सोमवार, 26 नवंबर 2012

तहलका में अनुवाद से संबंधित महत्वपूर्ण आलेख


प्रकाशक प्रति शब्द 10 या 15 पैसे देता है. इसके बाद आप उम्मीद करें कि बढ़िया अनुवाद हो जाए. क्या यह संभव है? 'विश्व क्लासिकल साहित्य शृंखला (राजकमल प्रकाशन) के संपादक सत्यम के ये शब्द उस बीमारी की एक वजह बताते हैं जिसकी जकड़ में हिंदी अनुवाद की दुनिया आजकल है. अनुवाद यानी वह कला जिसकी उंगली पकड़कर एक भाषा की अभिव्यक्तियां दूसरी भाषा के संसार में जाती हैं और अपने पाठकों का दायरा फैलाती हैं. लेकिन इस कला की सेहत आजकल ठीक नहीं. जानकारों के मुताबिक हिंदी में होने वाले अनुवाद का स्तर बहुत खराब है. इसके चलते दूसरी भाषा की अच्छी रचनाओं को हिंदी में पढ़ने का आनंद काफी हद तक जाता रहता है. जैसा कि कवि और पत्रकार पंकज चौधरी कहते हैं, ‘बहुत सारी अंग्रेजी भाषाओं के  प्रसिद्ध लेखकों की कृतियों को पढ़ने का मन होता है. लेकिन कई बार अंग्रेजी से  अनूदित होकर हिंदी में आई किसी किताब को पढ़कर लगता है कि इससे अच्छा तो मूल किताब ही पढ़ ली जाती.

अपने काम को लेकर ज्यादातर अनुवादकों के अनुभव अच्छे नहीं होते. कहानीकार और दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर प्रभात रंजन कहते हैं, ‘पेंगुइन जैसा बड़ा प्रकाशक डिमाई आकार के एक पन्ने (औसतन 300-350 शब्द) के लिए 80 रुपये देता है. राजकमल और वाणी प्रकाशन का रेट थोड़ा ठीक है. वे प्रति शब्द 40 पैसे देते हैं.पेंगुइन प्रकाशन में हिंदी संपादक की जिम्मेदारी संभाल चुके सत्यानंद निरुपम भी कहते हैं, ‘प्रकाशक प्रति शब्द 22 पैसे मेहनताना देते हैं जबकि गैरसरकारी संगठन (एनजीओ) एक रुपया प्रति शब्द या इससे ज्यादा भी दे देते हैं. जबकि साहित्य की सामग्री का अनुवाद एनजीओ की सामग्री की तुलना में कहीं ज्यादा कठिन होता है.पेंगुइन प्रकाशन में हिंदी संपादक रियाज उल हक का कहना है, ‘अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद की दर अब 100-135 रुपये प्रति पृष्ठ कर दी गई है.लेकिन कुछ अनुवादकों का मानना है कि यह दर भी बहुत राहत देने वाली नहीं है.

लेकिन अनुवाद की बदहाली का कारण सिर्फ कम मेहनताना नहीं है. विशेषज्ञता की कमी भी इसके लिए जिम्मेदार है. सत्यम कहते हैं, ‘यूरोप में विशेषज्ञ अनुवादकों की लंबी परंपरा रही है. मसलन चेखव का अनुवाद करने वाले उनके साहित्य के शोधार्थी रहे हैं. उन पर लगातार लिखने या उन्हें जानने वालों को ही यह जिम्मा मिलता रहा है. वहां प्रकाशक अनुवादकों को काम सौंपते समय बहुत सतर्क रहते हैं. लेकिन भारत में आपको ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे जिनमें अनुवादकों को अनुवाद के विषय की कोई जानकारी नहीं होती है. यही वजह है कि स्थिति 'हंसिया के ब्याह में खुरपी का गीत' जैसी हो जाती है.

