते हैं और अनुवादकों को भी। यहाँ तो कुएँ में ही भांग पड़ी है, पारिश्रमिक माँगने और देने का रिवाज ही नहीं है। फिलहाल अनुवादक को उसकी मेहनत का समुचित मेहनताना मिले, यही उसके लिए बहुत बड़ा सम्‍मान होगा।

अंग्रेजी वैश्विक संचार की भाषा है और हिंदी भारत की संपर्क भाषा या राजभाषा है। अत: हमारे देश में सबसे ज्‍यादा संभावनाशील भाषायुग्‍म अंग्रेजी-हिंदी है। इन भाषाओं के अनुवाद बाजार की स्थिति यह है कि अनुवाद के ग्राहक (पैसे देने वाले ग्राहक) भारत में मौजूद नहीं हैं। यदि स्‍वदेशी ग्राहकों के भरोसे रहें तो अनुवादक भूखे मर जाएँ। कहने को तो हिंदी प्रकाशकों का बहुत बड़ा कारोबार है, लेकिन उनमें चोटी का प्रकाशक अपने अनुवादक को 25 से 50 पैसे प्रति शब्‍द ऑफर करता है। सरकारी संस्‍थाओं के पास अनुवाद कार्य की बहुत बड़ी संभावना है, लेकिन उनमें संवेदनहीनता व्‍यापक है और अनुवाद की दरें दयनीय हैं।

सम्‍मानजनक दर वह होती है, जिस पर सामान्‍य गति से कार्य करते हुए अनुवादक अपना और अपने बच्‍चों का पेट पाल सके, स्‍कूल की फीस जमा कर सके, मकान का किराया भर सके, बीमारी होने पर इलाज करवा सके और एक सम्‍मानजनक लाइफस्‍टाइल अफोर्ड कर सके। फिलहाल अनुवादकों के सामने विदेशी कंपनियों या बड़ी विज्ञापन एजेंसियों का ही सहारा रह गया है, अत: बेहिचक अपना सारा फोकस बड़ी-बड़ी बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों, विज्ञापन एजेंसियों, सॉफ्टवेयर और उपकरण आदि बनाने वाली कंपनियों की प्रचार सामग्रियों, रिपोर्टों, उपयोगकर्ता मैनुअलों, वेबसाइटों आदि के अनुवाद पर रखने की जरूरत है।

इस पेशे की अपनी कुछ सच्चाइयाँ हैं, जिन्‍हें अनदेखा नहीं किया जा सकता। यह रोज पानी पीने के लिए रोज कुआँ खोदने जैसा कार्य है। अनुवाद के कार्य में कोई रॉयल्‍टी नहीं मिलती, कि एक बार करो और इससे ताजिंदगी कमाई होती रहे। इसमें आपको अपने कार्य का श्रेय भी नहीं मिलता। केवल भाषांतर करने की मजदूरी मिलती है। इस नाते यह कार्य मजदूरी जैसा ही है। जितना अनुवाद करेंगे, उतना ही पैसा मिलेगा। अनुवाद बंद तो पैसा मिलना बंद। अनुवाद एक-एक शब्‍द पढ़कर किया जाता है, वैसे ही, जैसे राज मिस्‍त्री एक-एक ईंट जोड़कर दीवार बनाता है। कोई ज्‍यादा पैसा दे, तो भी वह दिन भर में जितनी क्षमता है उतनी दीवार ही चुन सकता है, ज्‍यादा लालच करे तो 10-20 प्रतिशत अधिक। यही अनुवाद की स्थिति भी है। कई बार तो कंटेंट ऐसा कठिन आ जाता है कि औसत आउटपुट देना भी मुश्किल हो जाता है।

यह अत्‍यंत आवश्‍यक है कि (सामान्‍यत:) महीने में दस या पंद्रह दिन से अधिक काम मिलना चाहिए। तभी महीने भर का खर्चा चलाया जा सकता है। इंटरनेट के युग में काम ढूँढ़ना बहुत आसान हो गया है। ऐसे कई पोर्टल हैं, जिनमें अनुवादक और ग्राहक दोनों अपना-अपना विवरण दर्ज करते हैं।

नई दिल्‍ली के मोहन गार्डन से गांधी चौक जाते समय पीपल वाला चौक पड़ता है। वहाँ रोज सुबह सात बजे मजदूरों का जमावड़ा लगता है। मजदूर आकर जमा होते हैं, और उन्‍हें काम देने वाले वहाँ आकर अपनी जरूरत के मजदूरों को चुन लेते हैं। जिन्‍हें काम मिल गया, उनकी पौ बारह हो जाती है और जिन्‍हें नहीं मिला, वे दस-ग्‍यारह बजे तक इंतजार करके खाली हाथ अपने घर लौट जाते हैं। उस दिन उनकी दिहाड़ी नहीं पकती। अनुवादकों की स्थिति भी जुदा नहीं है।

