शनिवार, 9 नवंबर 2013

धाय मां अंग्रेजी ('मूक आवाज़' जर्नल में प्रमोद मीणा का संपादकीय)

मातृ देवी अंग्रेजी के प्रतिष्ठापक दलित स्तंभकार चंद्रभान प्रसाद की भाषा विषयक मान्यताएं विवादास्पद रही हैं किंतु असहमति को स्वीकृति प्रदान करना किसी भाषा भाषी समाज की जीवंतता और बड़प्पन का प्रतीक होना चाहिए। अस्तु, गुजराती के दलित कवि नीरव पटेल इस बहस में हिस्सा लेते हुए अपनी मातृभाषा गुजराती को अलविदा कहकर ‘धाय मां’ अंग्रेजी के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। उनकी यह स्थापना 2012 में गुजराती लेखक मंडल के जॉर्नल में उठाये गये इस प्रश्न के अप्रकाशित जबाव में आई है कि गुजराती वास्तव में किसकी भाषा है? यथार्थ में बात असल में यह है कि गुजराती भाषा की मानकता को लेकर चिंतित बौद्धिक-साहित्यिक जगत को इस बात पर आपत्ति है कि अल्प शिक्षित, ग्रामीण और निचली जातियों के लेखकों की कलम से भाषाई प्रदूषण फैल रहा है। मातृभाषा गुजराती की मानकता इस प्रकार के (दलित) लेखन से खंडित हो रही है। किंतु पटेल मातृभाषा की सार्वभौमिक अवधारणा पर ही प्रश्न चिन्ह खड़ा करते हैं। चाहे कोई भी भाषा हो, वह अपने बोलने वाले लोगों के मन में एक सदृश्य सम्मान का भाव नहीं जगा सकती। जाति-वर्ण में विभाजित भारतीय भाषाओं के संदर्भ में तो यह तथ्य और भी सटीक ठहरता है। अब दलित साहित्यकार के समक्ष इसमें कोई संदेह नहीं रह गया है कि मुख्यधारा की भारतीय भाषाएं दलितों के प्रति द्वेष भाव रखती आई हैं और इनके बरक्स सवर्ण जातीय संस्कृति से इन भाषाओं की सांठगांठ रही है। भाषा के मानकीकरण और शुद्धिकरण की मुहिम में ये भाषाएं दलितों और आदिवासियों से स्वयं को और दूर करती जाती हैं। दलित और आदिवासी जो भाषा बोलते हैं, उनके दुख-दर्द और पीड़ा जिस भाषा में मुखरित होते हैं, वह संस्कृतनिष्ठ मानक भाषा नहीं होती। दलित जातियों की भाषाएं उनके पेशों, मौखिक परंपराओं, उनके श्रम से विकसित उत्पादक वर्गों की भाषाएं हैं जबकि मानक भारतीय सुसंस्कृत भाषाएं परजीवी वर्ग की भाषाएं हैं। इन भाषाओं के साथ दलितों के उत्पीड़न-शोषण की जातीय स्मृतियां जुड़ी हुई हैं। पटेल अपनी मातृभाषा गुजराती के संदर्भ में इन मानक भारतीय भाषाओं के विपक्ष में दो तर्क विशेषतः देते हैं। एक तो उनका कहना है कि मानक भारतीय भाषाओं में दलित-आदिवासी जातियों का शोषित-वंचित यथार्थ नहीं झलकता और दूसरे इन मानक भाषाओं को सीखना एक दलित बालक के लिए उतना ही श्रमसाध्य है जितना कि एक विदेशी भाषा अंग्रेजी को ग्रहण करना। पटेल यह भी जोड़ते हैं कि चूंकि उनकी मातृभाषा मानक गुजराती नहीं है अतः स्वयं को सच्चा गुजराती साबित करने के लिए उनके लिए यह अपेक्षित है कि अपनी इस अमानक मातृभाषा का त्याग करें किंतु ऐसा करने पर उनकी दलित अस्मिता भी संकट में पड़ जायेगी क्योंकि मानक गुजराती एक संस्कृतनिष्ठ भारतीय भाषा है जिसका मूल चरित्र ही वर्णाश्रम व्यवस्था का पोषक रहा है। ऐसे में अगर कोई नई भाषा सीखनी ही है, तो दलित को अंग्रेजी सीखनी चाहिए क्योंकि वह अधिकारों की अंतर्राष्ट्रीय भाषा है। अंग्रेजी अस्पृश्यों-शोषितों के लिए न्याय और सशक्तिकरण की भाषा है। पटेल अंग्रेजी को धन्यवाद देते हैं कि उसने उन्हें वैज्ञानिक दृष्टिकोण दिया और उन्हें दमन-वंचना से मुक्ति की राह दिखाई। मानक भारतीय भाषाओं द्वारा दलितों-आदिवासियों की दोयम स्थिति पर ओढ़े गये मौन की परतों के नीचे उत्पीड़ितों का करूण कोलाहल दबा हुआ है। आप उच्च जातियों और उनकी मानक गुजराती (अन्य मानक भारतीय भाषाएं भी) के मध्य विद्यमान दुरभिसंधि की ओर साफ इशारा करते हैं जहां दलित और आदिवासी बारंबार स्वयं को बेगाना और अन्य महसूस करता है। मानक गुजराती या अन्य किसी मानक भारतीय भाषा की संस्कृतनिष्ठ बोझिलता और वर्चस्वशील प्रकृति के बरक्स अंग्रेजी अगर आज दलितों को अपनी ओर आकर्षित कर रही है, तो उसका कारण सिर्फ संस्कृत के ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक साये से मुक्त होने की चाह मात्र नहीं है अपितु इसकी पृष्ठभूमि में है - जातिविहीन आधुनिक अंग्रेजी भाषा के खुले आकाश में मध्ययुगीन सामंती जातीय जकड़बंदियों से मुक्त हो अपनी योग्यता और दमखम के साथ उड़ान भरने का खुला विकल्प। भारतीय राष्ट्रवाद के किंचित दक्षिणपंथी स्वघोषित प्रवक्ता अंग्रेजी को विदेशी उपनिवेशवाद की भाषा कहकर इस भाषा के प्रति आस्थावान दलितों को राष्ट्रदोही कहने से भी नहीं चूकते। इसमें कोई दो राय नहीं कि अंग्रेजी साम्राज्यवादी सत्ता की राजभाषा रही है किंतु श्वेत मालिकों की इस भाषा के साथ आप सर्वत्र भारतीय महानगरीय आभिजात्य तबके को आलिंगनबद्ध होते देख सकते हैं। लेकिन हम इतिहास का आंचल पकड़ कर अपनी दासता का रोना लेकर कब तक बैठे रह सकते हैं। आज अंग्रेजी भूमंडलीय अर्थव्यवस्था से जुड़ने और उसके फायदों को समेटने की ‘मास्टर चाबी’ है। भारतीय राष्ट्रवाद की शव साधना में दलित बच्चे ही अपने भविष्य की बलि देने को क्यों बाध्य किये जाते हैं? एक ओर उच्च जातियों और उच्च वर्गों के बच्चों के लिए अंग्रेजी माध्यम के सर्वसुविधा संपन्न पब्लिक स्कूल खोले जा रहे हैं, दूसरी ओर दलित और आदिवासी बच्चों को मातृभाषा में शिक्षा देने के आदर्श की आड़ में सरकारी विद्यालयों में उन पर संस्कृतनिष्ठ ब्राह्मणवादी भाषाएं लादी जा रही हैं। और यह सब हो रहा है उच्च जातीय भाषाई अध्यापकों की रोजी-रोटी को बचाये रखने के लिए, अकुशल साक्षर दलित-आदिवासी श्रमिकों का उत्पादन करने के लिए ताकि उन्हें कारखानों और खेतों में झौंका जा सके।

