शनिवार, 27 दिसंबर 2014

ज़रूरी है भाषा के सेनानी रॉबर्ट फ़िलिपसन के बारे में जानना

हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं जब शोषण के अनेक रूपों को विकास की सहज-स्वाभाविक प्रक्रिया साबित करने की कोशिश की जा रही है। चाहे अल्पसंख्यकों, आदिवासियों आदि की भाषाओं के हाशिये पर जाने की बात हो या उनके संसाधनों पर सरकार या बड़ी कंपनियों द्वारा कब्ज़ा किए जाने का मसला, हर बात को सामाजिक डार्विनवाद से जोड़कर विविधता के ख़त्म होने से जुड़े ख़तरों से मुँह मोड़ने की कोशिश की जाती है। जिन्हें इस तथाकथित विकास प्रक्रिया में अपना हिस्सा मिल जाता है, वे चुप्पी साधे रहते हैं। लेकिन कुछ विद्वान ऐसे भी हैं जो पर्दे के पीछे की राजनीति को न केवल समझने की कोशिश करते हैं बल्कि अपने मज़बूत तर्कों से हाशिये पर जा रहे लोगों के उपेक्षित मुद्दों को बहस के केंद्र में लाने का भी काम करते हैं। ऐसे ही एक विद्वान हैं रॉबर्ट फ़िलिपसन जिन्होंने 1992 में 'लिंग्विस्टिक इंपीरियलिज़्म' जैसी महत्वपूर्ण किताब लिखकर एक ऐसे मुद्दे पर विश्‍वव्यापी बहस छेड़ दी जिसकी अनदेखी करने की तमाम कोशिशें की जाती रही हैं। उनकी एक और महत्वपूर्ण किताब 'लिंग्विस्टिक इंपीरियलिज़्म कंटीन्यूड' 2013 में प्रकाशित हुई। इसमें उन्होंने इक्कीसवीं सदी में भाषाई साम्राज्यवाद के नए संदर्भों को शामिल किया। ब्रिटेन में जन्मे और अभी डेनमार्क के कोपेनहेगन बिज़नेस स्कूल में अंग्रेज़ी के शोध प्रोफ़ेसर के रूप में कार्यरत फ़िलिपसन ने यूरोप में अंग्रेज़ी के बढ़ते प्रभाव को लेकर 2003 में 'इंग्लिश ऑनली यूरोप?' नाम की किताब भी लिखी है। उनके तर्कों का महत्व इस तथ्य के कारण बढ़ जाता है कि उन्होंने ब्रिटिश काउंसिल में काम करने के दौरान ही अंग्रेज़ी के प्रभुत्ववादी रूप को देख लिया था।

हमें तमाम मंचों पर यह बात बार-बार कहने की ज़रूरत है कि जो संस्थाएँ अराजनैतिक होने का दावा करती हैं उनकी अघोषित राजनीति ज़्यादा ख़तरनाक होती है। ब्रिटिश काउंसिल जैसी संस्था की असलियत बताने वाले फ़िलिपसन का एक बहुत बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने अंग्रेज़ी को उत्पाद बनाकर बेचने वाली इस संस्था की एक ऐसी सुनियोजित कार्रवाई की ओर हमारा ध्यान खींचा है जिसका इतिहास औपनिवेशिक काल तक जाता है। जिस संस्था की स्थापना में ब्रिटेन की बड़ी तेल कंपनियों की भूमिका रही हो, उसे ख़ुद को अराजनैतिक घोषित करने के लिए कितनी राजनीति करनी पड़ती होगी इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है! 1989 में इसके महानिदेशक रिचर्ड फ़्रांसिस ने अंग्रेज़ी को उत्तरी समुद्र में मिलने वाले तेल के बाद ब्रिटेन की आय का दूसरा मुख्य स्रोत बताया था। 1935 में स्थापित ब्रिटिश काउंसिल में अंग्रेज़ी के सर्वश्रेष्ठ भाषा होने की भावना भरी हुई है और यह भावना भाषाई साम्राज्यवाद को मज़बूत बनाने वाली इसकी शिक्षा नीतियों में साफ़ दिखती है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्‍व बैंक जैसे संस्थानों से मिलने वाली आर्थिक सहायता की आड़ में विकासशील और अविकसित देशों में अंग्रेज़ी को आवश्यकता से अधिक महत्व देने वाली नीतियाँ लागू कराने में ब्रिटिश काउंसिल की बहुत बड़ी भूमिका रही है।

ब्रिटिश काउंसिल की रिपोर्टों में अंग्रेज़ी को उत्पाद के रूप में बेचने के लिए ऐसी मान्यताएँ प्रस्तुत की जाती हैं जिनका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं होता। इस आक्रामक विज्ञापन के सूत्र इस तथ्य से जुड़ते हैं कि इस संस्था का वार्षिक टर्नओवर लगभग 73 अरब रुपये है और इसका प्रमुख उद्देश्य लगभग तीन खरब रुपये के वार्षिक टर्नओवर वाले अंग्रेज़ी उद्योग को आगे बढ़ाना है। जब इतने बड़े उद्योग का मामला हो तो पूँजीवाद को तथ्यों के साथ खिलवाड़ करने में बहुत आनंद आता है। इस बात को फ़िलिपसन ने डेविड ग्रैडॉल नाम के भाषाविद की 2010 में प्रकाशित रिपोर्ट 'इंग्लिश नेक्स्ट इंडिया' की आलोचना करते हुए प्रभावशाली ढंग से सामने रखा है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि अंग्रेज़ी एक ऐसी भाषा है जिसकी मदद से संसार के किसी भी देश के लोगों से संपर्क किया जा सकता है, जबकि तथ्य यह है कि संसार की दो-तिहाई आबादी अंग्रेज़ी नहीं जानती है। लातिन अमेरिका, दक्षिण यूरोप, मध्य-पूर्व आदि में अंग्रेज़ी से काम चलाना नामुमकिन है। यह एक ऐसा तथ्य है जिस पर पर्दा डालने की कोशिश की जाती रही है। इस रिपोर्ट में अंग्रेज़ी को आधारभूत कौशल साबित करने की कोशिश की गई है जिसका उद्देश्य इस भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाना ही है। हमें ऐसी कोशिशों का विरोध करना चाहिए। यहाँ हमें फ़िलिपसन के तर्क से मदद मिलती है। उनका कहना है कि फ़िनलैंड, नीदरलैंड आदि देशों में लोगों की अंग्रेज़ी पर अच्छी पकड़ का कारण उन देशों में एक विषय के तौर पर अंग्रेज़ी की स्तरीय शिक्षा है न कि शिक्षा के माध्यम का अंग्रेज़ी होना। यह बहुत महत्वपूर्ण तथ्य है। हमें यह तय करना होगा कि हम ब्रिटिश काउंसिल के शिक्षा उत्पादों के व्यापार को बढ़ावा देने के लिए अपने देश की शिक्षा नीति में बदलाव लाएँगे या अपने देश के हितों को ध्यान में रखते हुए यह काम करेंगे। फ़िलिपसन हमें इस ख़तरे के प्रति आगाह करते हैं कि भारत में शिक्षा नीति तय करने वाले लोग ग्रैडॉल की रिपोर्ट में पेश की गई मान्यताओं को तथ्य मान सकते हैं। इस रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि अंग्रेज़ी यूरोप में व्यापार की भाषा है। फ़िलिपसन इस दावे की असलियत बताते हुए कहते हैं कि यूरोप में व्यापार के लिए कई भाषाओं का प्रयोग किया जाता है। रिपोर्ट में यूरोपीय विश्‍वविद्यालयों द्वारा अंग्रेज़ी को अपनाने की बात कही गई है। फ़िलिपसन बताते हैं कि इन विश्‍वविद्यालयों में अंग्रेज़ी को एक विषय के रूप में जोड़ा गया है और ऐसा करते हुए स्थानीय भाषाओं की अनदेखी नहीं की गई है। वे इस रिपोर्ट में अंग्रेज़ी सीखने के सर्वस्वीकृत तरीके के मौजूद होने की बात को भी ग़लत बताते हैं। ब्रिटिश काउंसिल अपने शिक्षा उत्पादों को बेचने के लिए ब्रिटेन की शिक्षण पद्धति को सभी देशों के लिए उपयुक्‍त साबित करने की कोशिश करती है। इससे मिलती-जुलती कोशिश बीज बेचने वाली कंपनियाँ भी करती हैं। विकासशील देशों के भ्रष्ट शासकों के कारण जिन किसानों को मजबूरी में उनका बीज खरीदना पड़ता है उन्हें इसकी कीमत कभी खेत के बंजर होने तो कभी फ़सल के बर्बाद होने के रूप में चुकानी पड़ती है। स्थानीय ज़रूरतों की अनदेखी करके विदेशी उत्पादों की ख़रीद के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा डाले जाने वाले दबाव पर पत्र-पत्रिकाओं में थोड़ी-बहुत बात हो भी जाती है लेकिन भाषा के मामले में ऐसे दबाव पर ध्यान नहीं दिया जाता। इस लापरवाही की कीमत पूरे देश को चुकानी पड़ेगी क्योंकि अपनी भाषा से दूर होने के कारण दिमाग़ का बंजर होना हर हाल में ज़मीन के बंजर होने जितना ही ख़तरनाक है।

अंग्रेज़ी के कई देशों में विस्तार से संबंधित लेखन में डेविड क्रिस्टल का नाम भी उल्लेखनीय है। उनके लेखन की सबसे बड़ी सीमा यह है कि वे अंग्रेज़ी के नवसाम्राज्यवादी संदर्भों को या तो समझने में विफल रहे हैं या उन्होंने जान-बूझकर साम्राज्य के सामने चुप रहने का फ़ैसला लिया है। उन्होंने अंग्रेज़ी के विस्तार का वर्णन करते हुए औपनिवेशिकता से जुड़े महत्वपूर्ण संदर्भों का उल्लेख ही नहीं किया है। उपनिवेशों के आज़ाद होने के बाद भी जिन संस्थानों ने साम्राज्यवाद की भाषाओं के वर्चस्व को बनाए रखने की कोशिश की उनके बारे में कुछ नहीं लिखने को केवल संयोग नहीं कहा जा सकता है। साम्राज्यवाद के पुराने तरीकों के अप्रभावी होने के बाद नए तरीके अपनाए गए। हमें इन तरीकों के बारे में ह्यू नामक विद्वान बताते हैं। उन्होंने 1992 में दक्षिण अफ़्रीका में विश्‍व बैंक के अधिकारियों द्वारा शिक्षण में द्विभाषिकता का समर्थन नहीं करने की घोषणा करने के बारे में लिखा है। यह विरोध औपनिवेशिकता के चंगुल से निकलने वाले देशों में साम्राज्यवाद से जुड़ी भाषाओं के वर्चस्व को कायम रखने के प्रयास का छोटा-सा हिस्सा था। विश्‍व बैंक से मिलने वाली आर्थिक सहायता में स्थानीय भाषाओं के उत्थान की कोई गुंजाइश नहीं होती है। स्थानीय भाषाओं से अंग्रेज़ी की ओर ले जाने की सुदृढ़ व्यवस्था बनाने वाले तंत्र को नवसाम्राज्यवादी तंत्र ही कहा जाएगा। जो लोग एशिया, अफ़्रीका आदि के पूर्व उपनिवेशों में अंग्रेज़ी के प्रति बढ़ते रुझान का उदाहरण देकर भाषाई साम्राज्यवाद की बात को नकारते हैं, वे यह भूल जाते हैं कि तंत्र के दबाव के कारण आम जनता की मानसिकता में बदलाव आना स्वाभाविक है। असल में अंग्रेज़ी के संदर्भ में दबाव और रुझान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

