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शनिवार, 11 जनवरी 2014

प्रशासन को अंग्रेजी क्यों चाहिए? (समयांतर से साभार)

दिल्ली उच्च न्यायालय में अगस्त के मध्य में एक जनहित याचिका पर सुनवाई शुरू हुई। याचिका में कहा गया है कि संघीय लोकसेवा आयोग द्वारा सिविल सेवाओं की परीक्षा में अंग्रेजी को अनिवार्य कर दिए जाने के कारण अपनी मातृभाषाओं के माध्यम से इन परीक्षाओं में बैठनेवालों को नुकसान हुआ है। इसलिए याचिका में मांग की गई है कि इस निर्णय को खारिज कर दिया जाए।

संघीय सेवा अयोग ने अपने जवाब में कहा कि अंग्रेजी को लागू करने का फैसला विशेषज्ञों के एक पैनल की सिफारिश पर किया गया है। अयोग के वकील का यह भी कहना था कि चूंकि यह नीतिगत मसला है इसलिए यह न्यायिक समीक्षा के क्षेत्र में नहीं आता है। अगली सुनवाई 19 सितंबर को होगी।

संघीय लोक सेवा आयोग ने यह निर्णय गत वर्ष जून से लागू कर दिया था। सिविल सेवा की परीक्षा में किए गए इन परिवर्तनों से होनेवाले नकारात्मक परिणामों का अनुमान लगाना तब भी मुश्किल नहीं था। (देखें ‘अंग्रेजी का वर्चस्व’, समयांतर जुलाई 2011) पर आश्चर्य की बात यह है कि इस पर न तो हिंदी और न ही प्रादेशिक मीडिया ने और न ही राज्य सरकारों ने किसी तरह की आपत्ति की। हिंदी मीडिया की स्थिति यह है कि इस जनहित याचिका के बारे में दिल्ली के शायद ही किसी अखबार या चैनल ने कुछ छापना या किसी तरह का समाचार देना तक जरूरी समझा हो, जबकि अंग्रेजी के एक राष्ट्रीय अखबार में यह समाचार प्रथम पृष्ठ पर था।

हाशिये के वर्गों को भाषा का मसला सबसे ज्यादा प्रभावित करता है। पर दलितों और पिछड़ी जातियों के अधिकारों के लिए लडऩेवाले तथाकथित राजनीतिक दलों के लिए यह कभी भी चिंता का कारण नहीं रहा है। उनकी सारी चिंता कुल मिला कर सत्ता में हिस्सेदारी करने तक सीमित है। ये इस बात को समझने को तैयार ही नहीं हैं कि भाषा का सवाल मूलत: वृहत्तर समाज के विकास का सवाल भी है। कुछ दलित चिंतकों की हालत तो यह है कि वह सारे दलित समुदाय को रातों-रात अंग्रेजी सिखा देने के फेर में हैं। जिस देश में आम जनता को अपनी भाषा में शिक्षा की सुविधा उपलब्ध न हो उसमें अंग्रेजी की बात करना किस तरह की बेहूदगी है समझा जा सकता है। पर मसला इतना सीधा नहीं है। अंग्रेजी दलित एलीट को भी उतनी ही रास आती है जितनी की उच्च वर्णवालों को।

यही हाल नारीवादी संगठनों का है। जिस तरह से हमारे समाजों में लड़कियों पर बंदिश है और उन्हें लड़कों की तुलना में घटिया शिक्षा दी जाती है वे अंग्रेजी में सामान्यत: पुरुषों से मुकाबला नहीं कर सकतीं। पर नारीवादी संगठनों को लगता ही नहीं कि यौनिकता से आगे भी ऐसे कई सवाल हैं जो महिलाओं के सशक्तीकरण से आधारभूत रूप से जुड़े हैं। अगर 2002 से 2011 के नौ वर्षों में महिला उम्मीदवारों की संख्या में आठ प्रतिशत गिरावट आई है तो आती रहे। यह उनका सरोकार नहीं है। वैसे यह भी असंभव नहीं कि ये सवाल उन महिलाओं को प्रभावित करते ही न हों जिस वर्ग से नारीवादी आंदोलन का नेतृत्व आता है।