प्रकाशकों द्वारा अनुवादकों का नाम नहीं दिया जाना भी एक बड़ा कारण है. गीतांजलि के हिंदी अनुवाद’  पुस्तक के लेखक देवेंद्र कुमार देवेश कहते हैं,  ‘प्रकाशक अनुवादकों का नाम किताब में शामिल नहीं करना चाहते.इसका कारण बताते हुए वे कहते हैं, ‘दरअसल वे अनुवाद के काम को दोयम दर्जे का मानते हैं. खास तौर पर बांग्ला से हिंदी में अनूदित किताबों में नाम देने की परंपरा रही ही नहीं है. नाम दिए जाने से अनुवादकों की जिम्मेदारी तय होती है और जाहिर- सी बात है कि वे काम को गंभीरता से लेते हैं.कमोबेश यही आलम अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद में भी है. एक अनुवादक और लेखक नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद के काम को चलन में लाने वाला प्रभात प्रकाशन आम तौर पर अपने अनुवादकों का नाम किताब में शामिल नहीं करता.

अनुवादकों की जिम्मेदारी के बारे में अनुवादक विमल मिश्र कहते हैं, ‘मूल रचनाकार अपनी रौ में लिखता जाता है, उस पर कोई बंदिश नहीं होती. लेकिन अनुवादक को रेलगाड़ी की तरह पटरी पर चलना पड़ता है.वे आगे जोड़ते हैं, ‘जैसे इंजिन के ड्राइवर की जिम्मेदारी होती है मुसाफिरों को उनके गंतव्य तक सुरक्षित पहुंचाने की, ठीक वैसी ही जिम्मेदारी अनुवादक की होती है मूल रचना के भाव को अनूदित रचना में समेकित करने की. अनुवादक को जवाब देना पड़ता है प्रकाशक को, पाठकों को और मूल पुस्तक के रचनाकार को भी.हालांकि जब हम मुद्दे के दूसरे पहलू यानी प्रकाशकों को टटोलते हैं तो समस्या की एक और भी वजह सामने आती दिखती है. वाणी प्रकाशन के मालिक अरुण माहेश्वरी कहते हैं,  ‘काम और पैसे देने वालों की कोई कमी नहीं है. हमने सआदत हसन मंटो की कहानी उर्दू से हिंदी में करवाई. अनुवादक महोदय ने चवन्नी नामक पात्र को चन्नी कर दिया. इसमें पैसे का मामला कहां है? हम मेहनताना तय करना अनुवादकों पर छोड़ देते हैं. हकीकत तो यह है कि अनुवाद की किताबें हमारे लिए मुनाफा देने वाली नहीं होती हैं. ऐसा पूछने पर कि इसकी वजह क्या है, माहेश्वरी कहते हैं, ‘अनुवाद की किताब तैयार करने में अनुवादक, प्रूफ रीडर और संपादक को अलग-अलग पैसा देना होता है.अनुवादकों को मुंहमांगी कीमत देने के नाम पर माहेश्वरी महात्मा गांधी के पौत्र और पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी का नाम गिनाते हैं. गांधी ने वाणी प्रकाशन के लिए विक्रम सेठ की किताब ए सुटेबल ब्वॉयका अनुवाद किया है.

लेकिन जानकारों के मुताबिक ऐसे उदाहरण इक्का-दुक्का हैं और ज्यादातर अनुवादक गोपाल कृष्ण गांधी की तरह अपना मेहनताना खुद तय करने जैसी स्थिति में नहीं होते. और रही बात कम मुनाफे की तो अगर ऐसा होता तो इस समय बाजार में अनूदित सामग्री की जो बाढ़ आई हुई है वह नहीं दिखती. इस बाढ़ का बड़ा हिस्सा अंग्रेजी के प्रकाशकों पेंगुइन और हार्पर कॉलिन्स से आता है. सत्यम कहते हैं, ‘ज्यादातर मामलों में अनुवाद मशहूर किताबों का ही होता है. अंग्रेजी के बड़े लेखकों की किताब का हिंदी में अनुवाद कराया जाता है, इसलिए लाइब्रेरी से खरीद बड़े पैमाने पर हो जाती है. इन किताबों के अनुवाद के कई संस्करण प्रकाशित होते हैं और इनसे प्रकाशक लंबे समय तक मुनाफा कमाते हैं.वैसे वजहों पर भले ही सहमति न हो, लेकिन इस पर सब सहमत हैं कि अनुवाद के स्तर में गिरावट आई है. अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद के मामले में ऐसे भी कई उदाहरण मिल जाते हैं जहां दो शब्दों से लेकर तीन-तीन पैराग्राफ या कई पन्ने छोड़ दिए जाते हैं. अंग्रेजी के कई मुहावरे जिनका हिंदी में अनुवाद हो सकता है और जो पाठकों की दिलचस्पी बढ़ाने में मददगार हो सकते हैं, उन्हें अनुवादक हिंदी पाठकों के स्तर का हवाला देकर छोड़ देते हैं. इसे समझने के लिए यहां यथार्थवाद के प्रवर्तक और प्रसिद्ध फ्रांसीसी लेखक स्तांधाल के सबसे चर्चित उपन्यास सुर्ख और स्याहका सहारा लिया जा सकता है. इस उपन्यास में विभिन्न अध्यायों की शुरुआत में कोई पद्यांश या सूक्ति या फिर कथन दिया गया है जिसके साथ किसी विख्यात हस्ती का नाम है. ये उपन्यास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. मगर हिंदी में पहली बार प्रकाशित अनुवाद से ये नदारद थे.