फ़िलिपसन हमारे लिए महत्वपूर्ण इसलिए भी हैं कि उन्होंने भाषा के मुद्दे पर बात करते हुए एक ऐसा सभ्यता विमर्श शुरू किया है जिसकी अनदेखी करके हम भाषाई साम्राज्यवाद को ठीक से समझ ही नहीं सकते। वे औपनिवेशिकता के संदर्भ में विजेताओं और विजितों दोनों की असामान्य मानसिक अवस्था का उल्लेख करते हैं। जहाँ विजेता अपनी भाषा को संसार की एकमात्र उपयोगी भाषा मानते हैं, वहीं विजित अपनी ही भाषाओं को हेय दृष्टि से देखने लगते हैं। उन्होंने अपने एक आलेख में विजेताओं की मानसिकता के बारे में बताते हुए आशीष नंदी की इस बात को उद्धृत किया है कि उपनिवेशवाद का भारतीयों की तुलना में अंग्रेज़ों पर अधिक असर पड़ा क्योंकि साम्राज्य के आदर्शों को ब्रिटेन के सभी वर्गों ने आत्मसात कर लिया था। इसी आलेख में उन्होंने साम्राज्य को बनाए रखने में मददगार शिक्षा पर बर्ट्रेंड रसेल के विचार को उद्धृत किया है। बर्ट्रेंड रसेल ने इस शिक्षा का मूल्यांकन करके बताया था कि अपने नागरिकों को ऐसी शिक्षा देने का उद्देश्य था ऐसे लोगों को तैयार करना जो सत्ता और शक्‍ति से जुड़े पदों के लिए योग्य हों। ऐसे व्यक्‍तियों में ऊर्जावान, भावहीन और चुस्त-दुरुस्त होने के गुण अपेक्षित थे। उन्हें इस तरह प्रशिक्षित किया जाता था कि उनकी मान्यताओं में किसी तरह का बदलाव संभव नहीं था। उन लोगों के मन में यह बात बैठ जाती थी कि उनके जीवन का एक मिशन है। यह मिशन था अपनी भाषा और सभ्यता के पूरे विश्‍व में प्रचार-प्रसार करना। बर्ट्रेंड रसेल ने इस बात पर आश्‍चर्य भी प्रकट किया कि यह शिक्षा अपने तमाम लक्ष्यों को पाने में सफल साबित हुई। उनके अनुसार इन लक्ष्यों को समझ, सहानुभूति, कल्पनाशक्‍ति आदि की कीमत पर प्राप्त किया गया था। हमें फ़िलिपसन की इस बात को याद रखना चाहिए कि आज भी पश्‍चिमी जगत में ऐसी चारित्रिक विशेषताओं वाले लोगों की कमी नहीं है। औपनिवेशिक शिक्षा के कारण भारत में ऐसी सोच वाले बहुत-से बुद्धिजीवी मिल जाएँगे जो साहित्य, दर्शन आदि के मामलों में अंग्रेज़ी की सर्वश्रेष्ठता की औपनिवेशिक मान्यता का समर्थन करते हैं। सच्चाई तो यह है कि जर्मन, रूसी, इतालवी, चीनी, जापानी जैसी भाषाएँ दर्शन, साहित्य, विज्ञान आदि में अंग्रेज़ी से किसी भी तरह कमतर नहीं हैं। न्गूगी वा थ्योंगों ने पूर्व-औपनिवेशिक देशों के बुद्धिजीवियों की उस मानसिकता के बारे में लिखा है जिसके कारण वे अपनी भाषाओं में छिपी संभावना से अनजान बने रहते हैं। जब समाज के महत्वपूर्ण मसलों के प्रति जनता को जागरूक बनाने वाले बुद्धिजीवियों में अपनी भाषाओं को लेकर हीनभावना रहेगी तो आम जनता की मानसिकता कैसी होगी इसके बारे में कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं है।

भाषा के मसले पर सही संदर्भों के साथ तर्क पेश करके ही अंग्रेज़ी के प्रचार तंत्र का सामना किया जा सकता है। अंग्रेज़ी को उत्पाद बनाकर उससे खरबों रुपये कमाने वाली संस्थाएँ अपनी प्रचार सामग्री को तथ्य के रूप में पेश करती हैं। अंग्रेज़ी को ज्ञान की प्राप्ति के एक साधन के रूप में पेश करने के बदले इसे एकमात्र साधन साबित करने की कोशिश की जाती है। इतिहास, राजनीति विज्ञान, समाजशास्त्र आदि की पढ़ाई के लिए अंग्रेज़ी को माध्यम बनाए रखने का मतलब है अंग्रेज़ी किताबों के करोड़ों रुपये के बाज़ार को बनाए रखना। अगर उच्च शिक्षा में भारतीय भाषाओं को शामिल किया जाएगा तो इससे यह बाज़ार मंदा पड़ जाएगा। इस बात को अच्छी तरह जानने-समझने वाली ताकतें शिक्षा नीति में अंग्रेज़ी के वर्चस्व को हटाने की हर कोशिश का ज़ोरदार विरोध करती हैं। ऐसी कोशिशें विश्‍व बैंक से लेकर ब्रिटिश काउंसिल तक हर स्तर पर देखी जा सकती हैं। इन कोशिशों को सिलसिलेवार ढंग से हमारे सामने प्रस्तुत करने वाले तमाम लेखकों की किताबों का भारतीय भाषाओं में अनुवाद होना चाहिए। आलोचना के हर स्वर को 'निरर्थक षड्यंत्र सिद्धांत' कहकर ख़ारिज़ करने की कोशिश की जाती है। ऐसे समय में फ़िलिपसन का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि वे ख़ारिज़ करने की इस प्रवृत्ति को उन बड़े फ़ैसलों और प्रक्रियाओं की जानकारी को सहेजकर रखने की कोशिश को हतोत्साहित करने का षड्यंत्र बताते हैं जिनकी बुनियाद पर शोषण और असमानता का तंत्र टिका हुआ है। अगर हमें लोकतंत्र की रक्षा करनी है तो हमें बहुभाषिकता को बढ़ावा देना ही होगा। हमें यह बात डंके की चोट पर कहनी चाहिए कि विविधता का सम्मान करने वाले आधुनिक विश्‍व में किसी एक भाषा को मानवता की भाषा नहीं कहा जा सकता है। यूरोप के लोगों ने यह बात पहले ही कह दी है। अब इसकी घोषणा करने की हमारी बारी है।

मेरा यह आलेख सामयिक वार्ता के नवंबर अंक में प्रकाशित हुआ है।

रविवार, 30 नवंबर 2014

Small world: Impac prize’s version of global literature is distinctly parochial (द गार्डियन से साभार)


The 2015 International Impac Dublin literary award’s 142-book longlist, announced this week, looks to be world-spanning, with 49 novels in translation from 16 different languages, nominated by libraries in 114 cities and 39 countries. But a closer look at the longlist for the €100,000 prize turns up a number of questions. Where are the books from African and Indian languages? Nothing in Arabic? Or Japanese?

The prize gathers its longlist from libraries around the world. But as MA Orthofer notes over at The Literary Saloon, the prize “has as many nominators (one) from Liechtenstein as it does from all Africa”. There were no Arab libraries nominating titles for the 2015 prize, nor any from Japan, and there is only one from South America. The blogger at Travelling in the Homeland writes that the single nominating library from India doesn’t fit the prize’s “public” criterion, as it’s a privately run, members-only cultural centre. All three of its nominations were written in English.

Over its 18 years, the Impac prize has highlighted a lot of books in translation, but these have mostly been from European languages. In 2014, the first year the prize listed the nominated books’ language of origin, there were none from non-European languages. For the 2015 prize, there are two from Korean, one from Chinese, and one from Malay.

But these translations raise yet more questions about the best way to find great books from around the world. The two Korean titles were nominated by the “Literature Translation Institute of Korea Library”. According to Orthofer, the same institution subsidised their translation into English. Returning to Liechtenstein: its national library nominated Kurt J Jaeger’s self-translated and self-published The Abyssinian Cache, and it’s hard to believe they weren’t prioritising the author’s nationality above other considerations.

With big languages like Hindi, Bengali, and Arabic, the prize has had few relations. There were no nominees translated from Arabic for its first eight years. Then, when a few translations popped up between 2004 and 2011, they were a strange mix. Alaa al-Aswany’s Yacoubian Building, translated by Humphrey Davies, is understandable, but his Chicago? And Girls of Riyadh is an interesting, popular book, but the book’s English version was disowned by its translator, Marilyn Booth. Samuel Shimon’s Iraqi in Paris could have been a good choice for the prize, but the nominated English version was a composite of different translators’ work. The book has since been re-translated and re-released.

For all the prize’s 18 years, there has been no work by Elias Khoury, no Hanan al-Shaykh, no Bensalem Himmich, no Ibrahim al-Koni, no Fadhil al-Azzawi.

Having more South American, African, and Asian libraries among the nominators might be one stab at a solution, but with a qualification. The Alexandria Library is no less likely than Lichtenstein’s to nominate a local favorite. As Orthofer writes, “surely the first rule here should be: you can’t nominate a book by an author from the country you represent.” This would be an unpopular restriction, but not an impossible one.

The Impac’s 18 winners have been an international bunch, with a respectable eight of 18 being translated from another language. But the languages are also the usual few: two from Spanish, two from the French, one German title, one Dutch, one Norwegian, and a single outlier from a non-European language – Orhan Pamuk’s My Name is Red, translated from the Turkish by Erdag M Göknar.

There are undoubtedly great authors on the Impac longlists, and it’s quite ambitious to bring together a 142-book list from around the world, nominated by judges from around the world. But to be truly bibliodiverse, the prize needs to work harder to forge new connections.

द गार्डियन से साभार

शनिवार, 15 नवंबर 2014

Lots in translation (द हिंदू से साभार)


After having waited in the wings for so long, translations are slowly moving centre-stage

Aarachar drew much attention, both good and not-so-good. Yet, when K. R. Meera’s novel with a gender-neutral Aarachar for title became the Hangwoman in translator J. Devika’s hands, it took to the skies. The translation wriggled and made space for itself, particularly, in the national media. Publisher Hamish Hamilton, an imprint of Penguin India, planned Hangwoman’s publication and promotions meticulously. Meera’s book and Meera earned welcome reviews in mainstream, English publications. This mirrored signs of change. Translations are no more sitting at the fringes; instead, from what is a concerted effort from big-time publishers, naturally bi-lingual translators and solid original works, it is moving centrestage. Aggressive book promotions typically ear-marked for Indian writing in English, is now happening with translations too and they are the better for it.

A progression

R. Sivapriya, executive editor at Penguin India, and who specialises in translations, says the new turn for the publishing firm began when they brought out Benyamin’s Goat Days. “Penguin has been publishing translations since its inception in India. But with Goat Days in late 2012, the way we published and promoted translations changed,” says Sivapriya. The publisher’s instinct about the book also had to do with the uniqueness of the tale it told. “Goat Days was the right book at the right time. It could travel well with translation. It could speak to anyone anywhere,” says Sivapriya.

A renewed focus on translations, she points out, came from the firm belief that the “most exciting writing was happening in Indian languages.” “We knew we cannot ignore it and if we are doing translations, we rather do it well,” says Sivapriya.

Painstaking translated and edited, the works are given a new life with stunning covers and succinct blurbs. “We pitch in with a full-scale campaign. For Goat Days, along with the books sent to the press went a two-page note on the author,” says Sivapriya. Goat Days too invited considerable media attention and also made it to the Man Asian Long List. “Till date we have sold 7,000 copies of Goat Days. It is definitely not a patch on the Malayalam numbers. I cannot really say if the press attention means better sales. The numbers for translation are getting marginally better,” she adds.

Penguin followed up Goat Days with Shamsur Rahman Faruqi’s The Mirror of Beauty, translated from Urdu and Sachin Kundalkar’s Cobalt Blue from Marathi among others. “The buzz about Hangwoman was really good ,” says Sivapriya.

If translations are a growing presence, Anita Nair who has reviewed Hangwoman, translated Thakazhi’s Chemeen to English (published by HarperCollins) and is a popular Indian author writing in English, believes the quality of translations has been key. “Yes, publishing firms have opened out. The emergence of a new crop of translators who have equal felicity in both languages mean fluid translations. The media too recognises the need to woo in readers. So what I see is an organic synergy,” says Anita.

Anita understands a translator’s dilemma and hence finds the efforts of those such as J. Devika and Gita Krishnankutty praiseworthy. “Translators walk a very fine line between art and craft. A lot of translators who are working now have some kind of literary background. Translations then become seamless,” she says.

K. Satchidanandan, poet and writer, too believes the blossoming of a true bi-lingual generation is a blessing. “They are truly confident in English and have sufficient knowledge in their mother-tongue,” says the veteran author whose works have been translated into multiple languages including English. Satchidanandan, who lives in Delhi, says he has seen “very evident change” in the sphere of translations in the past five years or so. “Lack of very good works in English would have also forced the mainstream to turn to translations,” he says.

Documenting change

Satchidanandan traces the change to the time Macmillan came out with a series of Indian novels in translation some years ago. “It was a great beginning which went on for three to four years. Since then, others like Oxford University Press, Orient Blackswan and Penguin have came in. A pioneering publisher in the field was Katha, entirely dedicated to translations,” says Satchidanandan.

With more prizes now introduced for translations, attention on it is naturally more, he says. “The DSC prize for South Asian literature could be for an original or translated work. The translation of U.R. Ananthamurthy’s Bharathipura was shortlisted for the Man Booker in 2013. All these have given the translation agenda a push,” says Satchidanandan.

Unlike mainstream Indian writing in English, translations are often about the most talked-about and popular regional works of a time. Sivapriya talks of the invisible filter in place while picking out works for translations. “In the last couple of years, we have brought out apart from Malayalam, works in Urdu, Hindi, Marathi and Tamil. With translations, one gets to choose the best. With Goat Days, we were figuring out how to go about it. By the time we got to Hangwoman we have got better at it. Both these books are our biggest success,” she says.

The choice of books translated of late has been vital, agrees Satchidanandan. Be it Goat Days or Nalini Jameela’s The Autobiography of a Sex Worker or Hangwoman, the narratives focus on experiences that are new to the reader. “Goat Days talked about the terrible misery of an ordinary job seeker in the Middle East and Hangwoman as an idea was something hardly written about. So more than the art of these novels, it is the fresh life experiences they talked of which made them click with Indian middle class readers,” says Satchidanandan. Whether these novels are classics are for the critics to decide, he says, but for the readers of the original and the translation, it smacks of life. “The scene is much better today when regional writers have a better opportunity to get noticed across the country,” says Satchidanandan. Attention may or may not mean sales. “With Meera’s novel it is too early to say,” says Sivapriya.