साहित्यिक हलकों में बहुधा अंग्रेजी के बारे में कहा जाता है कि यह एक बाहरी भाषा है अतः भारत की क्षेत्रीय और स्थानीय पहचान इसमें नहीं उभर सकती। औपनिवेशिक काल में इस फिरंगी भाषा ने अंग्रेजी सत्ता के हितों के संवर्धन का कार्य किया था। अंग्रेजी के नस्लीय चरित्र से भी इंकार नहीं किया जा सकता। किंतु दूसरी ओर क्षेत्रीयता, धर्म और जातीयता की क्षुद्रताओं से ऊपर उठकर यह सभी भारतीयों को समान अवसर उपलब्ध कराती है। एक ओर इसके वर्गीय चरित्र को बहुसंख्यक गरीब भारतीयों की पहुंच से बाहर बताया जाता है, तो दूसरी ओर अंतर्राष्ट्रीय भाषा होने के कारण विश्वस्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का माध्यम भी यही है। इसप्रकार इस भाषा को लेकर परस्पर विरोधी दृष्टिकोण समाज में साफ देखे जा सकते हैं। इन किंतु-परंतु के बावजूद दलित साहित्य अपने दरवाजे खोलकर अंग्रेजी के स्वागत में अपने पलक-पांवड़े बिछाये नजर आता है। विभिन्न भारतीय भाषाओं में लिखित दलित लेखकों की आत्मकथाओं के अंग्रेजी अनुवादों को पाठक वर्ग द्वारा हाथों-हाथ लिया जा रहा है। अंग्रेजी और तुलनात्मक साहित्य के विभागों में ये आत्मकथाएं पाठ्यक्रम का हिस्सा तक बनने लगी हैं। देशी-विदेशी विश्वविद्यालयों में भारतीय समाज की जड़ों तक जाने के लिए इन्हें अध्ययन का विषय बनाया जा रहा है। अंग्रेजी प्रकाशकों के लिए आज दलित साहित्य का अनुवाद छापना मुनाफे का सौदा बना हुआ है। शरण कुमार लिंबाले की मराठी आत्मकथा ‘अक्करमाशी’ हो या बामा की तमिल आत्मकथा ‘करूक्कु’ या फिर बलदेव माधोपुरी की पंजाबी आत्मकथा ‘छांग्या रूख’, ये सभी आज अंग्रेजी के माध्यम से अपने भाषाई क्षेत्र विशेष से बाहर निकलकर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तरों पर सराही जा रही हैं। अंग्रेजी ने दलित लेखकों के लिए पाठकों का एक व्यापक क्षितिज खोल दिया है। अनुवाद के माध्यम से अंग्रेजी ने दलित-आदिवासी लेखन और उनके समुदायों को आपबीती सुनाने का एक वैश्विक मंच मुहैया कराया है। परिधि पर स्थिति इन लेखकों को मुख्यधारा के साहित्य में परंपरागत सौंदर्य प्रतिमानों पर खड़ा न उतरने की कीमत गुमनामी में रहकर चुकानी पड़ती है। जातीय पूर्वाग्रहों के चलते उनके साहित्य को नकारने की प्रवृत्ति भी आम रही है। उदाहरण के लिए मराठी-हिंदी-तमिल की जातीयता की तुलना में सामाजिक-राजनीतिक कारणों के चलते गुजराती भाषाभाषी कहीं ज्यादा संकीर्ण और अनुदार मानसिकता के रहे हैं। और यही कारण है कि गुजराती के साहित्यिक परिदृश्य में दलित कलम को स्वीकृति का खाद-पानी मिल ही नहीं पाया। इसप्रकार की जड़ता की स्थिति में अंग्रेजी भाषा स्थानीय जातीवादी राजनीति का मुकाबला करने में दलित लेखन का सहारा बन सकती है। अंग्रेजी दलित लेखन को एक अखिल भारतीय पहचान दिलाने के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय सम्मान-पुरस्कार भी उसकी झोली में डालने की कुव्वत रखती है।