अनुवाद में लापरवाही का यह सिलसिला अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद तक ही सीमित नहीं है. बांग्ला के कई क्लासिक उपन्यासों के अनूदित संस्करण दशकों से हिंदी पाठकों के बीच बहुत लोकप्रिय रहे हैं. लेकिन इनमें भी बड़ी भूलें मौजूद हैं. 20वें पुस्तक मेले में शरतचंद्र और रवींद्रनाथ ठाकुर के उपन्यासों के नए हिंदी अनुवाद का विमोचन किया गया. इन किताबों का नए सिरे से अनुवाद कराने की जरूरत पर राजकमल प्रकाशन के मालिक अशोक माहेश्वरी का कहना था, ‘ये किताबें अब रॉयल्टी से बाहर हो चुकी हैं. मगर इन किताबों के जो हिंदी संस्करण बाजार में बिक रहे हैं वे आधे-अधूरे हैं. उनके अनुवाद बहुत खराब हैं. पन्ने के पन्ने गायब हैं. बांग्ला में कुछ कहा गया है और हिंदी अनुवाद में कुछ और.राजकमल से प्रकाशित पथ का दावाके अनुवादक विमल मिश्र किताब की भूमिका में लिखते हैं, ‘शरत बाबू के उपन्यास पथेर दाबीका हिंदी अनुवाद पथ का दावाहोगा न कि पथ के दावेदार’. दरअसल इस उपन्यास के कथानक का मूल आधार पथ का दावानाम की समिति है. हिंदी के दावेदारशब्द के लिए बांग्ला में दाबिदारशब्द है.'

खराब अनुवाद की एक बड़ी वजह अनुवादकों में नजरिये का अभाव होना भी है. किसी समाज में किसी शब्द का क्या मतलब है, इसे समझे बगैर अनुवाद कर देने से अर्थ का अनर्थ होना तय है. दिल्ली विश्वविद्यालय में एमए अंग्रेजी में कंपरेटिव लिटरेचरके तहत मुंशी प्रेमचंद का प्रसिद्ध उपन्यास गोदानका अंग्रेजी अनुवाद पढ़ाया जा रहा है.  गोदान शीर्षक की व्याख्या करते हुए अनुवादक ने इसे अ गिफ्ट ऑफ काऊलिखा है जबकि इसका ठीक अनुवाद ऑफरिंग ऑफ अ काऊहोगा. किसी प्रियजन के मरने के बाद ब्राह्मण आत्मा को मुक्त करने के नाम पर यजमान पर दान-दक्षिणा के लिए दबाव बनाता है. इसे यजमान की इच्छा पर नहीं छोड़ता. गोदानका पूरा कथानक ही वर्णवादी व्यवस्था की इस कुरीति के खिलाफ है. वरिष्ठ पत्रकार राजेश वर्मा कहते हैं, ‘अनुवाद हमेशा भाव का होता है. शब्द का अनुवाद करने की कोशिश करेंगे तो हमेशा गड़बड़ियां पैदा होंगी.