द हिंदू से साभार



सोमवार, 27 अक्तूबर 2014

एजेंसियों के तौर-तरीके

जर्मन, इतालवी और अंग्रेज़ी में अनुवाद करने वाली एंजेलिका इस पोस्ट में अपनी जिन परेशानियों के बारे में बता रही हैं उनका सामना अधिकतर अनुवादकों ने कभी-न-कभी किया ही होगा। मूल रूप से जर्मन में लिखी इस पोस्ट को पढ़कर आप यह जान जाएँगे कि इंटरनेट के माध्यम से काम करने वाले अनुवादकों की समस्याएँ एक जैसी ही हैं।

एजेंसियों के तौर-तरीके

अनुवाद एजेंसियाँ - न उनके साथ रह सकते हैं न उनके बिना...

 

क्लाइंट रिश्तेदारों और पड़ोसियों की तरह होते हैं, हम उन्हें (हमेशा) नहीं चुन सकते हैं।

 

 

मुझे प्रत्यक्ष क्लाइंट के लिए काम करना स्वाभाविक रूप से सबसे अच्छा लगता है। 'बिचौलिये' के हटने से आय भी तुलनात्मक रूप से बहुत ज़्यादा होती है। यही नहीं, मैं प्रत्यक्ष क्लाइंटों से खुद मोल-भाव कर सकती हूँ। शुल्क, समय सीमा, भुगतान अवधि और अन्य सभी सामान्य शर्तें सीधे क्लाइंट के साथ तय होती हैं। वहीं दूसरी ओर, अनुवाद एजेंसियों के पास तुलनात्मक रूप से बहुत अधिक संख्या में क्लाइंट होते हैं और वे मुझे दिलचस्प और बड़े प्रोजेक्टों पर काम करने का मौका देते हैं जो स्वतंत्र अनुवादक के रूप में मेरी पहुँच से हमेशा बाहर रहते। यही नहीं, मुझे क्लाइंटों के साथ मोल-भाव नहीं करना पड़ता है; बस एजेंसियों की शर्तों को मानना और अनुवाद करना होता है।

हालाँकि जहाँ तक अनुवाद एजेंसियों की सामान्य शर्तों की बात है तो उन्हें लेकर प्राय: अनिश्‍चितता बनी रहती है। अगर प्रति शब्द दर को छोड़ भी दें, जो अधिकतर मामलों में प्रत्यक्ष क्लाइंट की शब्द दर की तुलना में केवल आधी या उससे भी कम होती है, तो 90 दिन तक पैसा देने की भुगतान अवधि अब अपवाद नहीं रह गई है।

और, अनुवाद एजेंसियों में एक होता है पी.एम. यानी प्रोजेक्ट मैनेजर। एक अनोखी प्रजाति। मैंने हाल ही में फ़ेसबुक पर पढ़ा: "प्रोजेक्ट मैनेजर यह मानता है कि नौ औरतें एक महीने में बच्चे को जन्म दे सकती हैं।" कितनी सटीक बात है!

प्रोजेक्ट मैनेजर की यह ज़िम्मेदारी होती है कि वह अनुवाद का प्रोजेक्ट सुयोग्य अनुवादक को सौंपे। इसके लिए वह एजेंसी के डाटाबेस में संबंधित भाषा युग्म के सभी अनुवादकों से संपर्क करता है और काम के लिए कोटेशन माँगता है। आम तौर पर सबसे कम शब्द दर वाले अनुवादक को काम मिल जाता है। ज़ाहिर है इस बात का उल्लेख नहीं किया जाता!

प्राय: प्रोजेक्ट मैनेजर का जवाब होता है: "हम आपका कोटेशन क्लाइंट को भेजेंगे और आपको यह सूचित करेंगे कि यह उसे स्वीकार्य है या नहीं।"

ज़ाहिर तौर पर यह बकवास है। कंपनी ने पहले ही इस एजेंसी के लिए फ़ैसला ले लिया है। इसका मतलब यह है कि अनुवाद के लिए कोटेशन उसके पास पहले से उपलब्ध है।

प्रोजेक्ट मैनेजर किसी अनुवादक को प्रोजेक्ट सौंपने से हिचक ही रहा है क्योंकि अभी तक सभी अनुवादकों ने उसके ईमेल का जवाब नहीं भेजा है और शायद उसे कोई ऐसा अनुवादक जवाब भेजे जो उसके लिए सबसे अच्छी दर से भी कम दर का प्रस्ताव रखे।

प्रोजेक्ट मैनेजर के प्रति पूरी सहानुभूति रखते हुए - वह केवल अपना काम कर रहा है - यह कहा जा सकता है कि इस प्रकार की दिक्कतें अनुवादकों को परेशान करती हैं। अगर मुझे केवल इस बात का जवाब पाने के लिए चार दिन इंतज़ार करना पड़े कि मुझे 17,000 शब्दों के अनुवाद की शुरुआत करनी है या नहीं, तो मेरा काम रुका रहता है। पुष्टि किसी भी समय हो सकती है (या नहीं हो सकती है)... और जैसा संयोग हमेशा बनता है, इंतज़ार की इसी अवधि में प्रोजेक्ट के सबसे अच्छे प्रस्ताव आते हैं।

इसलिए मैं भविष्य में ऐसा कोटेशन अंतिम तिथि के साथ दूँगी। यह कोटेशन दो दिन के लिए मान्य है। इससे बेहतर... फ़ाइल मिलने के बाद 48 घंटे, ताकि कोई सवाल नहीं उठाया जा सके। 

आप इस स्थिति से कैसे निपटते हैं?



             

मंगलवार, 30 सितंबर 2014

हिंदी में वैज्ञानिक शब्दावली की समस्या (जनसत्ता से साभार)

मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक शब्दावली का कोश तैयार करने का बीड़ा उठाया हुआ है। वर्ष 1961 में संसद में पारित प्रस्ताव के मुताबिक सभी विषयों के लिए सभी भाषाओं में शब्दावली तैयार की जाएगी। हर भाषाई क्षेत्र में कार्यशालाएं आयोजित की जाती हैं, जहां भाषा और विषय के विद्वान एक साथ बैठ कर शब्दों पर बहस करते हैं और शब्दावली बनाते हैं। ऐसे शब्दकोश को तैयार करने का मकसद क्या होना चाहिए? आज तक चला आ रहा पुराना सोच यह है कि तकनीकी शब्दावली भाषा को समृद्ध बनाती है। पर इसमें समस्या यह है कि हमारी भाषाओं में समृद्धि को अक्सर क्लिष्टता और संस्कृतनिष्ठता का पर्याय मान लिया गया है। इसलिए तकनीकी शब्दावली पूरी तरह संस्कृतनिष्ठ होती है।

इसके पक्ष में कई तर्क दिए जा सकते हैं। वैज्ञानिक शब्दों में भिन्न अर्थों की गुंजाइश कम होती है। संस्कृत में व्याकरण और शब्द-निर्माण के नियमों में विरोधाभास नहीं के बराबर हैं। भाषा जानने वालों को संस्कृत शब्दों में ध्वन्यात्मक सौंदर्य भी दिखता है। पर विद्वानों की जैसी भी मुठभेड़ संस्कृत भाषा में होती रही हो, लोक में इसकी कोई विशेष जगह न कभी थी, और न ही आज है। इस वजह से कोशिश हमेशा यह रहती है कि शब्दों के तत्सम रूप से अलग सरल तद्भव शब्द बनाए जाएं। कइयों में यह गलत समझ भी है कि संस्कृत का हर शब्द हिंदी में स्वाभाविक रूप से इस्तेमाल हो सकता है। इसलिए विद्वानों में यह संशय पैदा नहीं होता कि शब्दावली क्लिष्ट हो रही है। सामान्य छात्रों और अध्यापकों को परेशानी झेलनी पड़ती है।

इसके विपरीत, मकसद पर एक समझ यह भी है कि शब्दावली ऐसी हो जो विज्ञान सीखने में मदद करे और विषय को रुचिकर बनाए। बीसवीं सदी के प्रख्यात भौतिकीविद रिचर्ड फाइनमैन ने अध्यापकों को दिए एक व्याख्यान में समझाया था कि शब्द महत्त्वपूर्ण हैं, उनको सीखना है, पर पहली जरूरत यह है कि विज्ञान क्या है, यह समझ में आए। ये दो बातें बिल्कुल अलग हैं और खासतौर पर हमारे समाज में जहां व्यापक निरक्षरता और अल्प-शिक्षा की वजह से आधुनिक विज्ञान एक हौवे की तरह है। इस तरह लोकतंत्र के निर्माण में इन दो प्रवृत्तियों की अलग राजनीतिक भूमिका दिखती है।

तकरीबन हर भारतीय भाषा में इन दो तरह की समझ में विरोध है। हिंदी में यह द्वंद्व सबसे अधिक तीखा बन कर आता है। बांग्ला, तेलुगू जैसी दीगर भाषाओं में उन्नीसवीं सदी तक काफी हद तक संस्कृत शब्दों की आमद हो चुकी थी। हिंदी में इसके विपरीत, जब से कविता से ब्रजभाषा विलुप्त हुई और खड़ी बोली हर तरह से मान्य भाषा बन गई, तद्भव शब्द काफी हद तक बचे रहे, पर तत्सम शब्दों का इस्तेमाल अटपटा लगने लगा। आजादी के बाद कुछ सांप्रदायिक और कुछ सामान्य पुनरुत्थानवादी सोच के तहत हर क्षेत्र में पाठों में तत्सम शब्द डाले गए। उस संस्कृतनिष्ठ भाषा को पढ़-लिख कर तीन-चार पीढ़ियां बड़ी हो चुकी हैं। हिंदी को जबरन संस्कृतनिष्ठ बनाने की यह कोशिश कितनी विफल रही है, यह हम सब जानते हैं। यह समस्या और गंभीर हो जाती है, जब नए कृत्रिम तत्सम या तद्भव शब्द बना कर भाषा में डाले जाते हैं।

एक समय था जब लोगों को लगता था कि धीरे-धीरे ये नए कृत्रिम शब्द बोलचाल में आ जाएंगे, पर ऐसा हुआ नहीं है। अब ग्लोबलाइजेशन के दबाव में सरकारों की जन-विरोधी अंगरेजीपरस्त नीतियों और अन्य कारणों से स्थिति यह है कि भाषाएं कब तक बचेंगी, यह सवाल हमारे सामने है। ऐसे में गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि इन कोशिशों का मतलब और मकसद क्या हो। अगर हम अपने मकसद में कामयाब नहीं हैं, तो वैकल्पिक तरीके क्या हों। क्या तत्सम शब्दों के अलावा तकनीकी शब्दों को ढूंढ़ने का कोई और तरीका भी है।

कुछेक उदाहरणों से बात ज्यादा साफ होगी। रसायन के कोश का पहला शब्द अंगरेजी के ऐबरेशन शब्द का अनुवाद ‘विपथन’ है। यह शब्द कठिन नहीं है, ‘पथ’ से बना है, जिसे बोलचाल में इस्तेमाल न भी किया जाए, हर कोई समझता है। ‘विपथ’ कम लोगों के समझ आएगा, जैसे मैथिल भाषियों के लिए यह आम शब्द है। ‘विपथन’ हिंदी के अधिकतर अध्यापकों को भी समझ नहीं आएगा, जबकि अंगरेजी में ऐबरेशन हाई स्कूल पास किसी भी छात्र को समझ में आता है। इसकी जगह अगर ‘भटकना’ से शब्द बनाया गया होता, मसलन ‘भटकन’, तो अधिक लोगों को पल्ले पड़ता। यहां तर्क यह होता है कि संस्कृत के नियमों के अनुसार ‘विपथन’ से कई शब्द बन सकते हैं, पर ‘भटकन’ से ऐसा संभव नहीं है। पर क्यों नहीं? ऐसे पूर्वग्रहों से मुक्त होने की जरूरत है। अज्ञेय और रघुवीर सहाय जैसे कवियों ने हिंदी में कई शब्दों को सरल बनाया और कई नए शब्द जोड़े।

यह विडंबना है कि एक ओर अखबारों के प्रबंधक संपादकों को अंगरेजी शब्दों का इस्तेमाल करने को मजबूर कर रहे हैं, तो दूसरी ओर बोलचाल के शब्दों के साथ सामान्य खिलवाड़ कर नए शब्द बनाना गलत माना जा रहा है। मसलन कल्पना करें कि कोई ‘भटकित’ शब्द कहे तो प्रतिक्रिया में हिंसा नहीं तो हंसी जरूर मिलेगी। अगर ‘भटक गया’ या ‘भटक चुका’ लिखें तो लोग कहेंगे कि देखो तत्सम होता तो दो शब्द न लिखने पड़ते।

हिंदी के अध्यापकों के साथ बात करने से मेरा अनुभव यह रहा है कि वैज्ञानिक शब्दावली के अधिकतर शब्द उनकी पहुंच से बाहर हैं। मिसाल के तौर पर अंगरेजी का सामान्य शब्द ‘रीवर्सिबल’ लीजिए। हिंदी में यह ‘उत्क्रमणीय’ है। हिंदी के अध्यापक नहीं जानते कि यह कहां से आया। क्या यह उनका दोष है? इसकी जगह ‘विपरीत संभव’ या और भी बेहतर ‘उल्टन संभव’ क्यों न हो! एक शब्द है ‘अनुदैर्घ्य’- अंगरेजी के ‘लांगिच्युडिनल’ शब्द का अनुवाद है। सही अनुवाद है- दीर्घ से दैर्घ्य और फिर अनुदैर्घ्य। हिंदी क्षेत्र में अधिकतर छात्र इसे अनुदैर्ध्य पढ़ते हैं। ‘घ’ और ‘ध’ से पूरी दुनिया बदल जाती है। ऐसे शब्द का क्या मतलब, जिसे छात्र सही पढ़ तक न पाएं!

ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं, जहां शब्द महज काले अक्षर हैं और वैज्ञानिक अर्थ में उनका कोई औचित्य नहीं रह गया है। जो शब्द लोगों में प्रचलित हैं, उनमें से कई को सिर्फ इस वजह से खारिज कर दिया गया है कि वे उर्दू में भी इस्तेमाल होते हैं, जैसे कीमिया और कीमियागर जैसे शब्दों को उनके मूल अर्थ में यानी रसायन और रसायनज्ञ के अर्थ में शामिल नहीं किया गया है। यह मानसिकता हम पर इतनी हावी है कि करीब तीस साल पहले मैंने प्रख्यात कथाकार और ‘पहल’ पत्रिका के संपादक ज्ञानरंजन को अपनी चिंता साझा करते हुए लिखा था कि हिंदी में वैज्ञानिक शब्दावली हिंदी-भाषियों के खिलाफ षड़्यंत्र लगता है। इससे जूझने के लिए हमें जनांदोलन खड़ा करने की जरूरत है। शब्दावली बनाने की प्रक्रियाओं के समाजशास्त्रीय विश्लेषण की जरूरत है। ऐसा क्यों है कि हिंदी क्षेत्र के नामी वैज्ञानिक इसमें गंभीरता से नहीं जुड़ते। जो जुड़ते हैं, उनकी भाषा में कैसी रुचि है? यह भी एक तकलीफ है कि पेशे से वैज्ञानिक होना और वैज्ञानिक सोच रखना या विज्ञान-शिक्षा में रुचि रखना एक बात नहीं है।

अधिकतर वैज्ञानिकों के लिए विज्ञान महज एक नौकरी है। चूंकि पेशे में तरक्की के लिए हर काम अंगरेजी में करना है, इसलिए सफल वैज्ञानिक अक्सर अपनी भाषा में कमजोर होता है। इस बात को ध्यान में रख सत्येंद्रनाथ बोस जैसे महान वैज्ञानिकों ने भारतीय भाषाओं में विज्ञान लेखन पर बहुत जोर दिया था। चूंकि हिंदी क्षेत्र में गरीबी, भुखमरी और बुनियादी इंसानी हुकूक जैसे मुद्दे अब भी ज्वलंत हैं, विज्ञान और भाषा के इन सवालों पर जमीनी कार्यकर्ताओं का ध्यान जाता भी है तो वे सवाल महत्त्वपूर्ण नहीं बन पाए हैं। हिंदी में विज्ञान-कथाओं या विज्ञान-लेखन के अभाव (कुछेक अपवादों को छोड़ कर) के समाजशास्त्रीय कारणों को ढूंढ़ा जाए तो भाषा के सवालों से हम बच नहीं पाएंगे।

आखिर समस्या का समाधान क्या है। शब्द महज ध्वनियां नहीं होते। हर शब्द का अपना एक संसार होता है। जब वे अपने संसार के साथ हम तक नहीं पहुंचते, वे न केवल अपना अर्थ खो देते हैं, वे हमारे लिए तनाव का कारण बन जाते हैं। खासतौर पर बच्चों के लिए यह गंभीर समस्या बन जाती है। अंगरेजी में हर तकनीकी शब्द का अपना इतिहास है। हमारे यहां उच्च-स्तरीय ज्ञान आम लोगों तक नहीं पहुंच पाया, इसके ऐतिहासिक कारण हैं, जिनमें जाति-प्रथा की अपनी भूमिका रही है। यह सही है कि अंगरेजी में शब्द की उत्पत्ति कहां से हुई, इसे समझ कर उसका पर्याय हिंदी में ढूंढ़ा जाना चाहिए। पर लातिन या ग्रीक तक पहुंच कर उसे संस्कृत से जोड़ कर नया शब्द बनाना किस हद तक सार्थक है- यह सोचने की बात है।

भाषाविदों के लिए यह रोचक अभ्यास हो सकता है, पर विज्ञान सिर्फ भाषा का खेल नहीं है। आज अगर तत्सम शब्द लोग नहीं पचा पाते तो उनको थोपते रहने से स्थिति बदल नहीं जाएगी। किसी भी शब्द को स्वीकार या खारिज करने का सरल तरीका यह है कि वह हमें कितना स्वाभाविक लगता है, इस पर कुछ हद तक व्यापक सहमति होनी चाहिए। अगर सहमति नहीं बनती तो ऐसा शब्द हटा देना चाहिए, भले ही भाषाविद और पेशेवर वैज्ञानिक उसकी पैरवी करते रहेंं।

यह संभव है कि जैसे-जैसे वैज्ञानिक चेतना समाज में फैलती जाए, भविष्य में कभी सटीक शब्दों की खोज करते हुए आज हटाए गए किसी शब्द को वापस लाया जाए। पर फिलहाल भाषा को बचाए रखने की जरूरत है। और समय के साथ यह लड़ाई और विकट होती जा रही है। गौरतलब है कि कई तत्सम लगते शब्द सही अर्थ में तत्सम नहीं हैं, क्योंकि वे हाल में बनाए गए शब्द हैं। कृत्रिम शब्दों का जबरन इस्तेमाल संस्कृत भाषा के प्रति भी अरुचि पैदा कर रहा है। यह बात संस्कृत के विद्वानों को समझ में आनी चाहिए। लोक से हट कर संस्कृत का भविष्य सरकारी अनुदानों पर ही निर्भर रहा तो यह पूरे उपमहाद्वीप के लिए बदकिस्मती होगी।

पर वैज्ञानिक शब्दावली का सरलीकरण आसानी से नहीं होगा। कट्टर पंडितों और उनकी संस्कृत का वर्चस्व ऐसा हावी है, कि सामान्य समझ लाने के लिए भी जनांदोलन खड़ा करना होगा। जब तक ऐसा जनांदोलन खड़ा नहीं होता, हिंदीभाषियों के खिलाफ यह षड़्यंत्र चलता रहेगा। यह भाषा की समृद्धि नहीं, भाषा के विनाश का तरीका है। संभवत: इस दिशा में जनपक्षधर साहित्यकारों को ही पहल करनी पड़ेगी। आखिरी बात यह कि मुद्दा महज तत्सम शब्दों को हटाने का नहीं, बल्कि सरल शब्दों को लाने का है। विज्ञान-चर्चा जब सामान्य विमर्श का हिस्सा बन जाएगी, तो जटिल सटीक शब्दों को वापस लाया जा सकेगा।

लेखक: लाल्टू

जनसत्ता से साभार



सोमवार, 22 सितंबर 2014

सीसैट विवाद के अनदेखे पहलू

सिविल सेवा परीक्षा में 2011 से लागू हुए सीसैट के विरोध में जो आंदोलन इस साल उठ खड़ा हुआ है उसमें भारतीय लोकतंत्र में समाज के सभी तबकों की भागीदारी के सवाल से जुड़ा आंदोलन बनने की संभावना मौजूद है। इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस संभावना को यथार्थ में बदलने की लिए जो इच्छाशक्‍ति चाहिए वह अभी हमारे समाज और राजनीति में मौजूद नहीं है। हालाँकि इस मुद्दे पर समाज के प्रगतिशील तबके को संगठित करने के प्रयास को जारी रखने का अपना अलग महत्व है। हाल के दशकों में भाषा के मसले को जिस मज़बूती से इस आंदोलन में सामने रखा गया है उसकी दूसरी मिसाल शायद ही कहीं मिलेगी।

हमारे लोकतंत्र के लिए यह शर्म की बात है कि अपनी भाषाओं को सिविल सेवा परीक्षा में जगह दिलाने की कोशिश कर रहे परीक्षार्थियों को पुलिस की मार झेलनी पड़ती है। दिल्ली के मुखर्जी नगर में भारतीय सीमा की सुरक्षा करने वाले जवानों को तैनात करने के फ़ैसले की पृष्ठभूमि को समझे बिना इस आंदोलन को ठीक से समझना नामुमकिन है। मुखर्जी नगर में लड़कियों पर भी लाठियाँ बरसाई गईं। आंदोलन के इतने हिंसात्मक दमन के कारणों पर बात होनी चाहिए। एक ओर तो भाजपा के सांसद मनोज तिवारी आंदोलनकारियों को हर तरह के सहयोग का आश्‍वासन दे रहे थे, वहीं दूसरी ओर मुखर्जी नगर में पुलिस ने ऐसा माहौल बना रखा था कि आंदोलनकारी अपने कमरे से बाहर निकलने से भी डर रहे थे। आख़िर ऐसी क्या वज़ह थी कि श्याम रुद्र पाठक जैसे आंदोलनकारी के नेतृत्व में शांतिपूर्वक प्रदर्शन कर रहे परीक्षार्थियों की आवाज़ को दबाने के लिए सरकार ने साम, दाम, दंड, भेद के तमाम तरीके अपना लिए? इस पर बात करने से पहले इस आंदोलन के प्रति लेकर सरकार और राजनीतिक दलों के रवैये पर नज़र डालते हैं।

पहले सरकार ने इस आंदोलन की अनदेखी करने की रणनीति अपनाई थी। जब मुखर्जी नगर और आस-पास के इलाकों से सैकड़ों आंदोलनकारी कड़ी धूप में चलकर रेसकोर्स गए तो प्रधानमंत्री ने अपने किसी प्रतिनिधि को उनसे बात करने के लिए नहीं भेजा। बाद में जब कई राजनीतिक दलों के नेताओं ने आंदोनकारियों की माँगों का समर्थन किया तो सरकार ने रक्षात्मक मुद्रा अपना ली। इन नेताओं में आम आदमी पार्टी के योगेंद्र यादव, आनंद कुमार, जनता दल (संयुक्‍त) के शरद यादव, राष्ट्रीय जनता दल के पप्पू यादव आदि शामिल हैं। जब जयपुर, इलाहाबाद, चेन्नई, लखनऊ, पटना आदि शहरों से भी धरना-प्रदर्शन की ख़बरें आने लगीं तो सरकार के पास यह विकल्प भी नहीं बचा कि वह इस आंदोलन को दिल्ली के कुछ कोचिंग संस्थानों द्वारा प्रायोजित होने की बात कहकर इसकी अनदेखी कर सके। श्याम रुद्र पाठक ने इस आंदोलन के प्रायोजित होने की बात का खंडन करते हुए कहा कि पुलिस की लाठी खाते हुए आंदोलन करने वाले युवाओं पर इस तरह का आरोप लगाना अपने ही देश की युवाशक्‍ति का अपमान करने के समान है। उन्होंने अपने नेतृत्व में चले आंदोलन में कोचिंग संस्थानों से आर्थिक मदद मिलने की बात से इनकार किया।

आंदोलनकारियों की बड़ी सफलता यह रही कि अगस्त के पहले सप्ताह में संसदीय कार्य मंत्री वेंकैया नायडू को लोक सभा में यह कहना पड़ा कि सरकार सिविल सेवा परीक्षा को आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं में आयोजित करने पर विचार करेगी। लेकिन सरकार के इस आश्‍वासन पर भरोसा करना मुश्किल है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि इसी सरकार ने आंदोलनकारियों की तमाम माँगों को दरकिनार करते हुए ऐसा कदम उठाया जिसका सिविल सेवा परीक्षार्थियों के लिए कोई महत्व नहीं है। सरकार ने सीसैट में अंग्रेज़ी के उन आठ सवालों को छोड़ देने का निर्देश जारी किया जिन्हें हटाने की माँग आंदोलनकारियों ने की ही नहीं थी। कोढ़ में खाज यह कि अनुवाद का स्तर इस साल भी इतना ख़राब था कि प्रतियोगियों का कीमती वक्‍त सवालों को समझने में ही बर्बाद हो गया। इसका फ़ायदा अंग्रेज़ी माध्यम के प्रतियोगियों को ही मिलेगा।

अब सवाल यह उठता है कि आंदोलनकारियों का मनोबल गिराने के लिए सरकार ने ऐसा कदम क्यों उठाया जिससे आंदोलनकारियों में यह संदेश गया कि सरकार उनकी माँगों का मज़ाक उड़ा रही है। इसका जवाब यह है कि सरकार जिस शोषक वर्ग के हित साधने का साधन बनकर रह गई है वह अंग्रेज़ी के बहाने दशकों से देश के संसाधनों पर अपने एकाधिकार पर किसी तरह की दावेदारी को बर्दाश्त नहीं कर सकता है। यहीं आकर हमें इस आंदोलन के हिंसक दमन का कारण समझ में आता है। शोषक वर्ग को अपने एकाधिकार पर उठने वाली उँगली को मरोड़ने की आदत पड़ चुकी है और उसे इस बात से अब कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि वह जिन लोगों का दमन कर रहा है वह मीडिया की सीधी पहुँच से दूर रहने वाले आदिवासी हैं या दिल्ली में रहकर सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने वाले ऐसे लोग जिन तक मीडिया की आसान पहुँच है। ऐसे समय में प्रगतिशील बुद्धिजीवियों का संगठित होना ज़रूरी है। उन्हें केवल इस आधार पर आंदोलन से दूर रहने का नैतिक कारण नहीं मिल जाता कि अधिकतर आंदोलनकारियों में इस मुद्दे को लोकतंत्र के बड़े मूल्यों से जोड़ने की दृष्टि नहीं है। उन्हें इस आंदोलन को सही नज़रिये से देखने की सलाह देने की ज़िम्मेदारी किस वर्ग की है? क्या यह काम सरकार की तमाम ग़लत नीतियों का समर्थन करने वाला मीडिया करेगा?