काम सतत रूप से मिलता रहे, इसके लिए मार्केटिंग और ब्रांडिंग जरूरी है। ब्रांडिंग के लिए अन्‍य बातों के साथ दो बातें अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण होती हैं, पहली, डेडलाइन का सम्‍मान करें, दूसरी, गुणवत्ता बनाए रखें। यही हमारी साख बनाती है, जो कालांतर में काम का नियमित मिलना सुनिश्चित करती है। गुणवत्ता जाँचने का एक सीधा उपाय है, कि यदि ग्राहक हमें दुबारा काम देता है, तो हमारी गुणवत्ता संतोषजनक है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि एजेंसियों का पूरा कारोबार जिन फ्रीलांसर अनुवादकों की मेहनत पर टिका होता है, उन्‍हें समुचित पारिश्रमिक देने के मामले में वे कंजूसी बरतती हैं। पूरी मलाई स्‍वयं खा जाती हैं, और अनुवादकों को केवल सूखे टुकड़े देकर निपटा देती हैं। ग्राहक और अनुवादक में सीधा संपर्क हो, यह एक आदर्श स्थिति है। लेकिन इस उद्योग में एजेंसियों का भी अहम स्‍थान है। एजेंसियों को त्‍यागना उचित नहीं है, क्‍योंकि: 
  • कई अनुवाद प्रोजेक्‍ट बड़े वॉल्‍यूम में आते हैं, जैसे माइक्रोसॉफ्ट, गूगल या अन्‍य सॉफ्टवेयर, हार्डवेयर कंपनियों के तकनीकी मैनुअल, वेबसाइट आदि। इसमें लाखों शब्‍दों का अनुवाद करना होता है, वह भी अनेक भाषाओं में। इसे करना एक-दो अनुवादकों के बस की बात नहीं होती। इसका ठेका केवल एजेंसियाँ लेती हैं। इसमें एक साथ कई अनुवादकों को लगाना पड़ता है; कंप्‍यूटर, इंटरनेट और विशेष सॉफ्टवेयर की मदद लेनी पड़ती है। प्रोजेक्‍ट प्रबंधन, कार्य वितरण, गुणवत्ता जाँच और सत्‍यापन आदि के बाद सबको एकीकृत करने के लिए अलग-अलग व्‍यक्ति नियुक्त करने पड़ते हैं। ऐसी बड़ी परियोजना में कार्य करना व्‍यक्तिगत तौर पर मुमकिन नहीं है। एजेंसियाँ न केवल अनुवाद के लिए नए-नए टूल, अनुवाद मेमोरी प्रदान करती हैं, बल्कि उनका उपयोग भी सिखाती हैं (हालांकि यह व्‍यवस्‍था केवल संबद्ध परियोजनाओं के लिए ही होती है)। ये टूल आम तौर पर महँगे होते हैं, जिन्‍हें व्‍यक्तिगत रूप से खरीदना फ्रीलांसर अनुवादक के लिए मुश्किल होता है। बड़े प्रोजेक्‍ट में टीम में अनुवाद करने का अनुभव होता है। ऐसे कार्यों में बहुत कुछ सीखने को मिलता है।
  • ज्यादातर एजेंसियाँ किसी भी अनुवादक की तुलना में ज्‍यादा प्रोफेशनल और परिपक्‍व होती हैं। उन्‍हें कारोबार कायम रखना है, अत: गुणवत्ता को लेकर विशेष पाबंद होती हैं। अपने स्‍तर पर क्‍वालिटी चेक रखती हैं। थोड़ी भी लापरवाही या गुणवत्ता में कमी होने पर वे अनुवादक को सचेत करती रहती हैं।
  • एजेंसियाँ अपनी मार्केटिंग बड़े पैमाने पर करती हैं, ताकि उन्‍हें अधिक से अधिक कार्य मिल सके। वे मार्केटिंग और टेंडर, कोटेशन आदि की प्रक्रिया पार करके काम लाती हैं। उनके ग्राहक के साथ अनुबंधों में गुणवत्ता में कमी या विलंब पर पेनल्‍टी आदि का भी प्रावधान होता है। इस लिहाज से देखें तो एजेंसियों को कई प्रकार का जोखिम होता है, जबकि उसी प्रोजेक्‍ट के लिए अपने द्वारा नियुक्त अनुवादकों पर इन जोखिमों का असर नहीं पड़ने देतीं।
  • अनुवादक और ग्राहक के कंप्‍यूटर सिस्‍टम में सॉफ्टवेयर और टूल में संगतता न होने के कारण आउटपुट सही स्‍वरूप में दिखाई नहीं पड़ता और कई बार समस्‍या खड़ी हो जाती है। आम ग्राहक इन समस्‍याओं का आदी नहीं होता, वह इसे अनुवादक का दोष समझता है, अत: इसे दूर करने की जिम्‍मेदारी भी अनुवादक के सिर पर आन पड़ती है। जबकि एजेंसियाँ इस स्थिति से स्‍वयं ही निपट लेती हैं। यह उनके लिए रोज का काम होता है, और उन्‍हें समझाना भी कठिन नहीं होता।
  • एजेंसियों के पास काम की कमी नहीं होती। यदि नियमित काम चाहिए, तो एजेंसियों से संपर्क बनाना जरूरी होता है। साथ ही, एजेंसियों के पास विविध प्रकार के काम लगातार आते रहते हैं, इन्‍हें करने से अनुवादक का एक्‍सपोजर अधिक होता है, और वैविध्‍यपूर्ण कार्य का अनुभव बढ़ता है।
  • अच्‍छी एजेंसियाँ कभी अनुवादकों का पैसा नहीं रोकतीं। वे अपनी प्रतिष्‍ठा के प्रति सचेत होती हैं, यदि कोई विवाद होता भी है, तो पैसे चुकता कर अपना पीछा छुड़ा लेती हैं।
एजेंसियों के साथ कार्य करने पर नियमित रूप से काम मिलता है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि हमें इन्‍हें अपना शोषण करने देना चाहिए। एजेंसियों के लिए काम करते समय भी आप अपनी सम्‍मानजनक दर पर मोलभाव कर सकते हैं। इसका अर्थ यह भी नहीं कि हम स्‍वतंत्र रूप से अपने ग्राहकों के लिए काम करने का अपना अधिकार छोड़ रहे हैं। बस, खाली बैठने से अच्‍छा यह है कि एजेंसियों से जुड़कर कार्य किया जाए और अपने समय का सदुपयोग किया जाए। इतना अवश्‍य ध्‍यान रहे कि एजेंसी के ग्राहकों से क्रॉस कनेक्‍शन न करें और उनके ग्राहकों को न तोड़ें। अपने लिए नए ग्राहक ढूँढ़ें। दुनिया बहुत बड़ी है।