एक और अहम बात यह है कि तीन-चार दशक पहले तक कई नामी-गिरामी साहित्यकार व्यापक स्तर पर अनुवाद किया करते थे. उनका काम बाकी लोगों के लिए मिसाल होता था. अशोक माहेश्वरी अनुवादकों की फेहरिस्त सामने रखते हुए मोहन राकेश, राजेंद्र यादव, निर्मल वर्मा और द्रोणवीर कोहली जैसे नामवर साहित्यकारों का भी नाम लेना नहीं भूलते.

ऐसे में सवाल उठता है कि क्यों आज नामचीन साहित्यकार अनुवाद की कला से दूर होने लगे हैं. इसके जवाब में अशोक माहेश्वरी कहते हैं, ‘आज साहित्यकारों के लिए अनुवाद रोजी-रोटी का विकल्प नहीं रह गया है. विश्वविद्यालय में पढ़ाने से लेकर फिल्म और टेलीविजन की दुनिया में पटकथा लेखन तक उनके लिए कई दरवाजे खुल गए हैं.दरअसल अनुवाद एक भाषा की सामग्री को दूसरी भाषा में बदल देने की कला भर नहीं है. इसके जरिए एक भाषा में कही गई बात, उसमें छिपे या प्रकट भावों को बहुत ही संजीदगी से दूसरी भाषा में अनूदित करना होता है. निरुपम कहते हैं, ‘अनुवाद के जरिए आप एक संस्कृति का भी अनुवाद कर रहे होते हैं. इसे समझे बगैर अच्छा अनुवाद नहीं किया जा सकता. अगर यह काम ठीक से नहीं होगा तो भाषा की समृद्धि का सवाल  पीछे छूटेगा ही, साथ ही अनूदित किताबों के बाजार की संभावनाएं भी कमजोर होंगी.

लिंक : http://bit.ly/YlIZ47

शनिवार, 24 नवंबर 2012

अनुवाद की हास्यास्पद दर

हिंदी अनुवादक समूह में हाल ही में अनुवाद की हास्यास्पद दरों पर चर्चा हुई। इस चर्चा में शामिल अनुवादकों ने इस बात पर जो़र दिया कि अनुवाद एजेंसियों या कंपनियों को आईना दिखाने का समय आ गया है। आप इन अनुवादकों के संदेश नीचे पढ़ सकते हैं। 

विनोद शर्मा

आज तो हद ही हो गई। आज फिर एक मोहतरमा का फोन आया है कि एक लाख से ज्यादा पृष्ठ हैं, 20 रुपए प्रति पृष्ठ पर ले सकते हो क्या?


यह हो क्या रहा है? अनुवाद को लोग इतना नीचे गिराने पर क्यों तुले हैं?

अरे यह रेट तो एक टाइपिस्ट भी नहीं लेगा। ये लोग अनुवाद को केवल एक धंधा मानते हैं। क्लाइंट से शिकायत आएगी तो अनुवादक को पकड़ लेंगे, चल गया तो ठीक है।  20 रुपए से तो 10 पैसे की दर भी नहीं बनती। ये लोग प्रोज/ट्रांलेटर्स कैफे आदि से प्रमुख अनुवादकों के संपर्क विवरण उठाते हैं और सीधे फोन पर मोल-तोल करने लगते हैं। भारी काम का लालच इस तरह देते हैं जैसे कोई व्यापारिक वस्तु बेचनी है जिसका थोक भाव बहुत कम होना चाहिए। बड़ी मुश्किल से समझा पाता हूँ कि अगर 1 रुपए की दर से मैं एक दिन में 2000 रुपए कमाता हूँ तो आपकी दर से तो मुझे 200 रुपए ही मिलेंगे। अब एक लाख पेज होने का मुझे क्या लाभ होगा?

