दिल्ली उच्च न्यायालय में अगस्त के मध्य में एक जनहित याचिका पर सुनवाई शुरू हुई। याचिका में कहा गया है कि संघीय लोकसेवा आयोग द्वारा सिविल सेवाओं की परीक्षा में अंग्रेजी को अनिवार्य कर दिए जाने के कारण अपनी मातृभाषाओं के माध्यम से इन परीक्षाओं में बैठनेवालों को नुकसान हुआ है। इसलिए याचिका में मांग की गई है कि इस निर्णय को खारिज कर दिया जाए।
संघीय सेवा अयोग ने अपने जवाब में कहा कि अंग्रेजी को लागू करने का फैसला विशेषज्ञों के एक पैनल की सिफारिश पर किया गया है। अयोग के वकील का यह भी कहना था कि चूंकि यह नीतिगत मसला है इसलिए यह न्यायिक समीक्षा के क्षेत्र में नहीं आता है। अगली सुनवाई 19 सितंबर को होगी।
संघीय लोक सेवा आयोग ने यह निर्णय गत वर्ष जून से लागू कर दिया था। सिविल सेवा की परीक्षा में किए गए इन परिवर्तनों से होनेवाले नकारात्मक परिणामों का अनुमान लगाना तब भी मुश्किल नहीं था। (देखें ‘अंग्रेजी का वर्चस्व’, समयांतर जुलाई 2011) पर आश्चर्य की बात यह है कि इस पर न तो हिंदी और न ही प्रादेशिक मीडिया ने और न ही राज्य सरकारों ने किसी तरह की आपत्ति की। हिंदी मीडिया की स्थिति यह है कि इस जनहित याचिका के बारे में दिल्ली के शायद ही किसी अखबार या चैनल ने कुछ छापना या किसी तरह का समाचार देना तक जरूरी समझा हो, जबकि अंग्रेजी के एक राष्ट्रीय अखबार में यह समाचार प्रथम पृष्ठ पर था।
हाशिये के वर्गों को भाषा का मसला सबसे ज्यादा प्रभावित करता है। पर दलितों और पिछड़ी जातियों के अधिकारों के लिए लडऩेवाले तथाकथित राजनीतिक दलों के लिए यह कभी भी चिंता का कारण नहीं रहा है। उनकी सारी चिंता कुल मिला कर सत्ता में हिस्सेदारी करने तक सीमित है। ये इस बात को समझने को तैयार ही नहीं हैं कि भाषा का सवाल मूलत: वृहत्तर समाज के विकास का सवाल भी है। कुछ दलित चिंतकों की हालत तो यह है कि वह सारे दलित समुदाय को रातों-रात अंग्रेजी सिखा देने के फेर में हैं। जिस देश में आम जनता को अपनी भाषा में शिक्षा की सुविधा उपलब्ध न हो उसमें अंग्रेजी की बात करना किस तरह की बेहूदगी है समझा जा सकता है। पर मसला इतना सीधा नहीं है। अंग्रेजी दलित एलीट को भी उतनी ही रास आती है जितनी की उच्च वर्णवालों को।
यही हाल नारीवादी संगठनों का है। जिस तरह से हमारे समाजों में लड़कियों पर बंदिश है और उन्हें लड़कों की तुलना में घटिया शिक्षा दी जाती है वे अंग्रेजी में सामान्यत: पुरुषों से मुकाबला नहीं कर सकतीं। पर नारीवादी संगठनों को लगता ही नहीं कि यौनिकता से आगे भी ऐसे कई सवाल हैं जो महिलाओं के सशक्तीकरण से आधारभूत रूप से जुड़े हैं। अगर 2002 से 2011 के नौ वर्षों में महिला उम्मीदवारों की संख्या में आठ प्रतिशत गिरावट आई है तो आती रहे। यह उनका सरोकार नहीं है। वैसे यह भी असंभव नहीं कि ये सवाल उन महिलाओं को प्रभावित करते ही न हों जिस वर्ग से नारीवादी आंदोलन का नेतृत्व आता है।
जहां तक भारत सरकार का सवाल है उसके लिए हिंदी एक संवैधानिक औपचारिकता के अलावा और कुछ नहीं है जिसे वह हर वर्ष हिंदी दिवस माना कर पूरा कर देती है। अगर उसका कोई सरोकार भारतीय भाषाओं के प्रति होता तो वह यह कदापि न करती। उसने जिस तरह से इन्हें लागू किया है वे इस बात के स्पष्ट संकेत हैं कि वह सारी सरकारी मशीनरी को उन सभी तत्वों की पहुंच से बाहर कर देना चाहती है जो समाज के गरीब, पिछड़े और ग्रामीण क्षेत्रों की पृष्ठभूमि से आते हैं। इसका परिणाम भी तत्काल सामने आने लगा है।
नयी व्यवस्था के तहत आईएएस, आईएफएस और आईपीएस आदि परीक्षाओं के एप्टीट्ड टेस्ट (अभिक्षमता परीक्षण) जो पहले प्रीलिमिनेरी या प्रारंभिक परीक्षा कहलाती थी उसमें अंग्रेजी को अनिवार्य कर दिया गया है और भारतीय भाषाओं को बाहर। जबकि पहले अंग्रेजी के ज्ञान को मुख्य यानी दूसरी परीक्षा में जांचा जाता था। इसका नतीजा क्या हुआ है इसे जुलाई के अंत में अंग्रेजी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित रिपोर्ट से जाना जा सकता है। रिपोर्ट के अनुसार 2009 और 2010 के बीच ग्रामीण क्षेत्रों से इन सेवाओं में आनेवाले उम्मीदवारों में लगभग 19 प्रतिशत की गिरावट हुई है। इसी तरह स्त्रियों की भागीदारी में भी गिरावट है।