लेखक: आनंद



बुधवार, 3 जून 2015

वर्तनी की अशुद्धियाँ बनाम हिंदी का गिरता स्तर (लेखक: विनोद शर्मा)

वर्तमान दौर में जहाँ हिंदी के प्रचलन में वृद्धि हो रही है, उसके स्तर में निरंतर गिरावट नजर आ रही है। हिंदी भाषा में मानो अराजकता की स्थिति बनती जा रही है। समाचार माध्यमों और सामाजिक मीडिया में गलत वर्तनी का धड़ल्ले से प्रयोग किया जा रहा है। आज केवल प्रचलन पर जोर दिया जा रहा है। आप लंबे समय से किसी शब्द को जिस तरह से लिखते आए हैं, आपको लगता है कि वही वर्तनी सही है। पत्रकार और सामाजिक मीडिया पर लेखन कर रहे लेखक/कवि आदि भी इस विषय पर कोई ध्यान नहीं देना चाहते।

हिंदी में लघु एवं दीर्घ स्वरों के चार युग्म हैं, इ-ई, उ-ऊ, ए-ऐ तथा ओ-औ, जिनके प्रयोग में प्रायः गलतियाँ होती हैं, अर्थात युग्म के स्वरों की मात्राओं का परस्पर एक-दूसरे के स्थान पर प्रयोग हो जाता है। हिंदी भाषा पूर्णतः उच्चारण पर आधारित वैज्ञानिक भाषा है। इसे जैसा बोला जाता है वैसा ही लिखा जाता है। हाँ, समस्या वहाँ आती है जब हमारा उच्चारण भी दोषयुक्त होता है।