जहां तक भारत सरकार का सवाल है उसके लिए हिंदी एक संवैधानिक औपचारिकता के अलावा और कुछ नहीं है जिसे वह हर वर्ष हिंदी दिवस माना कर पूरा कर देती है। अगर उसका कोई सरोकार भारतीय भाषाओं के प्रति होता तो वह यह कदापि न करती। उसने जिस तरह से इन्हें लागू किया है वे इस बात के स्पष्ट संकेत हैं कि वह सारी सरकारी मशीनरी को उन सभी तत्वों की पहुंच से बाहर कर देना चाहती है जो समाज के गरीब, पिछड़े और ग्रामीण क्षेत्रों की पृष्ठभूमि से आते हैं। इसका परिणाम भी तत्काल सामने आने लगा है।

नयी व्यवस्था के तहत आईएएस, आईएफएस और आईपीएस आदि परीक्षाओं के एप्टीट्ड टेस्ट (अभिक्षमता परीक्षण) जो पहले प्रीलिमिनेरी या प्रारंभिक परीक्षा कहलाती थी उसमें अंग्रेजी को अनिवार्य कर दिया गया है और भारतीय भाषाओं को बाहर। जबकि पहले अंग्रेजी के ज्ञान को मुख्य यानी दूसरी परीक्षा में जांचा जाता था। इसका नतीजा क्या हुआ है इसे जुलाई के अंत में अंग्रेजी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित रिपोर्ट से जाना जा सकता है। रिपोर्ट के अनुसार 2009 और 2010 के बीच ग्रामीण क्षेत्रों से इन सेवाओं में आनेवाले उम्मीदवारों में लगभग 19 प्रतिशत की गिरावट हुई है। इसी तरह स्त्रियों की भागीदारी में भी गिरावट है।

गोकि अभी यह हिंदी पट्टी में उतने व्यापक पैमाने पर नजर नहीं आ रहा है जितना कि ग्रामीण बनाम शहरी प्रतिशत में इस पर भी उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश का प्रतिशत अपनी जनसंख्या के अनुपात में गिरने लगा है। राजस्थान में (संभवत: आरक्षण के कारण जिसके तहत एक जनजाति का केंद्रीय और राज्य सेवाओं में लगभग वर्चस्व हो चुका है) और बिहार में अभी स्थिति ठीक-ठाक है पर वहां भी यह असर जल्दी ही नजर आने लगेगा। गुजरात जैसे राज्य में जहां अंग्रेजी का बोलबाल वैसा नहीं है जैसा कि अन्य राज्यों में नजर आता है, वहां स्थिति के तब तक, जब तक कि राज्य अंग्रेजी को बड़े पैमाने पर नहीं अपना लेता, स्थिति का और खराब होना लगभग अनिवार्य है।

यह बात चकित करनेवाली है कि आखिर ऐसे देश में जहां आज भी कम से कम 40 प्रतिशत जनता निरक्षर हो और दो-तिहाई से भी ज्यादा जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में रहती हो, जहां पांच प्रतिशत लोग भी अंग्रेजी न जानते हों, वहां अंग्रेजी का ऐसा क्या महत्त्व है कि जिसके बिना काम ही न चल सके। अंतत: प्रशासन का मतलब आम जनता की जरूरतों को समझना और उनका समाधान करना है। जो नौकरशाही, और भारतीय नौकरशाही तो अपनी औपनिवेशिक पृष्ठभूमि के कारण पहले ही अपनी ऊंची नाक के लिए चर्चित है, जनता से अपनी दूरी के लिए बदनाम हो, उसे एक और ऐसे उपकरण से सन्नद्ध कर देना जो इस दूरी को मजबूत करे, कहां तक जायज है?

यह किसी से छिपा नहीं है कि हमारे देश में भाषा के माध्यम से आम जनता को ज्ञान और सत्ता से दूर रखने की लंबी परंपरा रही है। कोई भी लोकतंत्र तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक कि सत्ता में आम आदमी की भागीदारी न हो। और यह भागीदारी ज्ञान और प्रशासन में बिना जन भाषा के इस्तेमाल के संभव नहीं है।