गोकि अभी यह हिंदी पट्टी में उतने व्यापक पैमाने पर नजर नहीं आ रहा है जितना कि ग्रामीण बनाम शहरी प्रतिशत में इस पर भी उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश का प्रतिशत अपनी जनसंख्या के अनुपात में गिरने लगा है। राजस्थान में (संभवत: आरक्षण के कारण जिसके तहत एक जनजाति का केंद्रीय और राज्य सेवाओं में लगभग वर्चस्व हो चुका है) और बिहार में अभी स्थिति ठीक-ठाक है पर वहां भी यह असर जल्दी ही नजर आने लगेगा। गुजरात जैसे राज्य में जहां अंग्रेजी का बोलबाल वैसा नहीं है जैसा कि अन्य राज्यों में नजर आता है, वहां स्थिति के तब तक, जब तक कि राज्य अंग्रेजी को बड़े पैमाने पर नहीं अपना लेता, स्थिति का और खराब होना लगभग अनिवार्य है।
यह बात चकित करनेवाली है कि आखिर ऐसे देश में जहां आज भी कम से कम 40 प्रतिशत जनता निरक्षर हो और दो-तिहाई से भी ज्यादा जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में रहती हो, जहां पांच प्रतिशत लोग भी अंग्रेजी न जानते हों, वहां अंग्रेजी का ऐसा क्या महत्त्व है कि जिसके बिना काम ही न चल सके। अंतत: प्रशासन का मतलब आम जनता की जरूरतों को समझना और उनका समाधान करना है। जो नौकरशाही, और भारतीय नौकरशाही तो अपनी औपनिवेशिक पृष्ठभूमि के कारण पहले ही अपनी ऊंची नाक के लिए चर्चित है, जनता से अपनी दूरी के लिए बदनाम हो, उसे एक और ऐसे उपकरण से सन्नद्ध कर देना जो इस दूरी को मजबूत करे, कहां तक जायज है?
यह किसी से छिपा नहीं है कि हमारे देश में भाषा के माध्यम से आम जनता को ज्ञान और सत्ता से दूर रखने की लंबी परंपरा रही है। कोई भी लोकतंत्र तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक कि सत्ता में आम आदमी की भागीदारी न हो। और यह भागीदारी ज्ञान और प्रशासन में बिना जन भाषा के इस्तेमाल के संभव नहीं है।
हमारी तथाकथित लोकतांत्रिक सरकार या कहें शासक-वर्ग जिस तरह से वर्ग भेद को बढ़ाने में लगा है, वह डरावना है। इस तरह से शासक वर्ग यही नहीं कि सत्ता और प्रशासन में सीधे-सीधे आम जनता की भागीदारी को घटाने की कोशिश कर रहा है बल्कि सत्ता के महत्त्वपूर्ण पदों को उच्चवर्ग के लिए सुरक्षित करने में भी लगा है। इसका एक और भयानक नतीजा यह होनेवाला है कि दलित और पिछड़े वर्गों में आरक्षण का जो लाभ है वह सिर्फ उन तक सीमित हो जाएगा जो पहले से इसका लाभ उठा चुके हैं। यह भी किसी से छिपा नहीं है कि आरक्षण के समाज के नीचे के तबके तक न पहुंचने के कारण दलितों में एक एलीट तबका बन गया है और उसका हित याथास्थिति को बनाए रखने में उच्च वर्णों से अलग नहीं है।
निश्चय ही इसके दूरगामी परिणाम होंगे। यह पिछड़े लोगों के पिछड़ेपन को और बढ़ाएगा तथा अधिकार संपन्न लोगों को और मजबूत करेगा। यह बात और है कि इससे गहराते सामाजिक असंतोष को बढ़ावा ही मिलेगा।
दुनिया का कोई भी ऐसा देश जिसे अपने समाज में बदलाव लाना है और प्रगति करनी है, विदेशी भाषा पर निर्भर नहीं रह सकता। विशेषकर ऐसा देश जो लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करता हो किसी भी दशा में शासन और ज्ञान की भाषा के लिए जनता की भाषा की जगह औपनिवेशिक भाषा का इस्तेमाल नहीं कर सकता। कोई भी ऐसा देश जिसे अपने आत्मसम्मान का खयाल है इस तरह से विदेशी भाषा का भक्त नहीं हो सकता जिस तरह से भारतीय शासक वर्ग है। आप चीन, जापान, कोरिया के अलावा रूस, जर्मनी, फ्रांस, इटली, स्पेन की तो बात ही छोड़ें योरोप का छोटे से छोटा देश फिर चाहे वह स्वीडन हो या ग्रीस या पोलैंड या लुथवानिया सब की अपनी भाषा है। क्या यह अचानक है कि किसी भी योरोपीय देश की भाषा विदेशी भाषा नहीं है और लगभग हर उपनिवेश रहे देश की भाषा अपने पूर्व शासित की भाषा है?