सीसैट में अनुवाद की ग़लतियों को सुधारने के लिए सरकार के पास लगभग डेढ़ महीने का समय था। जिन गड़बड़ियों की चर्चा टेलीविज़न चैनलों के स्टूडियो से लेकर संसद में हो रही हो, उन्हें इस साल की परीक्षा में भी नहीं सुधारना असल में एक ऐसी लापरवाही है जिसके लिए संघ लोक सेवा आयोग के अधिकारियों को भी जनता की अदालत के कठघरे में खड़ा करना चाहिए। मीडिया में अनुवाद की ग़लतियों पर तो अच्छी-ख़ासी चर्चा हुई लेकिन भाषा से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहुत कम लोगों का ध्यान गया। सिविल सेवा परीक्षा में अंग्रेज़ी प्रश्‍नों के हिंदी अनुवाद में a, b, c, d आदि को हिंदी में न लिखकर अंग्रेज़ी में भी जस का तस छोड़ दिया जाता है। यह एक तरह से हिंदी वर्णमाला के अस्तित्‍व से इनकार करने के समान है। सालों से ऐसा इस तथ्य के बावजूद किया जा रहा है कि केंद्रीय हिंदी निदेशालय ने 1980 में ही a, b, c, d आदि को हिंदी में क, ख, ग, घ आदि लिखने का नियम बना लिया था। ऐसा इसलिए किया गया था कि हिंदी अनुवाद में कुछ लोग क, ख, ग, घ लिखते हैं तो कुछ अ, आ, इ, ई या अ, ब, स, द। इस नियम की अनदेखी करके हिंदी अनुवाद में भी अंग्रेज़ी वर्णों का प्रयोग भारतीय शासन तंत्र में हिंदी के सूक्ष्म अपमान का उदाहरण है।

सीसैट में ग़ैर-मानविकी विषयों के विद्यार्थियों को अनुचित फ़ायदा मिलने की बात को भी सरकार ने हवा में उड़ाने की कोशिश की। सच तो यही है कि गणित, तर्कशक्‍ति आदि के सवालों का बेहतर ढंग से जवाब देने के लिए सालों महँगे कोचिंग संस्थानों में तैयारी करने वाले परीक्षार्थियों की तुलना में मानविकी के विद्यार्थियों को बहुत अधिक मेहनत करनी पड़ती है। वहीं दूसरी ओर, ग़ैर-मानविकी विषयों के विद्यार्थी सामान्य अध्ययन के पेपर में बहुत कम अंक लाकर भी सीसैट के दूसरे पेपर की मदद से आसानी से मुख्य परीक्षा तक पहुँच जाते हैं। मानविकी से तमाम सरकारों को समस्या होती है। इसके विद्यार्थी सरकार से मुश्किल सवाल करने लगते हैं। जनतांत्रिक मूल्यों के प्रचार-प्रसार में मानविकी से मिलने वाली समझ और विश्‍लेषण क्षमता की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। लेकिन 2011 के बाद सिविल सेवा परीक्षा में जिस तरह परीक्षार्थियों के सामाजिक ज्ञान की तुलना में प्रबंधकीय योग्यता को बहुत अधिक महत्व दिया जा रहा है उसे देखते हुए ज्ञान की इस शाखा के हाशिये पर जाने की आशंका भी बढ़ रही है। उच्च शिक्षा में मानविकी की लगातार अनदेखी होती आई है। भारत में सिविल सेवा परीक्षा के बहाने मानविकी को महत्व मिलता रहा है। लेकिन अब सीसैट के कारण इसका महत्व और भी कम हो जाएगा। सरकार को अपनी जनविरोधी नीतियाँ लागू करने के लिए कुशल प्रबंधक चाहिए न कि उसकी मंशा पर सवाल करने वाले लोग। यही वजह है कि बड़ी कंपनियों के दबाव में बनने वाली शिक्षा नीतियों में मानविकी को हाशिये पर डालने की कोशिश की जा रही है।

नौकरशाहों का एक वर्ग सीसैट का पक्ष लेते हुए यह तर्क देता है कि इससे उन परीक्षार्थियों को सिविल सेवा से दूर रखने में मदद मिलती है जो अपनी सत्तावादी और सांप्रदायिक सोच के कारण लोकतंत्र के लिए ख़तरा बन सकते हैं। अगर हम यह मान लें कि तर्कशक्‍ति के मूल्यांकन का इस संदर्भ में महत्व हो सकता है तो भी इन सवालों का आवश्यकता से अधिक संख्या में होने और परीक्षा के अंग्रेज़ी और अबूझ सरकारी हिंदी में होने का सवाल अपनी जगह बना रहेगा। क्या विवेक की भी कोई भाषा होती है? भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में समाज के सभी तबकों को शासन व्यवस्था में शामिल करने के लिए चुने गए प्रतियोगियों को प्रशिक्षण की अवधि के दौरान अंग्रेज़ी में दक्ष बनाया जा सकता है। आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भारतीय भाषाओं में परीक्षा आयोजित करना भी असंभव नहीं है। क्या मानविकी के विद्यार्थियों पर गणित और तर्कशक्‍ति के बहुत-से सवालों का अनावश्यक बोझ डालकर उन्हें परीक्षा की दौड़ में पीछे रहने पर मजबूर करना सही है? क्या स्थानीय समस्याओं को ठीक से समझने के लिए इतिहास, भूगोल, संस्कृति आदि की औसत से बेहतर जानकारी से ज़्यादा महत्वपूर्ण वह गणितीय या तर्कशक्‍ति योग्यता है जिसका मूल्यांकन करने का दावा सीसैट के पक्षधर कर रहे हैं? जिस देश में असमान शिक्षा व्यवस्था हो, वहाँ उच्च वर्ग को प्रबंधन या इंजीनियरिंग की महँगी शिक्षा से मिलने वाली सुविधा को ध्यान में रखकर बनाई गई अलोकतांत्रिक परीक्षा पद्धति पर सवाल उठाना हर ज़िम्मेदार नागरिक का कर्तव्य है। इस सुविधा का अंदाज़ा आप इस तथ्य से लगा सकते हैं कि जहाँ 2010 में मुख्य परीक्षा तक पहुँचने वाले 47.5% प्रतियोगी मानविकी के विद्यार्थी थे वहीं सीसैट लागू होने के बाद 2011 में इनका प्रतिशत घटकर 31.2% रह गया।

इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता है कि भारत में अंग्रेज़ी केवल आर्थिक उन्नति से जुड़ी भाषा नहीं बल्कि औपनिवेशिकता से भी जुड़ी भाषा भी रही है। इसे सीखने पर किसी को आपत्ति नहीं है, लेकिन इसके आधार पर समाज के कमज़ोर तबकों को शासन व्यवस्था से दूर रखने की साज़िश का विरोध करना हमारा कर्तव्य है। सीसैट के विरोध के दौरान अनुवाद की जिन ग़लतियों पर मीडिया में चर्चा हुई वे शासक वर्ग के भाषाई षड्यंत्र के उदाहरण हैं। हिंदी को अनुवाद की भाषा बनाकर उसे न केवल आम लोगों बल्कि हिंदी भाषा के विद्यार्थियों के लिए भी अनुपयोगी बना दिया गया है। यह हिंदी हाशिये पर रहने वाले तबकों को आगे बढ़ने का अवसर देने में नाकाम रहती है। इसे ऐसा बनाकर शासक वर्ग हिंदी को कामकाजी तबके के लिए अनुपयोगी साबित कर देता है। हमें सभी भारतीय भाषाओं को ज्ञान की भाषा बनाने का संकल्प लेना चाहिए। ऐसा करना असंभव नहीं है। भारतीय भाषाओं को साहित्य तक सीमित रखने का नुकसान भारतीय लोकतंत्र को उठाना पड़ा है। अंग्रेज़ी को भाषा न मानकर ज्ञान मान लिया गया है। इससे अंग्रेज़ी में कही गई अधकचरी बात भी भारतीय भाषा में व्यक्‍त की गई सार्थक बात से कमतर साबित हो जाती है।

हमें यह समझना होगा कि भारत में अभी राजनीति जिस दिशा में आगे बढ़ रही है उसमें सरकारी तंत्र बार-बार शासन से ज़्यादा प्रबंधन को महत्व देने की बात कह रहा है। ज्ञान की सभी शाखाओं को प्रबंधन की योग्यता से कमतर आँकने की मानसिकता का विरोध करने के लिए अकादमिक जगत को भी आगे आना चाहिए। तमाम असुविधाओं का सामना करके सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहे आंदोलनकारियों को शिक्षकों, लेखकों, आलोचकों आदि का सहयोग मिलना ही चाहिए। यह देखकर अफ़सोस होता है कि प्रगतिशीलता के अनेक नामवरों ने इस मसले पर चुप्पी साधी रखी। लोकतांत्रिक मूल्यों की लड़ाई केवल कहानी, कविता आदि में नहीं लड़ी जा सकती है। इसके लिए सड़क पर पुलिस की लाठियों का सामना कर रहे लोगों के समर्थन में आगे आना पड़ता है। सीसैट में भाषाओं का मसला उन भाषाओं को बोलने वाले तबकों के लोकतंत्र में प्रतिनिधित्व का मसला है।

मेरा यह आलेख सामयिक वार्ता पत्रिका के सितंबर अंक में छपा है। 

बुधवार, 10 सितंबर 2014

अनुवाद में दम तोड़ती भारतीय भाषाएँ

सिविल सेवा परीक्षा में 2011 से लागू हुए सीसैट के विरोध में इस साल जो आंदोलन उठ खड़ा हुआ है उसके कारण लंबे समय के बाद हमारे लोकतंत्र में भारतीय भाषाओं की अनदेखी पर बहस का माहौल बना है। हालाँकि जिस देश में पिछले 50 साल में 250 भाषाएँ लुप्त हो गई हैं वहाँ आज़ादी मिलने के दशकों बाद इस मुद्दे पर लोगों का ध्यान जाना कम आश्‍चर्यजनक नहीं है। भाषाओं की अनदेखी का अर्थ है उस भाषा को बोलने वाले लोगों की अनदेखी और यही वजह है कि लोकतंत्र में विविधता को बचाए रखने का एक बहुत बड़ा साधन उन भाषाओं को समृद्ध करना है जो पूँजी की तानाशाही के इस दौर में हाशिये पर जा रही हैं। लोकतंत्र की विफलता का इससे बड़ा प्रमाण नहीं मिल सकता कि हमारे देश में अपने विषय के जानकारों को भी ज़िंदगी की दौड़ में उन लोगों से पीछे रहना पड़ता है जो अपनी वर्गीय स्थिति के कारण अंग्रेज़ी अच्छी तरह जानते हैं। इसके कुछ अपवाद ज़रूर हैं, लेकिन इन अपवादों से अंग्रेज़ी के वर्चस्व की पुष्टि ही होती है।

भारत में अंग्रेज़ी का अपना एक वर्गीय आधार है। अंग्रेज़ी मीडिया ने सुनियोजित तरीके से इस आंदोलन को ऐसे रट्टुओं का आंदोलन बताया जो अंग्रेज़ी का विरोध करने के बहाने कम मेहनत करके देश की प्रतिष्ठित परीक्षा में अव्वल आने का सपना देखते हैं। आंदोलनकारियों के ज्ञापन को पढ़े बिना इसे केवल हिंदी पट्टी के परीक्षार्थियों का ऐसा आंदोलन बताया गया जो केवल दिल्ली तक सीमित है। सच तो यह है कि जयपुर, पटना, इलाहाबाद, चेन्नई, हैदराबाद आदि शहरों में सीसैट के विरोध में रैलियाँ निकाली गईं। दिल्ली में आंदोलनकारियों ने अपने ज्ञापन में तमाम भारतीय भाषाओं के परीक्षार्थियों की घटती सफलता दर के आँकड़े पेश किए। अंग्रेज़ी मीडिया ने इस मामले को अनुवाद की समस्या तक सीमित करने की भी कोशिश की, जबकि असली समस्या यह है कि भारतीय भाषाओं को शिक्षा व्यवस्था में अनुवाद की भाषा का दर्जा दे दिया गया है।