हमारी तथाकथित लोकतांत्रिक सरकार या कहें शासक-वर्ग जिस तरह से वर्ग भेद को बढ़ाने में लगा है, वह डरावना है। इस तरह से शासक वर्ग यही नहीं कि सत्ता और प्रशासन में सीधे-सीधे आम जनता की भागीदारी को घटाने की कोशिश कर रहा है बल्कि सत्ता के महत्त्वपूर्ण पदों को उच्चवर्ग के लिए सुरक्षित करने में भी लगा है। इसका एक और भयानक नतीजा यह होनेवाला है कि दलित और पिछड़े वर्गों में आरक्षण का जो लाभ है वह सिर्फ उन तक सीमित हो जाएगा जो पहले से इसका लाभ उठा चुके हैं। यह भी किसी से छिपा नहीं है कि आरक्षण के समाज के नीचे के तबके तक न पहुंचने के कारण दलितों में एक एलीट तबका बन गया है और उसका हित याथास्थिति को बनाए रखने में उच्च वर्णों से अलग नहीं है।

निश्चय ही इसके दूरगामी परिणाम होंगे। यह पिछड़े लोगों के पिछड़ेपन को और बढ़ाएगा तथा अधिकार संपन्न लोगों को और मजबूत करेगा। यह बात और है कि इससे गहराते सामाजिक असंतोष को बढ़ावा ही मिलेगा।

दुनिया का कोई भी ऐसा देश जिसे अपने समाज में बदलाव लाना है और प्रगति करनी है, विदेशी भाषा पर निर्भर नहीं रह सकता। विशेषकर ऐसा देश जो लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करता हो किसी भी दशा में शासन और ज्ञान की भाषा के लिए जनता की भाषा की जगह औपनिवेशिक भाषा का इस्तेमाल नहीं कर सकता। कोई भी ऐसा देश जिसे अपने आत्मसम्मान का खयाल है इस तरह से विदेशी भाषा का भक्त नहीं हो सकता जिस तरह से भारतीय शासक वर्ग है। आप चीन, जापान, कोरिया के अलावा रूस, जर्मनी, फ्रांस, इटली, स्पेन की तो बात ही छोड़ें योरोप का छोटे से छोटा देश फिर चाहे वह स्वीडन हो या ग्रीस या पोलैंड या लुथवानिया सब की अपनी भाषा है। क्या यह अचानक है कि किसी भी योरोपीय देश की भाषा विदेशी भाषा नहीं है और लगभग हर उपनिवेश रहे देश की भाषा अपने पूर्व शासित की भाषा है?

किसी देश के विकास के लिए 67 वर्ष का समय कम नहीं होता। अगर हमने जरा भी कोशिश की होती तो प्रशासन, ज्ञान व संपर्क भाषा के सवाल को कब का सुलझा लिया होता पर हमारे शासकों को इस सवाल को उलझाए रखना ही श्रेयस्कर लगा और उन्होंने तथाकथित वैश्विक भाषा का हव्वा खड़ा कर इसे अपने निहित स्वार्थों को अक्षुण्ण बनाए रखने का, जातिवाद के बाद, एक नया रास्ता बना लिया। अंग्रेजी के तथाकथित अंतर्राष्ट्रीय और ज्ञान की भाषा होने का तर्क कितना बोदा है इसका सबसे बड़ा जवाब यह है कि अगर अंग्रेजी इतनी ही जरूरी है तो फिर छोटे से छोटे योरोपीय देश में यह भाषा क्यों नहीं है? फ्रांस, जर्मनी और रूस क्या हम से कम अंतर्राष्ट्रीय और पिछड़े हैं – वैज्ञानिक या सामाजिक प्रगति, किसी में भी? अंग्रेजी की महानता का गीत असल में मानसिक गुलामी का गीत होने के अलावा स्वार्थ का गीत भी है। अंग्रेजी का लगातार विस्तार कर और उसे सरकारी प्रश्रय देकर इस मिथक को मजबूत किया जा रहा है कि भारतीय भाषाएं इस काबिल हैं ही नहीं कि वे ज्ञान और प्रशासन की भाषा बन पाएं। इसका कारण यह है कि हमारे शासक वर्ग और सत्ताधारियों ने यह समझ लिया है कि एक ऐसी भाषा, जो आम आदमी नहीं समझता, उसे बोलना और उसमें काम करना, शासक वर्ग को विशिष्ट तो बनाता ही है जनता को सत्ता से दूर रखने का काम भी प्रभावशाली ढंग से करता है। सबसे बड़ी बात यह है कि सत्ता और उससे जुड़े सीमित पदों को अपने लिए सुरक्षित कर लेना।