किसी देश के विकास के लिए 67 वर्ष का समय कम नहीं होता। अगर हमने जरा भी कोशिश की होती तो प्रशासन, ज्ञान व संपर्क भाषा के सवाल को कब का सुलझा लिया होता पर हमारे शासकों को इस सवाल को उलझाए रखना ही श्रेयस्कर लगा और उन्होंने तथाकथित वैश्विक भाषा का हव्वा खड़ा कर इसे अपने निहित स्वार्थों को अक्षुण्ण बनाए रखने का, जातिवाद के बाद, एक नया रास्ता बना लिया। अंग्रेजी के तथाकथित अंतर्राष्ट्रीय और ज्ञान की भाषा होने का तर्क कितना बोदा है इसका सबसे बड़ा जवाब यह है कि अगर अंग्रेजी इतनी ही जरूरी है तो फिर छोटे से छोटे योरोपीय देश में यह भाषा क्यों नहीं है? फ्रांस, जर्मनी और रूस क्या हम से कम अंतर्राष्ट्रीय और पिछड़े हैं – वैज्ञानिक या सामाजिक प्रगति, किसी में भी? अंग्रेजी की महानता का गीत असल में मानसिक गुलामी का गीत होने के अलावा स्वार्थ का गीत भी है। अंग्रेजी का लगातार विस्तार कर और उसे सरकारी प्रश्रय देकर इस मिथक को मजबूत किया जा रहा है कि भारतीय भाषाएं इस काबिल हैं ही नहीं कि वे ज्ञान और प्रशासन की भाषा बन पाएं। इसका कारण यह है कि हमारे शासक वर्ग और सत्ताधारियों ने यह समझ लिया है कि एक ऐसी भाषा, जो आम आदमी नहीं समझता, उसे बोलना और उसमें काम करना, शासक वर्ग को विशिष्ट तो बनाता ही है जनता को सत्ता से दूर रखने का काम भी प्रभावशाली ढंग से करता है। सबसे बड़ी बात यह है कि सत्ता और उससे जुड़े सीमित पदों को अपने लिए सुरक्षित कर लेना।
लेखक: पंकज बिष्ट
संघीय सेवा अयोग ने अपने जवाब में कहा कि अंग्रेजी को लागू करने का फैसला विशेषज्ञों के एक पैनल की सिफारिश पर किया गया है। अयोग के वकील का यह भी कहना था कि चूंकि यह नीतिगत मसला है इसलिए यह न्यायिक समीक्षा के क्षेत्र में नहीं आता है। अगली सुनवाई 19 सितंबर को होगी।
संघीय लोक सेवा आयोग ने यह निर्णय गत वर्ष जून से लागू कर दिया था। सिविल सेवा की परीक्षा में किए गए इन परिवर्तनों से होनेवाले नकारात्मक परिणामों का अनुमान लगाना तब भी मुश्किल नहीं था। (देखें ‘अंग्रेजी का वर्चस्व’, समयांतर जुलाई 2011) पर आश्चर्य की बात यह है कि इस पर न तो हिंदी और न ही प्रादेशिक मीडिया ने और न ही राज्य सरकारों ने किसी तरह की आपत्ति की। हिंदी मीडिया की स्थिति यह है कि इस जनहित याचिका के बारे में दिल्ली के शायद ही किसी अखबार या चैनल ने कुछ छापना या किसी तरह का समाचार देना तक जरूरी समझा हो, जबकि अंग्रेजी के एक राष्ट्रीय अखबार में यह समाचार प्रथम पृष्ठ पर था।