दिवाकर मणि

हा हा हा...बेचारगी वाली हंसी ही आती है ऐसे प्रस्तावों को सुनकर. बात इतने तक ही रहे तो ठीक. अगर किसी जरूरत के मारे ने प्रस्ताव स्वीकार भी कर लिया तो अलग से ढेरों शर्त- यथा, क्वालिटी मेंटेन होनी चाहिए; कम से कम समय में देने की कोशिश करिएगा; (अगर महीने-छह महीने बाद भी) क्लाइंट कुछ किंतु-परन्तु कहता है तो आपको ठीक करना होगा. डेडलाइन एकदम स्ट्रिक्ट है, इत्यादि-इत्यादि.
और काम हो जाने के बाद भुगतान!!! उसे भूल ही जाएं तो बेहतर... जब मर्जी या उनकी कृपा होगी तो कुछ मिल जाएगा...और उसे भी अपना बड़भाग समझिएगा...

यशवंत गहलोत

मेरा सुझाव है कि ऐसे प्रस्ताव देने वालों को बताया जाना चाहिए कि उनके प्रस्ताव एक बंद कमरे तक ही सीमित नहीं रह रहे, उन्हें अनुवादक संघ जैसे मंचों पर साझा किया जा रहा है और सैंकड़ों अनुवादकों की जानकारी में लाया जाता है. अगर उन्हें अपने नाम की चिंता है तो आगे से आपसे संपर्क करने से पहले दो बार सोचेंगे.

प्रमोद कुमार तिवारी

यह एक तरह का अपराध है जो बहुत ही संगठित रूप में किया जाता है। प्राइवेट संस्‍थाएँ अच्‍छे रेट पर अनुवाद का काम लेती हैं और‍ फिर अनुवादकों की मजबूरी और बेरोजगारी का फायदा उठाती हैं। ऐसी संस्‍थाएं ज्‍यादातर काम बड़ी कंपनियों, सरकारी संस्‍थाओं या प्रकाशन संस्‍थाओं से लेती हैं और मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि जिन संस्‍थाओं ने 15 साल से अपनी दर का नवीनीकरण नहीं किया है उनके दर भी इतने कम नहीं हैं।

          चूंकि यह एक तरह का अपराध है सो इन्‍हें सबक सिखाना चाहिए, इन संस्‍थाओं के नाम अखबारों और अन्‍य जनमाध्‍यमों में ले जाना चाहिए और इनके नाम के साथ फीचर और रिपोर्ट लिखकर इन्‍हें बेनकाब करना चाहिए ताकि इन्‍हें सबक मिले। जाने कितने मजबूर साथी इनके चंगुल में फंस जाते होंगे और अपना श्रम और समय बर्बाद करते होंगे।

भावना मिश्रा

प्रमोद जी और यशवंत जी के विचारों से बिलकुल सहमत हूँ...
हमें कुछ ऐसे माध्यम क्रिया में लाने होंगे जो बाज़ार में इन संस्थाओं के ऐसे हास्यास्पद प्रस्तावों को प्रचारित कर सकें. सिर्फ अपने मंच पर कुछ लोगों के बीच चर्चा का विषय बनकर रह जाने से कोई विशेष लाभ नहीं होगा. एकाध जगह से ना पाकर ये कौन से निराश होने वाले हैं, अन्य लोगों के सामने अपने यही दाने डालेगी यह संस्था. इनका वृहत स्तरीय दुष्प्रचार किया जाना चाहिए.

डॉ. राजीव कुमार रावत

विनोद जी
(1)   क्या वास्तव में एक लाख पेज अनुवाद के लिए हो सकते हैं किसी के पास ?
इन्हें सबक सिखाने के लिए एक ट्रिक अपनाइए-

मेरे जैसे गैरे पेशेवर लोग किंतु समूह के सदस्यों में से कोई एक दो इनके काम को लेने का आश्वासन दें- काम को ले लें- छह महीने या जो भी डेडलाइन हो तब तक काम में कुछ भी न करें। ऐसे ही बीत जाने दे। बाद में सौरी बोल दे। सभी बातों को सबके साथ नियमित साझा करते रहें।