लेखक: पंकज बिष्ट

समयांतर से साभार

शनिवार, 9 नवंबर 2013

धाय मां अंग्रेजी ('मूक आवाज़' जर्नल में प्रमोद मीणा का संपादकीय)

मातृ देवी अंग्रेजी के प्रतिष्ठापक दलित स्तंभकार चंद्रभान प्रसाद की भाषा विषयक मान्यताएं विवादास्पद रही हैं किंतु असहमति को स्वीकृति प्रदान करना किसी भाषा भाषी समाज की जीवंतता और बड़प्पन का प्रतीक होना चाहिए। अस्तु, गुजराती के दलित कवि नीरव पटेल इस बहस में हिस्सा लेते हुए अपनी मातृभाषा गुजराती को अलविदा कहकर ‘धाय मां’ अंग्रेजी के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। उनकी यह स्थापना 2012 में गुजराती लेखक मंडल के जॉर्नल में उठाये गये इस प्रश्न के अप्रकाशित जबाव में आई है कि गुजराती वास्तव में किसकी भाषा है? यथार्थ में बात असल में यह है कि गुजराती भाषा की मानकता को लेकर चिंतित बौद्धिक-साहित्यिक जगत को इस बात पर आपत्ति है कि अल्प शिक्षित, ग्रामीण और निचली जातियों के लेखकों की कलम से भाषाई प्रदूषण फैल रहा है। मातृभाषा गुजराती की मानकता इस प्रकार के (दलित) लेखन से खंडित हो रही है। किंतु पटेल मातृभाषा की सार्वभौमिक अवधारणा पर ही प्रश्न चिन्ह खड़ा करते हैं। चाहे कोई भी भाषा हो, वह अपने बोलने वाले लोगों के मन में एक सदृश्य सम्मान का भाव नहीं जगा सकती। जाति-वर्ण में विभाजित भारतीय भाषाओं के संदर्भ में तो यह तथ्य और भी सटीक ठहरता है। अब दलित साहित्यकार के समक्ष इसमें कोई संदेह नहीं रह गया है कि मुख्यधारा की भारतीय भाषाएं दलितों के प्रति द्वेष भाव रखती आई हैं और इनके बरक्स सवर्ण जातीय संस्कृति से इन भाषाओं की सांठगांठ रही है। भाषा के मानकीकरण और शुद्धिकरण की मुहिम में ये भाषाएं दलितों और आदिवासियों से स्वयं को और दूर करती जाती हैं। दलित और आदिवासी जो भाषा बोलते हैं, उनके दुख-दर्द और पीड़ा जिस भाषा में मुखरित होते हैं, वह संस्कृतनिष्ठ मानक भाषा नहीं होती। दलित जातियों की भाषाएं उनके पेशों, मौखिक परंपराओं, उनके श्रम से विकसित उत्पादक वर्गों की भाषाएं हैं जबकि मानक भारतीय सुसंस्कृत भाषाएं परजीवी वर्ग की भाषाएं हैं। इन भाषाओं के साथ दलितों के उत्पीड़न-शोषण की जातीय स्मृतियां जुड़ी हुई हैं। पटेल अपनी मातृभाषा गुजराती के संदर्भ में इन मानक भारतीय भाषाओं के विपक्ष में दो तर्क विशेषतः देते हैं। एक तो उनका कहना है कि मानक भारतीय भाषाओं में दलित-आदिवासी जातियों का शोषित-वंचित यथार्थ नहीं झलकता और दूसरे इन मानक भाषाओं को सीखना एक दलित बालक के लिए उतना ही श्रमसाध्य है जितना कि एक विदेशी भाषा अंग्रेजी को ग्रहण करना। पटेल यह भी जोड़ते हैं कि चूंकि उनकी मातृभाषा मानक गुजराती नहीं है अतः स्वयं को सच्चा गुजराती साबित करने के लिए उनके लिए यह अपेक्षित है कि अपनी इस अमानक मातृभाषा का त्याग करें किंतु ऐसा करने पर उनकी दलित अस्मिता भी संकट में पड़ जायेगी क्योंकि मानक गुजराती एक संस्कृतनिष्ठ भारतीय भाषा है जिसका मूल चरित्र ही वर्णाश्रम व्यवस्था का पोषक रहा है। ऐसे में अगर कोई नई भाषा सीखनी ही है, तो दलित को अंग्रेजी सीखनी चाहिए क्योंकि वह अधिकारों की अंतर्राष्ट्रीय भाषा है। अंग्रेजी अस्पृश्यों-शोषितों के लिए न्याय और सशक्तिकरण की भाषा है। पटेल अंग्रेजी को धन्यवाद देते हैं कि उसने उन्हें वैज्ञानिक दृष्टिकोण दिया और उन्हें दमन-वंचना से मुक्ति की राह दिखाई। मानक भारतीय भाषाओं द्वारा दलितों-आदिवासियों की दोयम स्थिति पर ओढ़े गये मौन की परतों के नीचे उत्पीड़ितों का करूण कोलाहल दबा हुआ है। आप उच्च जातियों और उनकी मानक गुजराती (अन्य मानक भारतीय भाषाएं भी) के मध्य विद्यमान दुरभिसंधि की ओर साफ इशारा करते हैं जहां दलित और आदिवासी बारंबार स्वयं को बेगाना और अन्य महसूस करता है। मानक गुजराती या अन्य किसी मानक भारतीय भाषा की संस्कृतनिष्ठ बोझिलता और वर्चस्वशील प्रकृति के बरक्स अंग्रेजी अगर आज दलितों को अपनी ओर आकर्षित कर रही है, तो उसका कारण सिर्फ संस्कृत के ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक साये से मुक्त होने की चाह मात्र नहीं है अपितु इसकी पृष्ठभूमि में है - जातिविहीन आधुनिक अंग्रेजी भाषा के खुले आकाश में मध्ययुगीन सामंती जातीय जकड़बंदियों से मुक्त हो अपनी योग्यता और दमखम के साथ उड़ान भरने का खुला विकल्प। भारतीय राष्ट्रवाद के किंचित दक्षिणपंथी स्वघोषित प्रवक्ता अंग्रेजी को विदेशी उपनिवेशवाद की भाषा कहकर इस भाषा के प्रति आस्थावान दलितों को राष्ट्रदोही कहने से भी नहीं चूकते। इसमें कोई दो राय नहीं कि अंग्रेजी साम्राज्यवादी सत्ता की राजभाषा रही है किंतु श्वेत मालिकों की इस भाषा के साथ आप सर्वत्र भारतीय महानगरीय आभिजात्य तबके को आलिंगनबद्ध होते देख सकते हैं। लेकिन हम इतिहास का आंचल पकड़ कर अपनी दासता का रोना लेकर कब तक बैठे रह सकते हैं। आज अंग्रेजी भूमंडलीय अर्थव्यवस्था से जुड़ने और उसके फायदों को समेटने की ‘मास्टर चाबी’ है। भारतीय राष्ट्रवाद की शव साधना में दलित बच्चे ही अपने भविष्य की बलि देने को क्यों बाध्य किये जाते हैं? एक ओर उच्च जातियों और उच्च वर्गों के बच्चों के लिए अंग्रेजी माध्यम के सर्वसुविधा संपन्न पब्लिक स्कूल खोले जा रहे हैं, दूसरी ओर दलित और आदिवासी बच्चों को मातृभाषा में शिक्षा देने के आदर्श की आड़ में सरकारी विद्यालयों में उन पर संस्कृतनिष्ठ ब्राह्मणवादी भाषाएं लादी जा रही हैं। और यह सब हो रहा है उच्च जातीय भाषाई अध्यापकों की रोजी-रोटी को बचाये रखने के लिए, अकुशल साक्षर दलित-आदिवासी श्रमिकों का उत्पादन करने के लिए ताकि उन्हें कारखानों और खेतों में झौंका जा सके।