उच्च शिक्षा में किसी भाषा को अनुवाद पर निर्भर बना देने से उसका विकास रुक जाता है। अनुवाद को ज्ञान प्राप्त करने के कई साधनों में से एक साधन मानने के बदले उसे एकमात्र साधन मानने की मानसिकता ने तमाम भारतीय भाषाओं का नुकसान किया है। हिंदी में यह नुकसान पत्रकारिता, विज्ञापन आदि की बनावटी भाषा में भी दिखता है। इतिहास, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान आदि की हिंदी किताबों में अनुवाद को खाने में चटनी की तरह इस्तेमाल करने के बजाय भोजन ही बना दिया जाता है। इसे हिंदी माध्यम के परीक्षार्थियों के बौद्धिक हाज़मे के बिगड़ने की एक वजह माना जा सकता है। हिंदी के आलेखों में अंग्रेज़ी के शब्दों को रोमन लिपि में लिखने की प्रवृत्ति अंग्रेज़ी के सामने हिंदी के घुटने टेकने का उदाहरण है। भाषाई विविधता को ख़त्म करके अंग्रेज़ी के वर्चस्व वाली ऐसी दुनिया बनाने की कोशिश की जा रही है जिसमें पूँजी के तर्कों को काटने लायक न तो कोई विचारधारा बचे न भाषा।

हमारे देश में अंग्रेज़ी का एक ऐसा तंत्र विकसित किया गया है जिसके कारण सरकारी विभागों और भारतीय शिक्षा व्यवस्था में हिंदी अनुवाद की भाषा बनकर रह गई है। इसकी शुरुआत उसी समय हो गई थी जब संविधान के केवल अंग्रेज़ी संस्करण को मानक घोषित किया गया। इस ग़लती को सुधारने के बजाय हिंदी के ऐसे रूप को जनता पर लादने का काम जारी रखा गया जिसमें न तो भाषा की रचनात्मकता है न विचार का सौंदर्य। क्या करोड़ों लोगों की भाषा होने के बावजूद हिंदी को ज्ञान की भाषा मानने से इनकार करने के पीछे कोई बड़ा षड्यंत्र नहीं है? इस षड्यंत्र को समझने के लिए सीसैट का विरोध कर रहे आंदोलनकारियों की उस माँग को मानने से इनकार करने की वजह पर बात करनी होगी जिसमें सवालों का अनुवाद किए जाने के बजाय उसे हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में तैयार करने की बात कही गई है। जिस देश में सरकार द्वारा आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर करोड़ों रुपये खर्च किए जा सकते हैं, वहाँ इतनी छोटी माँग को मानने से इनकार करते हुए संसाधनों की कमी की बात कहना हास्यास्पद ही है। संघ लोक सेवा आयोग में वर्षों तक स्तरहीन अनुवाद को सुधारने की कोई कोशिश नहीं की गई। यह एक ऐसी लापरवाही है जिसके कारण न जाने कितने परीक्षार्थियों को सिविल सेवा परीक्षा में असफलता का सामना करना पड़ा। अगर किसी सवाल में 'लैंड रिफ़ॉर्म्स' के अनुवाद में 'लैंड' का अनुवाद ही न किया जाए तो इससे हिंदी के परीक्षार्थी की असफलता लगभग तय हो जाती है। सीसैट का विरोध कर रहे आंदोलनकारियों ने अपने ज्ञापन में ऐसे कई उदाहरण पेश किए हैं। अगर हमारे देश में सरकारी जवाबदेही नाम की कोई चीज़ होती तो योग्यता का ढोल पीटने वाले अधिकारियों को इस लापरवाही के कारण अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ता।

सरकारी तंत्र में जिस हिंदी का प्रयोग होता है उसे देवनागरी लिपि में लिखे ऐसे शब्दों का समूह कहना ग़लत नहीं होगा जिनका अर्थ न लिखने वाले व्यक्‍ति को पता होता है न पढ़ने वाले को। बाज़ार की हिंदी केवल सामान बेचने की भाषा के रूप में अपना अस्तित्व बचा पाई है। यह हिंदी अपनी जड़ों से कटी होने के कारण बेजान-सी दिखती है। मंत्रालयों में भी हिंदी की दुर्गति हो रही है। इसका एक उदाहरण देखिए:

"रक्षा के लिए और सामान्य में श्रमिकों के हितों और जो गरीब का गठन, समाज के वंचितों और नुकसान वर्गों की रक्षा. विशेष रूप से, उच्च उत्पादन और उत्पादकता और के लिए एक स्वस्थ माहौल बनाने का काम करने के कारण संबंध में मंत्रालय की मुख्य जिम्मेदारी है विकास और व्यावसायिक कौशल प्रशिक्षण और रोजगार सेवाओं के समन्वय." (श्रम एवं रोजगार मंत्रालय की वेबसाइट से)

मंत्रालयों की वेबसाइटों पर ऐसी हिंदी के प्रयोग पर मीडिया में भी कोई बहस नहीं होती। हिंदी की रोटी खाने वाले लोगों को भी अपनी भाषा के ऐसे अपमान पर ग़ुस्सा नहीं आता। इसकी वजह यह है कि भारतीय मध्यम वर्ग ने अपनी भाषाओं की चिंता करना छोड़ दिया है। आज़ादी के बाद भी देश की राजनीति में भारतीय भाषाओं को ज्ञान की भाषा का दर्जा दिलाने की कोशिशों को कभी सफलता नहीं मिली। जहाँ तक राजभाषा हिंदी की बात है तो उसे राजभाषा बनने के बावजूद बोली से भी कमतर दर्जा हासिल है। आप बोलियों को समझ सकते हैं, लेकिन राजभाषा हिंदी को समझना कभी-कभार नामुमकिन हो जाता है।

ऐसा नहीं है कि मंत्रालयों की वेबसाइटों में ही अबूझ हिंदी का प्रयोग होता है। सरकारी प्रकाशन में भी हिंदी के साथ वही व्यवहार किया जाता है जैसा ट्रेन की प्रथम श्रेणी बोगी में ग़लती से घुस आए ग़रीबों के साथ होता है। भारत सरकार के प्रकाशन विभाग की किताब 'भारत 2013' की भाषा देखिए:

"विकसित देशों द्वारा कमजोर न्यूनीकरण प्रतिबद्धताओं को सुददृढ़ बनाने, जलवायु परिवर्तन के नाम से एक पक्षीय व्यापार कार्यों को रोकन, जलवायु स्थिरीकरण के दीर्घावधि लक्ष्य के प्रति बढ़ने के उठाने में बराबरी अधिकार सुनिश्‍चित करने, बहुपक्षीय चैनलों के माध्यम से जलवायु परिवर्तन संबंधी वित्त पोषित करने के लिए पर्याप्त संसाधनों का प्रावधान और उन्हें जुटाने और प्रौद्योगिकी विकास और हस्तान्तरण प्रयासों के भाग के रूप में बौद्धिक सम्पदा अधिकारों पर वार्ता को निरंतर बनाए रखने के संबंध में अभी व्यापक कार्य किया जाना शेष है।"

क्या ऐसी हिंदी से प्रतियोगियों को परीक्षा की तैयारी करने में मदद मिल सकती है? क्या यह भारत सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं है कि वह सरकारी प्रकाशन में ऐसे स्तरहीन अनुवाद की जाँच के लिए विभागीय कार्रवाई का आदेश दे? सरकार इनमें से किसी सवाल का जवाब नहीं देना चाहती है, लेकिन क्या एक प्रबुद्ध नागरिक के रूप में आपकी इस मामले में कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती है? मेरा यह सवाल ऐसे हर नागरिक से है जिसकी रोज़ी-रोटी हिंदी से ही चलती है।

सीसैट के विरोध में जो आंदोलन उठ खड़ा हुआ है उसे तमाम भारतीय भाषाओं में अच्छी किताबों को उपलब्ध कराने, सरकारी नौकरी की परीक्षाओं में भारतीय भाषाओं की जगह बनाने और उच्च शिक्षा में भारतीय भाषाओं को शामिल करने के मुद्दों तक ले जाना होगा। अगर ऐसा नहीं होगा तो उन लोगों की बात सही साबित हो जाएगी जो इस आंदोलन को तलवार से काँटा निकालने की कोशिश बता रहे हैं। सीसैट विरोधी आंदोलन ने सिविल सेवा परीक्षा में भारतीय भाषाओं को शामिल करने के सवाल को ज़िंदा रखा है, लेकिन इस आंदोलन को समाज की दिशा बदलने की प्रक्रिया शुरू करने वाला आंदोलन तभी कहा जा सकेगा जब यह भाषा से जुड़े अन्य मुद्दों पर बहुत-से लोगों को सक्रिय करने में सफल साबित होगा। ऐसा तभी होगा जब हम भाषा के मुद्दे को नौकरी या आर्थिक लाभ के सीमित संदर्भ में न देखकर लोकतंत्र के मूल्यों से जोड़कर देखना शुरू करेंगे।

यह आलेख 'सबलोग' पत्रिका के सितंबर, 2014 अंक में प्रकाशित हुआ है।

सोमवार, 18 अगस्त 2014

Living with many tongues (फ़्रंटलाइन से साभार)

The presence of multiple languages in India has several implications for the idea of Indian and comparative literature, the formation of cultural institutions and for our democracy itself.