एक ओर अंग्रेजी अनुवाद से दलित लेखन को इतना मान-सम्मान और व्यापक पहचान उपलब्ध हो रही है, वहीं स्वयं अंग्रेजी भाषा भी इसप्रकार के अनुवाद से संपन्न हो रही है। उसके भारतीय वर्ग चरित्र में भी शनैः शनैः बदलाव आ रहा है। जिस अंग्रेजी को कल तक उच्च तबके के आभिजात्य दायरे तक सीमित माना जाता था और जिसमें भारतीय खुरदरे यथार्थ की तुलना में पोपुलर बैस्ट सेलर की घटिया पुस्तकें ही बिकती थीं, आज वह दलित-श्रमजीवी वर्ग के जातीय मुहावरों को विकसित कर रही है। यह अंग्रेजी दलित अभिव्यक्ति अपनी सीमाएं और मापदंड स्वयं तय कर रही है। आधुनिकता की जो भारतीय परियोजना जाति जैसी युगों पुरानी संस्था के अड़ियलपन के कारण अधूरी रह गयी थी, आज उस परियोजना को अपने अंजाम तक पहुंचाने में शासक वर्ग की भाषा अंग्रेजी के चरित्र में आ रहा यह बदलाव महत्वपूर्ण साबित हो सकता है। किंतु दलित साहित्य अंग्रेजी के सामने एक बड़ी चुनौति भी पेश कर रहा है। खांडे की धार पर लिखे जाने वाले दलित साहित्य में भाषा की जो धार और घुटन-पीड़ा-आंसू का जो खार होता है, अनुभति और अभिव्यक्ति का जो खड़ापन होता है, वह सात समंदर पार जन्मी व्यापारियों की भाषा में ज्यों का त्यों आ पाना लगभग असंभव ही है। दलित उत्पीड़न के सांस्कृतिक प्रतीकों और पददलित अस्मिता की ऊबड़-खाबड़ व्यंजनाओं के पर्यायवाची साहिबों की भाषा रही अंग्रेजी में आपको नहीं मिल सकते। किंतु इस भाषाई विकलांगता ने ही अंग्रेजी को मजबूर किया कि वह दलितों की अस्पृश्य भाषाओं की इन अभिव्यक्तियों को उनके पूरे भदेसपन के साथ गले लगाये। उदाहरण के लिए दलित आत्मकथाओं के अंग्रेजी अनुवादों में ‘अक्करमाशी’, ‘करूक्कु’ और ‘छांग्या रूख’ जैसी संज्ञाएं अपने मूलरूप में ही आती हैं। स्पष्ट है कि दलित साहित्य के लिए अंग्रेजी आगे बढ़ने की एक सीढ़ी अवश्य है किंतु वह अपनी शर्तों पर इस भाषा को अनुवाद की स्वीकृति प्रदान कर रहा है। किंतु चूंकि दलित साहित्य का मूल चारित्रिक वैशिष्ट्य उसकी भाषा में निहित है अतः अगर दलित कलम कल अंग्रेजी में ही सीधे स्वयं को अभिव्यक्त करने लगे, तो यह स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने सरीखा ही होगा।