हाय तोबा के बाद फिर ये किसी अगले से संपर्क करेंगी वह शर्त रखें कि नहीं 1 रुपये कम शब्द से कम दर पर काम नहीं हो पाएगा चाहे 1 लाख पेज हों या 1 करोड़। धीरे धीरे यह सर्राफा बाजार की तरह प्रामाणिक हो जाएगा कि शहर और दुकान कोई भी हो 22 कैरेट का लगभाग इसी भाव मिलेगा। जिसे सोना चाहिएगा वह इतनी कूबत लेके चलेगा और चमकीली चीज ही चाहने वाला लेडीज कार्नर पर जाएगा -धंधे दोनों चल रहे हैं।
इसमें घाटा सिर्फ यही है कि भाषा का नुकसान होगा, अनुवादकों की साख जाएगी लेकिन आप आखिर कर क्या सकते हैं- सुनार भी तो चोर होते हैं, बड़ी बड़ी दुकानों में भी तो ठगाई होती है और गली मुहल्ले का सुनार कारीगर बहुत अच्छा गहना गढ़ देता है। लेकिन 32000 रुपये प्रति तोला और गढ़ाई शुल्क 15 प्रतिशत देने की औकात रखने वाला तनिष्क अथवा कहीं और जगह ही जाएगा।

जब हम अनुवाद बाजार की बात करेगे तो बाजार के अन्य खतरे और शब्दावली यहां पर भी लागू होगी इससे आप बचा नहीं सकते अपने आप को - बाजार शब्द ही अपने आप में बेइज्जती का है- वहां आपका मोल भाव तो होगा ही । राजनीति की तरह जैसे अरंविद केजरीवाल राजनीति में आए हैं तो उन्हें अपनी पवित्रता की दुहाई कोई नहीं देने देगा वहां तो उन्हें उसी कीचड़ से खेलना होगा जिसमें दूसरे लथ पथ है।

(2) यदि इस आपरेशन स्टिंग में किसी तरह की कोई विधिक दिक्कत अथवा अन्य कोई परेशानी न हो तो अपना कर देखें क्या, किसी साथी के व्यवसायिक हित प्रभावित न हो रहे हों तो इस पर चर्चा की जाए कि इन दलालों को कैसे सबक सिखाया जाए और कैसे अपनी अहंकारी अहमियत नहीं बल्कि सम्मानजनक स्थिति तो प्राप्त करें जो अन्य पेशोवरों को प्राप्त होती है।

(3) इस बात को एक अन्य पहलू से भी देखने की जरुरत है- कोर्ट में हजारों बकील हैं सभी तो अरुण जेटली या जेठामलानी या तुलसी ---------------- या अन्य नहीं है। कम कीमत पर भी लड़ने वाले हैं- अब मैं चाहता तो हूं कि मेरा केस जेठामलानी लडे लेकिन उनकी फीस देने की औकात नहीं है किंतु मुझे अधिकार तो है कि मैं उनके पास जाऊं और कहूं कि साब पैसे तो मैं सिर्फ दस हजार दे पाऊंगा, आप मेरा केस ल़ड़िए, तो इसमें उन्हें क्रोधित होने की कोई बात नहीं है मना कर देंगे- मैं दस हजार में लड़ने वाले के पास पहुच ही जाऊंगा, धीरे धीरे वह भी कुछ वर्षों में अच्छी साख का होता जाएगा लेकिन फिर कुछ जूनियर बाजार में आते चले जाएंगे।

(4) विनोद जी हम उस मोहतरिमा की बात कर रहे हैं वे तो चलिए बाजार का अंग हैं- लाभालाभ देखेंगी ही- हमारी अपनी सरकार, हमारे विभागाध्यक्ष, हमारे अंग्रेजी के आका शासनाध्यक्ष- ये सब अनुवादकों की या हिन्दी अधिकारियों की क्या औकात मानते हैं- उनके काम को किस स्तर का मानते हैं ? अंग्रेजी का काम करने में जितना समय अन्य लोग लेते हैं, जिसमें कि अधिकांशतः वे कापी पेस्ट ही करते हैं लेकिन बहुत अहम काम माना जाता है। और हिन्दी वाले से आशा करते हैं कि जादू की छडी घुमा कर उसी पत्रवाहक को अनुवाद कर  दे दें जो अंग्रेजी सामग्री लेकर आया है।

