मंगलवार, 1 जुलाई 2014

राह से भटकी बहस

भारत में भाषा के मसले पर उठने वाली बहसों में तथ्यों और सामाजिक वास्तविकताओं से मुँह मोड़कर केवल भावना को छूने वाली बातें दोहराई जाती हैं। हाल ही में नई सरकार के भाषा संबंधी फ़ैसलों की प्रशंसा-आलोचना के शोरगुल में तार्किक बातें नक्कारखाने में तूती बनकर रह गई हैं। अभी हमें यह समझने की ज़रूरत है कि राजभाषा हिंदी और जनता की हिंदी के विकास को एक नहीं माना जा सकता है।

राजभाषा विभाग ने 10 जून, 2014 को जारी किए गए सर्कुलर में जिन मुद्दों को प्राथमिकता सूची में रखा है उनका उस हिंदी से कोई संबंध नहीं है जो पत्रकारों, विद्यार्थियों, शोधार्थियों आदि की कलम से निकलती है। अगर सरकार हिंदी को ज्ञान और रोज़गार की भाषा बनाने के लिए कोई सार्थक पहल करती तो बात अलग थी। राजभाषा विभाग ने जिन मुद्दों पर ध्यान देने की बात कही है उनमें से केवल एक मुद्दा हिंदी की रोटी खाने वाले तबके के लिए प्रासंगिक हो सकता है, वह भी तब जब सरकार अपनी वर्तमान नीतियों में बदलाव लाए। यह मुद्दा है सरकारी वेबसाइटों को अंग्रेज़ी और हिंदी दोनों भाषाओं में उपलब्ध कराने का। अगर सरकार यह काम लापरवाह अधिकारियों और स्तरहीन काम कराने वाली अनुवाद एजेंसियों की मदद लेकर पूरा करती है तो सरकार का यह काम भी आम जनता के लिए अप्रासंगिक साबित होगा।

सरकारी वेबसाइटों की हिंदी देखकर यह सवाल बार-बार मन में उठता है कि हिंदी के सार्वजनिक अपमान पर मीडिया और अकादमिक जगत दोनों ने लंबे समय से चुप्पी क्यों साध रखी है। राजभाषा विभाग की वेबसाइट की यह स्थिति है कि इसके मुख्य पृष्ठ पर 'अधीनस्थ' और 'अधिनस्थ' दोनों वर्तनियों का प्रयोग हुआ है, जबकि सही वर्तनी 'अधीनस्थ' है। यह विभाग जिस गृह मंत्रालय के अंतर्गत काम करता है उसकी वेबसाइट के मुख्य पृष्ठ पर 'महत्व' को 'महत्वज' लिखा गया है। वर्तनी की एकरूपता का यह हाल है कि एक जगह 'केंद्रीय' और दूसरी जगह 'केन्द्रीय' वर्तनी का प्रयोग हुआ है। वर्तनी की अशुद्धियों को देखकर ऐसा लगता है कि यह वेबसाइट हिंदी सीखने वाले विद्यार्थियों को वर्तनी की अशुद्धियाँ खोजने का अभ्यास कराने के लिए बनाई गई है। अगर आपको किसी वेबसाइट के एक ही पृष्ठ पर 'मुख्यो', 'मुख्यत', 'मुख्यन', 'विभिन्न्', 'व्येय', 'अधीनस्थर', 'व्ययवस्थाग, 'प्रस्तुयत' जैसी अशुद्धियाँ देखने को मिलें तो आप उस वेबसाइट के बारे में क्या सोचेंगे?