WALTER BENJAMIN had conceived the act of translation as one way in which human beings strive to retrieve their long-lost common tongue. The idea of an age when all human beings spoke in a single language seems common to many mythologies across the world though the stories about the loss of that tongue and the origin of linguistic diversity differ from tribe to tribe.
The most well-known of them is perhaps the biblical tale of the Tower of Babel, the ambitious city rising to the sky that the people from the east start building in Shinar, of which the gods become jealous and confound the language of the builders so that communication among them breaks down and they are driven to different parts of the world. In several cultures, the multiplicity of languages is associated with the deluge as in the Aztec legend where Coxcox and Xochiquetzal survive the deluge and beget many children who are bereft of speech: a dove endows them with language, but each is given a different speech so that they cannot talk to each other. The Kaska people of North America, too, believe that it was the deluge that scattered the people of the world, creating many cultures and languages. In a Salishan myth, two men enter into an argument on whether the high-pitched humming noise that accompanies the flight of ducks comes from their flapping of wings or from air passing through their beaks. The tribal chief could not settle the argument, so he summoned a council that had also representatives from neighbouring villages. The dispute divided the people into groups who moved away from one another and began speaking in different tongues.
In the Yuki story from California, it is the creator himself who lays sticks in houses to nominate people to diverse communities and prescribes different languages and customs for them. There is also a similar Iroqois story where the Holder of Heavens, Taryenyawagon, guides people on a journey and helps them settle down in different places where they develop different languages. The Ticunas believe people spoke a single language until they ate the eggs of a hummingbird. The Greeks, too, think under Zeus all spoke the same tongue, and it was Hermes who brought diversity of speech, leading to Zeus’ resignation and paving the way for Phoroneus, the first human king of the country. For the Bantus of East Africa, it was a famine that drove people mad, and they began to jabber strange words, leading to various languages. Only Eshu and the Yoruba can speak all languages. According to a South Australian myth, Wurruri walked with a stick scattering the fire in every hearth around which people were asleep. When Wurruri died, people were so happy that they sent the message in different directions inviting everyone to partake of her flesh. They ate different parts of the body and began speaking different languages. The Guniwinggu people of Australia believe that a goddess in dream-time gave each of her children a different language to play with. God Puluga of the Andamans first created a single language, bojig-yab, and gave it to the first human couple. But they had numerous offspring who were given different dialects and sent to distant lands.
We do not know whether we got so many languages from Scylla howling in many tongues or from the seven-tongued Agni, but we have comfortably lived with them and found this diversity extremely productive in cultural terms. True, we never cared to name this coexistence of many languages, and our languages did not originally have an equivalent of terms like “multilingualism” or “heteroglossia”: only recently, we have coined equivalents like “bahubhasheey”. Since we did not have the concept, we also did not have an antonym like “monolingual”, the idea of a monolingual (also mono-religious and monocultural) society having come from the West. For the colonialists, we were the “other” and they needed othering concepts to define us as a people like calling the people they found in India “Hindoos” and India, “Hindoostan”. It was this “Hindoostan” that was “multilingual”. Later, the concept was lent currency by linguists, ethnographers, demographers, and Orientalist scholars. For the people of India, the existence of many languages was but an extension of nature’s diversity and they easily moved from one language to another when they moved from place to place or received people from another place, thus adding Persian, Arabic and English, too, to their repertoire in the course of time, not to speak of the liberal borrowings and adaptations of words from French, Dutch, Portuguese, etc., to enrich their own languages. Travel and the study of many languages were even deemed essential for poets. Look at this passage from Kavikantabharanam by Kshemendra, the 12th century Sanskrit literary theorist for proof: “A poet should learn with his eyes the forms of leaves; he should know how to make people laugh when they are together; he should get to see what they are really like; he should know about oceans and mountains in themselves and the sun and the moon and the stars; his mind should enter into the seasons; he should go among many people in many places and learn their languages” (Verses 10-11, translated by A.K. Ramanujan).
Multilingual self-fashioning may be said to have been fundamental to South Asia’s cultural ecology, so much so that with the current understanding of language and dialect we find it hard to place poets like Amir Khusrau, Vidyapati, Namdeo, Kabir, Nanak, Meera, Chaitanya and Mirza Ghalib in any one of the modern languages. Even the writers who are supposed to have written in “Sanskrit” employed, besides Sanskrit, Prakrit, Magadhi, Paisachi, Shaurseni and Apabhramsha; and even the Tamil bhaktas, the Alwars and the Nayanmars, did not compose in what can be considered a homogenous Tamil.
Ramachandra Guha rightly argues that bilingualism really flowered during the 1920s when under Gandhi’s leadership the nationalist movement captured the imagination of the entire Indian people. Leaders and thinkers like Gandhi, Ambedkar and Tagore were effectively and effortlessly bilingual as were many writers and intellectuals of the period. Even in our time, we find a lot of writers writing in a language other than their mother tongue: they include some well-known names like U.R. Ananthamurthy, whose mother-tongue is Tulu; Girish Karnad, whose mother tongue is Konkani; and N.S. Bendre, whose mother tongue is Marathi, all the three writing in Kannada. This is true of all Indian English writers and several Urdu writers whose mother tongue could be anything from Hindi and Gujarati to Punjabi and Telugu. There are, too, writers who write in more than one language, one of which may be the mother tongue and the other English in many cases (Kiran Nagarkar, Jayanta Mahapatra, Arun Kolatkar, Dilip Chitre, A.K. Ramanujan and Kamala Das).The transactions between the local and the pan-Indian enhanced the creative potential of both the regional and the national—margi and deshi—giving rise to a literary culture that was marked by what today would be termed dialogism and heteroglossia.
Sheldon Pollock has suggested how multilinguality was seen by Europe as rising from an original sin and an evil that needs to be eradicated. The European conquerors sought to suppress the languages of the people they ruled over, leading to the complete or partial destruction of native tongues in many parts of the world. But, “In South Asia, although forms of will-to-power in the realm of language, and even narratives of language decay, are certainly to be found, no one ever mythologised the need to purify—let alone actually sought to purify—original sins of diversity through a programme of eradication. Diversity was not a sign of divine wrath, nor was multilinguality a crime that demanded punishment” (Sheldon Pollock, The Language of the Gods in the World of Men: Sanskrit, Culture and Power in Pre-modern India, 2006, page 477). As a result, even when ruled by those who spoke Persian or English, we continued to preserve our languages, and the rulers too, despite spreading their languages through education, did not care to incapacitate, banish or ruin Indian languages. Part of the credit for this, of course, goes to the Indian people who were committed to their mother tongues even while learning other languages. Strangely, though often for understandable reasons, it is after the British left that English is getting more and more popular as the medium of education and threatening Indian languages, forcing Ananthamurthy to remark that now our languages will be preserved by the poor and the villagers who have no means of educating their young in the English medium.
Homogenising tendency
Colonial modernity with its homogenising tendency has penetrated into our private and public worlds, seeking to level the inherent plurality of our cultural and linguistic worlds; more recently, globalisation has furthered this cause. But the modern revolution in information technology can help strengthen/revive Indian languages, provided we have the will. In Europe, there has also been the explicit linkage between “power and language as ethnically defined”, while in India there has hardly been any attempt to enforce purity of language using civil or political institutional structures. We have nothing like the French Akademi that continually checks the influx of words from other languages into French, and when we had movements like the one there was in Kerala for a “pure” Malayalam (pacha-Malayalam), they have been marginal and rejected in no time by the larger community of readers and writers. Linguistic hybridity, as much as racial hybridity, has been second nature to us and we keep switching as well as mixing languages easily and naturally. We also never had any clear distinction between a “language” and a “dialect”’ which, along with the ambiguity in the definition of “mother tongue”, frequent disappearances of languages or their merger with larger ones, existence of scriptless languages and attempts by some “big” languages to “devour” or invisibilise “smaller” languages, naming them their “dialects” (this applies most to Hindi, but on a lesser scale to many others), has made all our linguistic surveys tentative. So we have vastly varied accounts of about 1,652 languages belonging to eight linguistic groups (1961 Census), 1,576 mother tongues (1991 Census) or 325 languages used for in-group communication (Anthropological Survey of India), just to take some random examples.
The formation of linguistic States has set in motion the process of consolidating regional identity anchored in the majority language of the region bound within a geographical territory and encouraged the elite to equate linguistic identity with the ethnic identity that generates a discourse of power, alienating and excluding large sections of people. The recently concluded People’s Linguistic Survey of India headed by Ganesh Devy, which finds 780 languages used in India with 66 scripts, has exposed the fallacy behind the formation of linguistic States by pointing out how in each of these States several languages coexist. For example, Arunachal Pradesh has 90 languages, Assam, 55; Gujarat, 48; Maharashtra, 39; and West Bengal, 38. We seldom speak of Betta Kurumba or Eravalla or Irula when we discuss the language scenario in Tamil Nadu or Adiya or Mannan or Kanikkaran when we discuss that in Kerala. Hegemonies are at work not merely at the level of the nation but at that of the regions too where several languages are subsumed by the language spoken by the majority.
The presence of multiple languages in India has several implications for the idea of Indian literature, our translation scenario, the idea of comparative literature, the idea of modernity, the nature of our linguistic creativity, the literary use of English and our cultural policy and the formation of cultural institutions and ultimately for our democracy itself. We need to develop a federal and inclusive concept of Indian literature that can accommodate diverse voices, including the so-called “minor” languages, “dialects” and tribal languages. We also need to develop an alternative genealogy of Indian literature that challenges the Orientalist canons, looks beyond colonial concepts, subverts the religious-revivalist motives, takes oral literature seriously and travels to the deepest springs of our people’s creativity in its various forms. In the area of comparative literature, we need to outgrow the outdated model of comparing Indian language literatures with European literatures and focus on comparisons among the Indian language literatures with accent on shared forms, trends and movements as well as those specific to each language and the way even the so-called “movements” find specific modes of expression according to the genius of each language and culture as well as the special ways in which the margi and the deshi traditions have interacted with one another and the Western impact has been received and appropriated: a work left incomplete by pioneers like Sisir Kumar Das.
Though all the languages and literatures are considered equal in principle, they also have real differences in their growth occasioned by factors like age, independence, promotion, avenues of education, research and exchange, evolution of sensibility and modernisation. Some languages get absorbed into others and some are marginalised by systems of governance and education even within the States; the arrival of English has further complicated the power relationship among the languages. We also need to look closely at the attempts to develop indigenous modernities, the deployment of local myths, archetypes and folklore in contemporary literatures and the rereadings and rewritings of epics and works deemed classics in each literature. The differences between monolingual and polylingual creativity also demand attention. Even the Indian use of English—in vocabulary, syntax, style, texture—is inflected by Indian languages in different ways.
The presence of many languages also makes translation a necessary and natural activity, almost a condition of the existence and development of these languages. Still, the project is beset with problems like unequal exchange, wrong priorities, genre-wise discrimination, lack of planning and promotion, inadequacy of initiatives and of funding, absence of proper training, the gradual decline in multiple language skills, and the failure of the institutions of higher learning to encourage their trainees to learn languages from other parts of the country. Cultural and educational policy plays a major role in preserving and promoting—or otherwise—of our languages and literatures. There is an urgent need to fight the standardisation and homogenisation reinforced by the process of globalisation and to consciously encourage multilingual skills, to retrieve local language traditions from amnesia, to challenge the attempted return of colonial imaginaries as well as various forms of epistemic violence that seeks to destroy people’s world views and indigenous knowledge systems and to overcome the depletion of people’s linguistic-civilisational repertoires.

लेखक : के. सच्चिदानंदन

फ़्रंटलाइन से साभार

बुधवार, 6 अगस्त 2014

सीसैट विवाद : मसला भाषा नहीं, लोकतंत्र का है

सिविल सेवा परीक्षा में 2011 से लागू हुए सीसैट के विरोध में जो आंदोलन मुखर्जी नगर में शुरू हुआ उसकी गूँज अब भारत के कई राज्यों में सुनाई दे रही है। भारत में लंबे समय के बाद भाषा के मुद्दे पर इतना बड़ा आंदोलन उठ खड़ा हुआ है। सीसैट में अंग्रेज़ी और घटिया हिंदी अनुवाद के सहारे एक बड़े तबके को शासन व्यवस्था से बाहर रखने की साज़िश रची गई है। यह वही तबका है जो अपनी भाषाओं की मदद से देश की समस्याओं को केवल अंग्रेज़ी के जानकारों की तुलना में बेहतर ढंग से समझ सकता है। यह भी ध्यान देने वाली बात है कि अंग्रेज़ी के जानकारों को अनुचित फ़ायदा पहुँचाकर लोक और तंत्र के बीच की दूरी बढ़ाने वाले सीसैट को बहुत हड़बड़ी में लाया गया।

सबसे पहले सीसैट से जुड़े आंदोलन में भाषा के राजनीतिक संदर्भों पर नज़र डालते हैं। अंग्रेज़ी के समर्थकों ने इसे हिंदी बनाम अंग्रेज़ी संघर्ष का रूप देने की कोशिश की है। इस काम में उन्हें मीडिया के अंग्रेज़ीदाँ तबके का भी सहयोग मिला है। ऐसा इस तथ्य के बावजूद हो रहा है कि आंदोलनकारियों ने अपने ज्ञापन में तमिल, कन्नड़ जैसी भारतीय भाषाओं में घटती सफलता दर के आँकड़े भी पेश किए हैं। 2011 में तमिल माध्यम के केवल 14 उम्मीदवार सिविल सेवा परीक्षा में कामयाब हुए थे। कन्नड़ में तो यह आँकड़ा और खराब था। उस साल इस भाषा के केवल पाँच लोग सफल हो पाए थे। आंदोलनकारियों ने अपने ज्ञापन में इन तमाम तथ्यों को शामिल किया है। इस तथ्य पर ध्यान देना ज़रूरी है कि 2013 में जहाँ कुल 1,122 उम्मीदवारों में से हिंदी माध्यम के 26 उम्मीदवारों को सफलता मिली वहीं तमाम अन्य भारतीय भाषाओं में कुल मिलाकर केवल 27 उम्मीदवार चुने गए। यहाँ क्षेत्रीय विविधता की कमी साफ़ तौर पर दिखती है। असल में यह आंदोलन लोकतंत्र के मूल्यों को बचाए रखने के बड़े मकसद की तरफ़ बढ़ सकता है। ऐसा तभी होगा जब भाषा के मसले को जनतांत्रिक मूल्यों के बड़े संदर्भ में देखा जाएगा। सरकार चाहे कांग्रेस की हो या भाजपा की, भारतीय भाषाओं के मामले में दोनों का एक जैसा ढुलमुल रवैया रहता है। हमारे देश में एक मूर्ति पर 200 करोड़ रुपये जितनी बड़ी राशि खर्च की जा सकती है, लेकिन भारतीय भाषाओं की प्रगति के लिए शिक्षण, पुस्तकालय आदि पर होने वाले खर्च में कटौती करने की बात कही जाती है।

आंदोलनकारियों ने सीसैट में घटिया अनुवाद को ग़ैर-अंग्रेज़ी माध्यम के उम्मीदवारों की सफलता की राह में रोड़ा बताया है। यहाँ इस बात पर ध्यान देना ज़रूरी है कि यूपीएससी की निगवेकर समिति ने भी इस परीक्षा में अनुवाद को बेहतर बनाने का सुझाव दिया है। अनुवाद की ग़लतियों को देखकर बहुत-से लोगों ने इस बात की जाँच करने की माँग की है कि कहीं ये ग़लतियाँ जान-बूझकर तो नहीं की जाती हैं। अंग्रेज़ी में लिखे प्रश्‍न में ‘land reforms’ को हिंदी में ‘सुधार’ लिखना एक ऐसी ग़लती है जिससे उम्मीदवारों की सालों की मेहनत बर्बाद हो सकती है। मुख्य परीक्षा में भी अनुवाद इतना जटिल होता है कि अंग्रेज़ी में मूल पाठ पढ़े बिना उसका अर्थ समझना असंभव हो जाता है। 2012 में लोक प्रशासन के पहले प्रश्‍नपत्र में अनुवाद का एक उदाहरण देखिए - "राज्य उद्देश्य (स्टाट्सराइसन) के इस अमूर्त विचार के संतघोषण में अधिकारीतंत्र की अपनी स्वयं की शक्‍ति के परिरक्षण की दशाओं की निश्‍चित मूल-प्रवृत्तियाँ अभिन्न रूप से ग्रथित रहती हैं।" जहाँ एक-एक पल का महत्व हो, वहाँ इन लापरवाहियों से किस तबके को फ़ायदा होगा यह आप आसानी से समझ सकते हैं। इस मसले पर आवाज़ उठाते हुए आंदोलनकारियों को उस मानसिकता का भी विरोध करना होगा जिसमें केवल अंग्रेज़ी को भाषा और तमाम भारतीय भाषाओं को बोली का दर्ज़ा दिया जाता है।