सबसे पहले लेते हैं युग्म ‘इ-ई’ को, इसकी मात्राएँ क्रमशः लघु और दीर्घ होती हैं। लघु स्वर या छोटी इ के प्रयोग के उदाहरण हैं- कवि, किसान, रिश्ता, पिता आदि। दीर्घ स्वर के उदाहरण हैं- जीत, खुशी, ठीक आदि। इस युग्म के गलत प्रयोग का सर्वाधिक दिखाई देने वाला उदाहरण है- ‘कि’ तथा ‘की’ का एक-दूसरे के स्थान पर प्रयोग। यहाँ हमें ध्यान रखना होगा कि ‘कि’ का प्रयोग किसी संदर्भ, उदाहरण आदि का उल्लेख करने से पूर्व किया जाता है। जैसे ‘राम ने देखा कि सामने से एक कार आ रही थी’, ‘उसने कहा कि...’, ‘उसने सोचा कि....’, ‘उसने बताया कि...’, ‘उसका दिल इतनी तेजी से धड़का कि...’। जबकि ‘की’ का प्रयोग या तो संबंध सूचक (स्त्रीलिंग) या ‘करना’ क्रिया के स्त्रीलिंग भूतकाल रूप में किया जाता है। संबंध सूचक के रूप में प्रयोग के उदाहरण हैं- ‘प्रभु की इच्छा’, ‘राम की पत्नी’, ‘दर्द की दवा’, ‘घर की बात’। भूतकाल क्रिया रूप के उदाहरण हैं- उसने खिड़की बंद की, मैंने अमरनाथ की यात्रा की, उसने प्रार्थना की। बड़े-बड़े ख्यातनाम लेखक भी इस गलती को अक्सर दुहराते हैं।

अगला स्वर युग्म है ‘उ-ऊ’। लोग लघु की जगह दीर्घ और दीर्घ की जगह लघु मात्रा का प्रयोग कर शब्द का अर्थ ही बदल देते हैं। जैसे- सवेरे की धुप (सही वर्तनी- धूप), उसने पुछा (सही वर्तनी- पूछा), उसने कबुल किया (सही वर्तनी - कबूल), दिल में शुल सी चूभी (सही वर्तनियाँ- शूल, चुभी)।

इसके बाद आता है ‘ए-ऐ’ युग्म, इसमें भी कुछ लोग लघु की जगह दीर्घ और दीर्घ की जगह लघु मात्रा का प्रयोग करते हैं। सर्वाधिक भ्रम होता है ‘में’ और ‘मैं’ को ले कर। ‘मैं’ उत्तम वचन सर्वनाम है जिसका प्रयोग वक्ता या लेखक स्वयं के लिए करता है तथा इसमें सदैव ही ‘ऐ’ की मात्रा लगनी चाहिए, लेकिन कई लोग ‘में’ का प्रयोग करते हैं। वर्तनी गलत होने से शब्द का अर्थ बदल जाता है, जैसे ‘सेर’ वजन की एक माप है जबकि ‘सैर’ का अर्थ भ्रमण या पर्यटन होता है। ‘मेला’ जहाँ लोगों के उल्लासपूर्ण समागम को व्यक्त करता है, वहीं गलत मात्रा लगने से ‘मैला’ का अर्थ गंदा या अपवित्र हो जाता है। इसी प्रकार केश-कैश, फेल-फैल, बेर-बैर आदि के परस्पर प्रयोग से अर्थ बदल जाते हैं।

इस कड़ी में अंतिम स्वर युग्म है- ‘ओ-औ’ का। पूर्वोक्त की भांति इन स्वरों की मात्राओं के प्रयोग में भी असावधानीवश भूल होती है। कौन, मौन, गौण, प्रौढ़, दौड़ आदि के स्थान पर गलत वर्तनी का प्रयोग करके अक्सर कोन, मोन, गोण, प्रोढ़, दोड़ लिख दिया जाता है। अब ‘शौक’ का ही उदाहरण लीजिए। शौक आपकी पसंद या अभिरुचि को प्रकट करता है, किंतु ‘शोक’ लिखते ही वह मातम में बदल जाता है। लौटा-लोटा या लौटना-लोटना में लौटना का आशय है कहीं से वापस आना, जबकि लोटना का अर्थ है लेटना, उलट-पलट होना।

तो आपने देखा कि वर्तनी की अशुद्धि अर्थ का अनर्थ भी कर सकती है और आपके द्वारा लिखी गई अच्छी से अच्छी रचना के स्तर को बुरी तरह से प्रभावित कर सकती है। आपको थोड़ा सा सतर्क होने की जरूरत है। अपने लेख की किसी मित्र या गुरु से समीक्षा करवा लें। जिन अशुद्धियों को चिह्नित किया जाए, उन पर कुछ दिन तक विशेष ध्यान दें। बाद में सब ठीक हो जाएगा।

लेखक: विनोद शर्मा