हमें इस बात की अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि प्रधानमंत्री और नई सरकार के भाषा संबंधी कदमों के पक्ष-विपक्ष में दिए जाने वाले तमाम तर्कों में रोज़गार, भारतीय भाषाओं में मौलिक लेखन जैसी बातें सिरे से गायब हैं। न तो जयललिता तमिल में रोज़गार के नए अवसर पैदा करके हिंदी के तथाकथित वर्चस्व को चुनौती देती नज़र आती हैं न हिंदी के विकास की बात करने वाले सरकारी अधिकारी और नेता इसे रोज़गार की भाषा बनाने की कोई ठोस योजना सामने रख रहे हैं। अगर हमारे प्रधानमंत्री विदेश यात्रा के दौरान हिंदी में बात करते हैं तो इससे भारत में हिंदी की दयनीय स्थिति पर कोई खास असर नहीं पड़ता है। इस बात की तरफ़ बहुत कम लोगों का ध्यान जा रहा है कि हिंदी समेत तमाम भारतीय भाषाओं को सुनियोजित ढंग से भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में महत्वहीन बना दिया गया है। उच्च शिक्षा में सामाजिक विज्ञान, मनोविज्ञान जैसे विषयों में भी विद्यार्थियों पर अंग्रेज़ी थोपी जा रही है। विश्वविद्यालयों में हिंदी माध्यम के विद्यार्थियों के साथ दोयम दर्ज़े के नागरिक जैसा व्यवहार किया जाता है। पत्रकारिता में भी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के पत्रकारों को अंग्रेज़ी पत्रकारों की तुलना में बहुत कम वेतन मिलता है। इन मसलों पर ध्यान दिए बगैर केवल प्रतीकात्मक कदम उठाने की कोई सार्थकता नहीं है।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सरकारी विभागों में हिंदी के प्रयोग से संबंधित नियमों का कड़ाई से पालन कराने की बात से हिंदी की रोटी खाने वाले अधिकांश लोगों में अपनी भाषा को लेकर आत्महीनता की भावना पहले से कम हो गई है। हिंदी से जुड़े काम करने वाले लोगों को इस बात की उम्मीद हो रही है कि अब उनके बौद्धिक श्रम का महत्व समझा जाएगा। लेकिन तथ्यों की पड़ताल करने के बाद हमें पता चलता है कि इस उम्मीद की बुनियाद बहुत कमज़ोर है। राजभाषा हिंदी का दायरा इतना छोटा है कि उसमें हिंदी जगत की वास्तविक समस्याओं और आकांक्षाओं के लिए कोई जगह नहीं है। जब तक सरकार हिंदी की वास्तविक समस्याओं पर ध्यान नहीं देती, तब तक गलत उम्मीद पाले रखना ठीक नही होगा। हिंदी में न तो स्तरीय कोश हैं न संदर्भ ग्रंथ। सरकारी व अकादमिक प्रकाशनों में भी न तो वर्तनी की एकरूपता का ध्यान रखा जाता है न व्याकरण का। मीडिया में लिखित हिंदी को बोली का रूप देने की साज़िश रची जा रही है और इसका मुकाबला करने के लिए सरकार ने कोई रणनीति नहीं बनाई है। इस बात को झुठलाने की कोशिश की जा रही है कि समय के साथ बदलती भाषा में भी नियमों की प्रासंगिकता हमेशा बनी रहती है क्योंकि नियमों के बिना पत्रिका, किताब, शोध पत्र आदि में विचारों को सुव्यवस्थित ढंग से व्यक्त करना संभव ही नहीं होता। जिस दिन हिंदी में 'द शिकागो मैनुअल ऑफ़ स्टाइल' जैसी कोई किताब पत्रकारों के लिए अनिवार्य संदर्भ ग्रंथ का दर्ज़ा हासिल कर लेगी, उस दिन हिंदी के विकसित भाषा होने पर मुहर लग जाएगी। अभी हिंदी जिस भाषाई अराजकता का सामना कर रही है उसे देखते हुए इसे ज्ञान की भाषा बनाने की चुनौती सचमुच बहुत कठिन लगती है।

भाषा के मसले पर होने वाली तमाम बहसों में इस तथ्य की अनदेखी कर दी जाती है कि अनुवाद के क्षेत्र पर समुचित ध्यान देकर लाखों लोगों की रोज़ी-रोटी का इंतज़ाम किया जा सकता है। एक अनुमान के मुताबिक वर्ष 2018 तक अनुवाद का अंतरराष्ट्रीय बाज़ार लगभग 22 खरब रुपये का हो जाएगा। इतने बड़े बाज़ार पर सरकार ने अभी तक कितना ध्यान दिया है यह तो आपको सरकारी विभागों की कार्यशैली से पता चल गया होगा। अमेरिका में अनुवाद तेजी से उभरते पेशों की अग्रिम पंक्ति में जगह बना चुका है। स्वतंत्र अनुवादकों ने अनुवाद को ज्ञान की शाखा और पेशे के रूप में एक अलग पहचान दिलाई है। एशिया में भी अनुवाद के बाज़ार का विस्तार हो रहा है। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए सरकार को स्तरीय वेबसाइटों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए एक ऐसा तंत्र विकसित करना चाहिए जिसमें अनुवादकों को अपर्याप्त पारिश्रमिक देने वाली अनुवाद एजेंसियों की कोई भूमिका नहीं रहे। स्वतंत्र अनुवादकों को सरकार के लिए सीधे काम करने का अवसर मिलना चाहिए। इसके लिए सरकारी विभागों में अनुवाद की न्यूनतम दर भी तय कर देनी चाहिए। हिंदी समेत तमाम भारतीय भाषाओं में अनुवाद को प्रोत्साहित करने की ज़रूरत है। भारतीय भाषाओं में नौकरी के लाखों अवसर पैदा किए जा सकते हैं। अगर सरकार यह ठान ले कि प्रशासन, न्यायपालिका आदि में अंग्रेज़ी के बदले स्थानीय भाषाओं में ही काम कराया जाएगा तो न जाने कितने बेरोज़गारों को काम मिल जाएगा।

अगर सरकार हिंदी और भारतीय भाषाओं के भविष्य के प्रति सचमुच चिंतित है तो उसे इन भाषाओं को रोज़गार से जोड़ने की कोशिश करनी चाहिए। शासक वर्ग अंग्रेज़ी को ही ज्ञान घोषित करने की कोशिश कर रहा है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भाषा को ज्ञान या विचार की अभिव्यक्ति का साधन मानना ही सही है। इसे ज्ञान मानना गलत होगा, लेकिन शासक वर्ग को अपने हित साधते समय सही-गलत की परवाह नहीं रहती है। इस भेदभाव को खत्म किए बिना केवल भाषा के सम्मान की प्रतीकात्मक राजनीति से किसी को कुछ हासिल नहीं होगा।