साहित्यिक हलकों में बहुधा अंग्रेजी के बारे में कहा जाता है कि यह एक बाहरी भाषा है अतः भारत की क्षेत्रीय और स्थानीय पहचान इसमें नहीं उभर सकती। औपनिवेशिक काल में इस फिरंगी भाषा ने अंग्रेजी सत्ता के हितों के संवर्धन का कार्य किया था। अंग्रेजी के नस्लीय चरित्र से भी इंकार नहीं किया जा सकता। किंतु दूसरी ओर क्षेत्रीयता, धर्म और जातीयता की क्षुद्रताओं से ऊपर उठकर यह सभी भारतीयों को समान अवसर उपलब्ध कराती है। एक ओर इसके वर्गीय चरित्र को बहुसंख्यक गरीब भारतीयों की पहुंच से बाहर बताया जाता है, तो दूसरी ओर अंतर्राष्ट्रीय भाषा होने के कारण विश्वस्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का माध्यम भी यही है। इसप्रकार इस भाषा को लेकर परस्पर विरोधी दृष्टिकोण समाज में साफ देखे जा सकते हैं। इन किंतु-परंतु के बावजूद दलित साहित्य अपने दरवाजे खोलकर अंग्रेजी के स्वागत में अपने पलक-पांवड़े बिछाये नजर आता है। विभिन्न भारतीय भाषाओं में लिखित दलित लेखकों की आत्मकथाओं के अंग्रेजी अनुवादों को पाठक वर्ग द्वारा हाथों-हाथ लिया जा रहा है। अंग्रेजी और तुलनात्मक साहित्य के विभागों में ये आत्मकथाएं पाठ्यक्रम का हिस्सा तक बनने लगी हैं। देशी-विदेशी विश्वविद्यालयों में भारतीय समाज की जड़ों तक जाने के लिए इन्हें अध्ययन का विषय बनाया जा रहा है। अंग्रेजी प्रकाशकों के लिए आज दलित साहित्य का अनुवाद छापना मुनाफे का सौदा बना हुआ है। शरण कुमार लिंबाले की मराठी आत्मकथा ‘अक्करमाशी’ हो या बामा की तमिल आत्मकथा ‘करूक्कु’ या फिर बलदेव माधोपुरी की पंजाबी आत्मकथा ‘छांग्या रूख’, ये सभी आज अंग्रेजी के माध्यम से अपने भाषाई क्षेत्र विशेष से बाहर निकलकर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तरों पर सराही जा रही हैं। अंग्रेजी ने दलित लेखकों के लिए पाठकों का एक व्यापक क्षितिज खोल दिया है। अनुवाद के माध्यम से अंग्रेजी ने दलित-आदिवासी लेखन और उनके समुदायों को आपबीती सुनाने का एक वैश्विक मंच मुहैया कराया है। परिधि पर स्थिति इन लेखकों को मुख्यधारा के साहित्य में परंपरागत सौंदर्य प्रतिमानों पर खड़ा न उतरने की कीमत गुमनामी में रहकर चुकानी पड़ती है। जातीय पूर्वाग्रहों के चलते उनके साहित्य को नकारने की प्रवृत्ति भी आम रही है। उदाहरण के लिए मराठी-हिंदी-तमिल की जातीयता की तुलना में सामाजिक-राजनीतिक कारणों के चलते गुजराती भाषाभाषी कहीं ज्यादा संकीर्ण और अनुदार मानसिकता के रहे हैं। और यही कारण है कि गुजराती के साहित्यिक परिदृश्य में दलित कलम को स्वीकृति का खाद-पानी मिल ही नहीं पाया। इसप्रकार की जड़ता की स्थिति में अंग्रेजी भाषा स्थानीय जातीवादी राजनीति का मुकाबला करने में दलित लेखन का सहारा बन सकती है। अंग्रेजी दलित लेखन को एक अखिल भारतीय पहचान दिलाने के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय सम्मान-पुरस्कार भी उसकी झोली में डालने की कुव्वत रखती है।