हम अंग्रेजी वालों के मॉल आदि के घिरे हुए बाजार में बहुत सुंदर सी कलाकृतियां या टोकरे, गमले आदि हस्तनिर्मित सामान लेकर फुटपाथ पर बैठे हुए भदेस बना दिए हैं अपनीही सरकार और शासन व्यवस्था ने जिनके सामान पर नजर डालना तो हर कोई आवश्यक सा मानता है पर खरीदने के समय कम से कम मूल्य देना चाहता है।

हमारी सरकार ने कितना अपमानजनक रेट रखा है अनुवाद का, तो ये बाजार के खिलाड़ी क्यों ज्यादा देने लगे। अपने ही सम्मान नहीं करते तो बाहर वाले क्यों इज्ज्त से बात करेंगे, उन्हें कोई न कोई और मजबूर मिल ही जाएगा। गरीब की जोरु सारे गांव की भौजी होती है।

इस लिए हमें इस अनुवाद कर्म को कैसे प्रतिष्ठित किया जाए इसके लिए कुछ गंभीर विमर्श करने होंगे। आईएमए की तर्ज पर कोई संस्था भारत सरकार से रजिस्टर्ड कराई जाए फिर उसका प्रमाणीकरण प्रमाणपत्र धारी ही अनुवाद करने का पात्र माना जाए। और अऩाधिकृत अनुवादकों पर भी नजर ऱखी जाए, या केन्द्रीय अनुवाद ब्यूरो को यह काम सौंपा जाए बैसे भी उनकी दुकान आजकल कम चल रही है, तीनों को मिलाने की बात चल रही है -- -- --- क्या कुछ ऐसा हो सकता है ? कहीं मैं दशहरे पर बहक तो नहीं गया ?

विनोद शर्मा

रावतजी,इतना आसान नहीं है। इस खेल के खिलाड़ी कहीं ज्यादा चालाक होते हैं। उनको डिलीवरी रोजाना चाहिए होती है। ऐसा नहीं कि वे काम देकर भूल जाएँ। इसका तो एक ही इलाज है कि अधिक से अधिक लोग इनको ना कहना शुरू करें।

एक बात और ये सारा खेल बिचौलियों का है। बीच के बिचौलियों की संख्या जितनी ज्यादा होगी रेट उतना ही कम होता जाएगा। असली क्लाइंट तो ठीक रेट देता होगा लेकिन दूसरे से तीसरा, तीसरे से चौथा, पांचवा...... इसतरह रेट बंटती हुई जब अनुवादक के पास पहुंचती है तो 10-20 पैसे रह जाती है। यब केवल भारत में ही है कि यहाँ क्लाइंट अनुवादक पर भरोसा नहीं करते इस लिए किसी कंपनी को काम सौंप देते हैं। फिर आगे से आगे दूसरे को देने का सिलसिला चल पड़ता है।

ललित सती

विनोद जी को साधुवाद। वह निरंतर इस महत्वपूर्ण मसले को इस मंच पर उठाते रहते हैं।
मुझे तो इस संबंध में एक ही बात समझ में आती है कि अधिकाधिक लोगों तक अपनी बात पहुंचाई जाए। अलग-अलग मंचों पर इस मुद्दे को उठाया जाए, चर्चा में लाया जाए। मैं तो कई बार अनुवाद की दर पर चल रही चर्चाओं का लिंक अपने मित्रों को यूं ही शेयर कर देता हूं, भले ही वे अनुवादक हों या न हों। मेरा मानना है कि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक बात पहुंचे कि कॉमर्शियल अनुवाद में रेट कहीं अधिक हैं। लोगों का बड़े पैमाने पर शोषण हो रहा है। 

ढेरों ऐसे फ़र्जी इस क्षेत्र में घुस आए हैं, जो बहुत कम कीमत पर ज़रूरतमंदों को ठग रहे हैं। उन्हें हिंदी भाषा, अनुवाद के स्तर, अपनी साख बनाने जैसी बातों से कोई लेना-देना नहीं है। ऐसे लोगों ने बहुत माहौल खराब कर रखा है। इस मंच पर ऐसों का जितना भंडाफोड़ हो उतना अच्छा है।