हिंदी करोड़ों लोगों की भाषा होने के बावजूद न्याय व्यवस्था, प्रशासन आदि में अनुवाद की भाषा बनकर रह गई है। सरकारी हिंदी का अर्थ ही है अनूदित हिंदी। यह हिंदी जनता से बहुत दूर खड़ी नज़र आती है। इसके शब्द जनता के मुँह या कलम से निकले शब्द न होकर उन शब्दकोशों से निकले शब्द हैं जो अब अप्रासंगिक हो चुके हैं। जब देश में जनता के अधिकारों को छीनने की परंपरा विकसित हो जाती है तब उसे ऐसी भाषा की ज़रूरत पड़ती है जो बहुत बड़े तबके की समझ से बाहर हो। भारत में यह भूमिका अंग्रेज़ी और सरकारी हिंदी निभाती है। ‘सामान्य’ को ‘प्रसामान्य’ लिखकर इसे हिंदी उम्मीदवार के लिए अनावश्यक रूप से ‘असामान्य’ बना दिया जाता है। सरकारी विभागों में इस हिंदी को प्रचलित करने में उन अधिकारियों की बहुत बड़ी भूमिका है जो हिंदी को संस्कृत बनाने की ज़िद पाल बैठे हैं। उन्हें हिंदी में संस्कृत को छोड़कर अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों के प्रयोग से भी चिढ़ होती है। असल में वे कभी अंग्रेज़ी तो कभी संस्कृत के कठिन शब्दों से भरी हिंदी के बहाने विशिष्ट होने की उच्चवर्गीय मानसिकता से ग्रस्त हैं। इस हिंदी में ऐसे बेजान शब्दों का प्रयोग किया जाता है जो संग्रहालय में भूसे से भरे शेर-बाघ की तरह पाठकों को केवल डराने का काम करते हैं। अनुवाद की भी अपनी अलग राजनीति होती है। जो भाषा आर्थिक दृष्टि से संपन्न होती है, उसके व्याकरण, वाक्य संरचना, शब्दावली आदि का दबाव उस भाषा पर देखने को मिलता है जो सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर होती है।

सिविल सेवा परीक्षा में अंग्रेज़ी के वर्चस्व और अनुवाद से जुड़ी समस्याओं को लेकर शुरू किया गया आंदोलन भारतीय भाषाओं को रोज़गार से जोड़ने के बड़े मकसद तक जा सकता है। ऐसा तभी होगा जब भारतीय भाषाओं में अच्छे शब्दकोश, विश्‍वकोश आदि उपलब्ध होंगे। इतिहास, समाजशास्त्र आदि विषयों में अच्छी किताबों की उपलब्धता भी ऐसे आंदोलन के लक्ष्यों में शामिल होनी चाहिए। शासक वर्ग ने बड़ी चालाकी से बुद्धिजीवियों में भी यह धारणा फैला दी है कि इन विषयों को भारतीय अंग्रेज़ी में ही पढ़ना चाहते हैं, जबकि सच तो यही है कि ऐसे लाखों उम्मीदवार हैं जो अच्छी किताबें नहीं उपलब्ध होने के कारण मजबूरी में अंग्रेज़ी माध्यम से परीक्षा देते हैं। सरकार से यह कहने का समय आ गया है कि करोड़ों रुपये खर्च करके मूर्ति बनवाना किताबें छपवाने से अधिक महत्वपूर्ण काम नहीं है। जब तक भाषा से जुड़े आंदोलनों में इन मुद्दों पर बात करके लंबे समय तक चलने वाले कार्यक्रम नहीं बनाए जाएँगे, तब तक सरकार के लिए किसी परीक्षा के संदर्भ में उठाए गए सवालों की अनदेखी करना आसान बना रहेगा।


सुयश सुप्रभ का यह आलेख आग़ाज़ पत्रिका के प्रवेशांक (अगस्त  2014 अंक) में प्रकाशित हुआ है।

मंगलवार, 1 जुलाई 2014

राह से भटकी बहस

भारत में भाषा के मसले पर उठने वाली बहसों में तथ्यों और सामाजिक वास्तविकताओं से मुँह मोड़कर केवल भावना को छूने वाली बातें दोहराई जाती हैं। हाल ही में नई सरकार के भाषा संबंधी फ़ैसलों की प्रशंसा-आलोचना के शोरगुल में तार्किक बातें नक्कारखाने में तूती बनकर रह गई हैं। अभी हमें यह समझने की ज़रूरत है कि राजभाषा हिंदी और जनता की हिंदी के विकास को एक नहीं माना जा सकता है।

राजभाषा विभाग ने 10 जून, 2014 को जारी किए गए सर्कुलर में जिन मुद्दों को प्राथमिकता सूची में रखा है उनका उस हिंदी से कोई संबंध नहीं है जो पत्रकारों, विद्यार्थियों, शोधार्थियों आदि की कलम से निकलती है। अगर सरकार हिंदी को ज्ञान और रोज़गार की भाषा बनाने के लिए कोई सार्थक पहल करती तो बात अलग थी। राजभाषा विभाग ने जिन मुद्दों पर ध्यान देने की बात कही है उनमें से केवल एक मुद्दा हिंदी की रोटी खाने वाले तबके के लिए प्रासंगिक हो सकता है, वह भी तब जब सरकार अपनी वर्तमान नीतियों में बदलाव लाए। यह मुद्दा है सरकारी वेबसाइटों को अंग्रेज़ी और हिंदी दोनों भाषाओं में उपलब्ध कराने का। अगर सरकार यह काम लापरवाह अधिकारियों और स्तरहीन काम कराने वाली अनुवाद एजेंसियों की मदद लेकर पूरा करती है तो सरकार का यह काम भी आम जनता के लिए अप्रासंगिक साबित होगा।

सरकारी वेबसाइटों की हिंदी देखकर यह सवाल बार-बार मन में उठता है कि हिंदी के सार्वजनिक अपमान पर मीडिया और अकादमिक जगत दोनों ने लंबे समय से चुप्पी क्यों साध रखी है। राजभाषा विभाग की वेबसाइट की यह स्थिति है कि इसके मुख्य पृष्ठ पर 'अधीनस्थ' और 'अधिनस्थ' दोनों वर्तनियों का प्रयोग हुआ है, जबकि सही वर्तनी 'अधीनस्थ' है। यह विभाग जिस गृह मंत्रालय के अंतर्गत काम करता है उसकी वेबसाइट के मुख्य पृष्ठ पर 'महत्व' को 'महत्वज' लिखा गया है। वर्तनी की एकरूपता का यह हाल है कि एक जगह 'केंद्रीय' और दूसरी जगह 'केन्द्रीय' वर्तनी का प्रयोग हुआ है। वर्तनी की अशुद्धियों को देखकर ऐसा लगता है कि यह वेबसाइट हिंदी सीखने वाले विद्यार्थियों को वर्तनी की अशुद्धियाँ खोजने का अभ्यास कराने के लिए बनाई गई है। अगर आपको किसी वेबसाइट के एक ही पृष्ठ पर 'मुख्यो', 'मुख्यत', 'मुख्यन', 'विभिन्न्', 'व्येय', 'अधीनस्थर', 'व्ययवस्थाग, 'प्रस्तुयत' जैसी अशुद्धियाँ देखने को मिलें तो आप उस वेबसाइट के बारे में क्या सोचेंगे?

हमें इस बात की अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि प्रधानमंत्री और नई सरकार के भाषा संबंधी कदमों के पक्ष-विपक्ष में दिए जाने वाले तमाम तर्कों में रोज़गार, भारतीय भाषाओं में मौलिक लेखन जैसी बातें सिरे से गायब हैं। न तो जयललिता तमिल में रोज़गार के नए अवसर पैदा करके हिंदी के तथाकथित वर्चस्व को चुनौती देती नज़र आती हैं न हिंदी के विकास की बात करने वाले सरकारी अधिकारी और नेता इसे रोज़गार की भाषा बनाने की कोई ठोस योजना सामने रख रहे हैं। अगर हमारे प्रधानमंत्री विदेश यात्रा के दौरान हिंदी में बात करते हैं तो इससे भारत में हिंदी की दयनीय स्थिति पर कोई खास असर नहीं पड़ता है। इस बात की तरफ़ बहुत कम लोगों का ध्यान जा रहा है कि हिंदी समेत तमाम भारतीय भाषाओं को सुनियोजित ढंग से भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में महत्वहीन बना दिया गया है। उच्च शिक्षा में सामाजिक विज्ञान, मनोविज्ञान जैसे विषयों में भी विद्यार्थियों पर अंग्रेज़ी थोपी जा रही है। विश्वविद्यालयों में हिंदी माध्यम के विद्यार्थियों के साथ दोयम दर्ज़े के नागरिक जैसा व्यवहार किया जाता है। पत्रकारिता में भी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के पत्रकारों को अंग्रेज़ी पत्रकारों की तुलना में बहुत कम वेतन मिलता है। इन मसलों पर ध्यान दिए बगैर केवल प्रतीकात्मक कदम उठाने की कोई सार्थकता नहीं है।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सरकारी विभागों में हिंदी के प्रयोग से संबंधित नियमों का कड़ाई से पालन कराने की बात से हिंदी की रोटी खाने वाले अधिकांश लोगों में अपनी भाषा को लेकर आत्महीनता की भावना पहले से कम हो गई है। हिंदी से जुड़े काम करने वाले लोगों को इस बात की उम्मीद हो रही है कि अब उनके बौद्धिक श्रम का महत्व समझा जाएगा। लेकिन तथ्यों की पड़ताल करने के बाद हमें पता चलता है कि इस उम्मीद की बुनियाद बहुत कमज़ोर है। राजभाषा हिंदी का दायरा इतना छोटा है कि उसमें हिंदी जगत की वास्तविक समस्याओं और आकांक्षाओं के लिए कोई जगह नहीं है। जब तक सरकार हिंदी की वास्तविक समस्याओं पर ध्यान नहीं देती, तब तक गलत उम्मीद पाले रखना ठीक नही होगा। हिंदी में न तो स्तरीय कोश हैं न संदर्भ ग्रंथ। सरकारी व अकादमिक प्रकाशनों में भी न तो वर्तनी की एकरूपता का ध्यान रखा जाता है न व्याकरण का। मीडिया में लिखित हिंदी को बोली का रूप देने की साज़िश रची जा रही है और इसका मुकाबला करने के लिए सरकार ने कोई रणनीति नहीं बनाई है। इस बात को झुठलाने की कोशिश की जा रही है कि समय के साथ बदलती भाषा में भी नियमों की प्रासंगिकता हमेशा बनी रहती है क्योंकि नियमों के बिना पत्रिका, किताब, शोध पत्र आदि में विचारों को सुव्यवस्थित ढंग से व्यक्त करना संभव ही नहीं होता। जिस दिन हिंदी में 'द शिकागो मैनुअल ऑफ़ स्टाइल' जैसी कोई किताब पत्रकारों के लिए अनिवार्य संदर्भ ग्रंथ का दर्ज़ा हासिल कर लेगी, उस दिन हिंदी के विकसित भाषा होने पर मुहर लग जाएगी। अभी हिंदी जिस भाषाई अराजकता का सामना कर रही है उसे देखते हुए इसे ज्ञान की भाषा बनाने की चुनौती सचमुच बहुत कठिन लगती है।

भाषा के मसले पर होने वाली तमाम बहसों में इस तथ्य की अनदेखी कर दी जाती है कि अनुवाद के क्षेत्र पर समुचित ध्यान देकर लाखों लोगों की रोज़ी-रोटी का इंतज़ाम किया जा सकता है। एक अनुमान के मुताबिक वर्ष 2018 तक अनुवाद का अंतरराष्ट्रीय बाज़ार लगभग 22 खरब रुपये का हो जाएगा। इतने बड़े बाज़ार पर सरकार ने अभी तक कितना ध्यान दिया है यह तो आपको सरकारी विभागों की कार्यशैली से पता चल गया होगा। अमेरिका में अनुवाद तेजी से उभरते पेशों की अग्रिम पंक्ति में जगह बना चुका है। स्वतंत्र अनुवादकों ने अनुवाद को ज्ञान की शाखा और पेशे के रूप में एक अलग पहचान दिलाई है। एशिया में भी अनुवाद के बाज़ार का विस्तार हो रहा है। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए सरकार को स्तरीय वेबसाइटों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए एक ऐसा तंत्र विकसित करना चाहिए जिसमें अनुवादकों को अपर्याप्त पारिश्रमिक देने वाली अनुवाद एजेंसियों की कोई भूमिका नहीं रहे। स्वतंत्र अनुवादकों को सरकार के लिए सीधे काम करने का अवसर मिलना चाहिए। इसके लिए सरकारी विभागों में अनुवाद की न्यूनतम दर भी तय कर देनी चाहिए। हिंदी समेत तमाम भारतीय भाषाओं में अनुवाद को प्रोत्साहित करने की ज़रूरत है। भारतीय भाषाओं में नौकरी के लाखों अवसर पैदा किए जा सकते हैं। अगर सरकार यह ठान ले कि प्रशासन, न्यायपालिका आदि में अंग्रेज़ी के बदले स्थानीय भाषाओं में ही काम कराया जाएगा तो न जाने कितने बेरोज़गारों को काम मिल जाएगा।

अगर सरकार हिंदी और भारतीय भाषाओं के भविष्य के प्रति सचमुच चिंतित है तो उसे इन भाषाओं को रोज़गार से जोड़ने की कोशिश करनी चाहिए। शासक वर्ग अंग्रेज़ी को ही ज्ञान घोषित करने की कोशिश कर रहा है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भाषा को ज्ञान या विचार की अभिव्यक्ति का साधन मानना ही सही है। इसे ज्ञान मानना गलत होगा, लेकिन शासक वर्ग को अपने हित साधते समय सही-गलत की परवाह नहीं रहती है। इस भेदभाव को खत्म किए बिना केवल भाषा के सम्मान की प्रतीकात्मक राजनीति से किसी को कुछ हासिल नहीं होगा।