एक ओर अंग्रेजी अनुवाद से दलित लेखन को इतना मान-सम्मान और व्यापक पहचान उपलब्ध हो रही है, वहीं स्वयं अंग्रेजी भाषा भी इसप्रकार के अनुवाद से संपन्न हो रही है। उसके भारतीय वर्ग चरित्र में भी शनैः शनैः बदलाव आ रहा है। जिस अंग्रेजी को कल तक उच्च तबके के आभिजात्य दायरे तक सीमित माना जाता था और जिसमें भारतीय खुरदरे यथार्थ की तुलना में पोपुलर बैस्ट सेलर की घटिया पुस्तकें ही बिकती थीं, आज वह दलित-श्रमजीवी वर्ग के जातीय मुहावरों को विकसित कर रही है। यह अंग्रेजी दलित अभिव्यक्ति अपनी सीमाएं और मापदंड स्वयं तय कर रही है। आधुनिकता की जो भारतीय परियोजना जाति जैसी युगों पुरानी संस्था के अड़ियलपन के कारण अधूरी रह गयी थी, आज उस परियोजना को अपने अंजाम तक पहुंचाने में शासक वर्ग की भाषा अंग्रेजी के चरित्र में आ रहा यह बदलाव महत्वपूर्ण साबित हो सकता है। किंतु दलित साहित्य अंग्रेजी के सामने एक बड़ी चुनौति भी पेश कर रहा है। खांडे की धार पर लिखे जाने वाले दलित साहित्य में भाषा की जो धार और घुटन-पीड़ा-आंसू का जो खार होता है, अनुभति और अभिव्यक्ति का जो खड़ापन होता है, वह सात समंदर पार जन्मी व्यापारियों की भाषा में ज्यों का त्यों आ पाना लगभग असंभव ही है। दलित उत्पीड़न के सांस्कृतिक प्रतीकों और पददलित अस्मिता की ऊबड़-खाबड़ व्यंजनाओं के पर्यायवाची साहिबों की भाषा रही अंग्रेजी में आपको नहीं मिल सकते। किंतु इस भाषाई विकलांगता ने ही अंग्रेजी को मजबूर किया कि वह दलितों की अस्पृश्य भाषाओं की इन अभिव्यक्तियों को उनके पूरे भदेसपन के साथ गले लगाये। उदाहरण के लिए दलित आत्मकथाओं के अंग्रेजी अनुवादों में ‘अक्करमाशी’, ‘करूक्कु’ और ‘छांग्या रूख’ जैसी संज्ञाएं अपने मूलरूप में ही आती हैं। स्पष्ट है कि दलित साहित्य के लिए अंग्रेजी आगे बढ़ने की एक सीढ़ी अवश्य है किंतु वह अपनी शर्तों पर इस भाषा को अनुवाद की स्वीकृति प्रदान कर रहा है। किंतु चूंकि दलित साहित्य का मूल चारित्रिक वैशिष्ट्य उसकी भाषा में निहित है अतः अगर दलित कलम कल अंग्रेजी में ही सीधे स्वयं को अभिव्यक्त करने लगे, तो यह स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने सरीखा ही होगा।