‘हंस’ के माध्यम से प्रेमचंद की परंपरा और विरासत को आगे ले जाने वाले राजेंद्र यादव अक्टूबर के अंतिम सप्ताह में हमेंशा के लिए अलविदा कह गये। नयी कहानी आंदोलन की नेतृत्व त्रयी की यह अंतिम मशाल भी बुझ जाने से हिंदी साहित्य जगत में जो अंधेरा व्याप्त हो गया है, उससे इस दीपावली का अंधेरा और ज्यादा खरेगा। यद्यपि राजेंद्र यादव पिछले कुछ समय से अस्वस्थ थे किंतु किसी को यह आशंका न थी कि आप यों अचानक इतनी जल्दी रूख़सत कर जायेंगे। दो टूक बिना लाग लपेट के खरी-खरी कहने की अपनी प्रवृति के चलते राजेंद्र जी अपने पूरे जीवन विवादों के बीच रहे। लेकिन इन विवादों और बहसों ने हिंदी साहित्य जगत को जो जीवंतता दी है, उसके लिए हिंदी साहित्य सदैव आपका ऋणी रहेगा। तमाम आलोचनाओं के उपरांत भी राजेंद्र यादव ने अपने संपादन में हंस को जो लोकतांत्रिक ऊंचाई प्रदान की, वह हिंदी की भाई-भतीजावादी पत्र-पचिकाओं के मुंह पर एक तमाचे की तरह है। नवोदित लेखकों और विमर्शों के लिए राजेंद्र जी ने सदैव एक राह दिखाई। इसमें कोई दो राय नहीं कि हिंदी में दलित और स्त्री विमर्श वाया राजेंद्र यादव आये हैं। अल्पसंख्यक और आदिवासी साहित्यकारों को भी इधर काफी प्रोत्साहन आप से मिल रहा था।

'मूक आवाज़' जर्नल से साभार

 









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