अलग-अलग ढंग से ऐसे तर्क देने वाले लोग भी हैं कि आपके पास बहुत काम होगा, आप बहुत कमा लेते होंगे, आप अधिक रेट लें, लेकिन "बेचारे" उन नए लोगों को कम रेट पर काम लेने दें, जो इस क्षेत्र में नए-नए हैं। कोई नया व्यक्ति अनुवाद के क्षेत्र में आता है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह अपमानजनक दरों पर काम करे तभी वह इस क्षेत्र में पांव जमा सकता है। जहां तक अकादमिक जगत में अपना करियर चमकाने के लिए कुछ अनुवाद वगैरह करने की बात है तो कोई मुफ़्त में यह काम करे हमें क्या। नाम छपने के लिए किसी प्रकाशक से मिन्नतें कर आपको काम मुफ़्त में करना है, करिए। आपकी माली हालत "शानदार" है, आप शौकिया तौर पर कम पैसे पर अनुवाद करते हैं, करिए। लेकिन जब स्वतंत्र अनुवादकों के अधिकारों की बात हो रही हो तो उसमें अपनी नाक मत घुसेड़िये। बेरोजगार युवाओं और महिलाओं से कम कीमत पर अनुवाद कराने के हामी प्रबुद्धों और इसके लिए उनके सशक्तिकरण का तर्क पेलने वाले लोगों का तीखा विरोध ऐसे मंचों पर ज़रूरी है। 
अनुवाद की दर के संबंध में इस मंच पर चली चर्चाओं को एक शीर्षक अंतर्गत लाकर उसे अधिकाधिक लोगों को अग्रेषित करने का काम कैसे हो सकता है, इस बारे में कोई साथी उपाय सुझाएं तो अच्छा रहे।

विनोद शर्मा

ललितजी, ऐसा नहीं है कि इस क्षेत्र में एक्टिविस्ट से की भूमिका निभाने का नुकसान न  झेलना पड़ता हो। मैं जानता हूँ कि कई कंपनियां और एजेंसी इस हिंदी अनुवादक समूह की सदस्य हैं और इसको वे लोग पढ़ते भी हैं। हालांकि सभी प्रतिष्ठित कंपनियां सम्मान तो करती हैं लेकिन काम नहीं देती। दिल्ली-एनसीआर की कंपनियों ने तो जैसे बहिष्कार ही कर रखा है। उनकी शिकायत यही हो सकती है कि खुद तो उनके मुताबिक  दर पर काम नहीं करता और दूसरों को भी भड़काता है।

लेकिन हर प्रयास/पहल/अभियान का मूल्य तो चुकाना ही पड़ता है।

आलोक मिश्रा

विनोद जी, मुझे लगता है कि लोग अनुवादकों को एक मशीन भर समझने की भूल कर रहे हैं। भगवान, इन्हें सद्बुद्धि दें।

डॉ. परितोष मालवीय

विनोद जी

बाकी अनुवादकों को भड़काकर आप बेहतर कार्य कर रहे हैं। कम से कम मैं तो आपके भड़कावे में पहले से ही हूं। इन दरों पर तो बात भी करना पसंद नहीं करता और साफ साफ कह देता हूं कि आपका बजट ज्‍यादा हो तभी संपर्क करें।

कपिल स्वामी

इस काम का संदेश प्रोज़डॉटकॉम पर अभी भी आ रहा है। मैंने प्रोज़डॉटकॉम के संचालकों को कम दर की पेशकश करने वाली इस तरह की एजेंसियों के खिलाफ कार्रवाई करने का अनुरोध भेजा है। क्‍या प्रोज़ या ट्रांसलेटरकैफे जैसी प्रतिष्ठित साइटों पर ऐसी एजेंसियों के खिलाफ सामूहिक अनुरोध करने के विचार को अमल में लाया जा सकता है?


विनोद शर्मा

कपिलजी,

मैं इस प्रकार के प्रयास कर चुका हूँ। प्रोज और कैफे कुछ नहीं करेंगे। उनका जवाब भी मिला था कि हम पोस्ट करने वालों को रोक नहीं सकते। वे कहते हैं कि अनुवादक ऐसे पोस्ट का जवाब न दें।