‘हंस’ के माध्यम से प्रेमचंद की परंपरा और विरासत को आगे ले जाने वाले राजेंद्र यादव अक्टूबर के अंतिम सप्ताह में हमेंशा के लिए अलविदा कह गये। नयी कहानी आंदोलन की नेतृत्व त्रयी की यह अंतिम मशाल भी बुझ जाने से हिंदी साहित्य जगत में जो अंधेरा व्याप्त हो गया है, उससे इस दीपावली का अंधेरा और ज्यादा खरेगा। यद्यपि राजेंद्र यादव पिछले कुछ समय से अस्वस्थ थे किंतु किसी को यह आशंका न थी कि आप यों अचानक इतनी जल्दी रूख़सत कर जायेंगे। दो टूक बिना लाग लपेट के खरी-खरी कहने की अपनी प्रवृति के चलते राजेंद्र जी अपने पूरे जीवन विवादों के बीच रहे। लेकिन इन विवादों और बहसों ने हिंदी साहित्य जगत को जो जीवंतता दी है, उसके लिए हिंदी साहित्य सदैव आपका ऋणी रहेगा। तमाम आलोचनाओं के उपरांत भी राजेंद्र यादव ने अपने संपादन में हंस को जो लोकतांत्रिक ऊंचाई प्रदान की, वह हिंदी की भाई-भतीजावादी पत्र-पचिकाओं के मुंह पर एक तमाचे की तरह है। नवोदित लेखकों और विमर्शों के लिए राजेंद्र जी ने सदैव एक राह दिखाई। इसमें कोई दो राय नहीं कि हिंदी में दलित और स्त्री विमर्श वाया राजेंद्र यादव आये हैं। अल्पसंख्यक और आदिवासी साहित्यकारों को भी इधर काफी प्रोत्साहन आप से मिल रहा था।

'मूक आवाज़' जर्नल से साभार