हाशिये के वर्गों को भाषा का मसला सबसे ज्यादा प्रभावित करता है। पर दलितों और पिछड़ी जातियों के अधिकारों के लिए लडऩेवाले तथाकथित राजनीतिक दलों के लिए यह कभी भी चिंता का कारण नहीं रहा है। उनकी सारी चिंता कुल मिला कर सत्ता में हिस्सेदारी करने तक सीमित है। ये इस बात को समझने को तैयार ही नहीं हैं कि भाषा का सवाल मूलत: वृहत्तर समाज के विकास का सवाल भी है। कुछ दलित चिंतकों की हालत तो यह है कि वह सारे दलित समुदाय को रातों-रात अंग्रेजी सिखा देने के फेर में हैं। जिस देश में आम जनता को अपनी भाषा में शिक्षा की सुविधा उपलब्ध न हो उसमें अंग्रेजी की बात करना किस तरह की बेहूदगी है समझा जा सकता है। पर मसला इतना सीधा नहीं है। अंग्रेजी दलित एलीट को भी उतनी ही रास आती है जितनी की उच्च वर्णवालों को।
यही हाल नारीवादी संगठनों का है। जिस तरह से हमारे समाजों में लड़कियों पर बंदिश है और उन्हें लड़कों की तुलना में घटिया शिक्षा दी जाती है वे अंग्रेजी में सामान्यत: पुरुषों से मुकाबला नहीं कर सकतीं। पर नारीवादी संगठनों को लगता ही नहीं कि यौनिकता से आगे भी ऐसे कई सवाल हैं जो महिलाओं के सशक्तीकरण से आधारभूत रूप से जुड़े हैं। अगर 2002 से 2011 के नौ वर्षों में महिला उम्मीदवारों की संख्या में आठ प्रतिशत गिरावट आई है तो आती रहे। यह उनका सरोकार नहीं है। वैसे यह भी असंभव नहीं कि ये सवाल उन महिलाओं को प्रभावित करते ही न हों जिस वर्ग से नारीवादी आंदोलन का नेतृत्व आता है।
जहां तक भारत सरकार का सवाल है उसके लिए हिंदी एक संवैधानिक औपचारिकता के अलावा और कुछ नहीं है जिसे वह हर वर्ष हिंदी दिवस माना कर पूरा कर देती है। अगर उसका कोई सरोकार भारतीय भाषाओं के प्रति होता तो वह यह कदापि न करती। उसने जिस तरह से इन्हें लागू किया है वे इस बात के स्पष्ट संकेत हैं कि वह सारी सरकारी मशीनरी को उन सभी तत्वों की पहुंच से बाहर कर देना चाहती है जो समाज के गरीब, पिछड़े और ग्रामीण क्षेत्रों की पृष्ठभूमि से आते हैं। इसका परिणाम भी तत्काल सामने आने लगा है।
नयी व्यवस्था के तहत आईएएस, आईएफएस और आईपीएस आदि परीक्षाओं के एप्टीट्ड टेस्ट (अभिक्षमता परीक्षण) जो पहले प्रीलिमिनेरी या प्रारंभिक परीक्षा कहलाती थी उसमें अंग्रेजी को अनिवार्य कर दिया गया है और भारतीय भाषाओं को बाहर। जबकि पहले अंग्रेजी के ज्ञान को मुख्य यानी दूसरी परीक्षा में जांचा जाता था। इसका नतीजा क्या हुआ है इसे जुलाई के अंत में अंग्रेजी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित रिपोर्ट से जाना जा सकता है। रिपोर्ट के अनुसार 2009 और 2010 के बीच ग्रामीण क्षेत्रों से इन सेवाओं में आनेवाले उम्मीदवारों में लगभग 19 प्रतिशत की गिरावट हुई है। इसी तरह स्त्रियों की भागीदारी में भी गिरावट है।
गोकि अभी यह हिंदी पट्टी में उतने व्यापक पैमाने पर नजर नहीं आ रहा है जितना कि ग्रामीण बनाम शहरी प्रतिशत में इस पर भी उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश का प्रतिशत अपनी जनसंख्या के अनुपात में गिरने लगा है। राजस्थान में (संभवत: आरक्षण के कारण जिसके तहत एक जनजाति का केंद्रीय और राज्य सेवाओं में लगभग वर्चस्व हो चुका है) और बिहार में अभी स्थिति ठीक-ठाक है पर वहां भी यह असर जल्दी ही नजर आने लगेगा। गुजरात जैसे राज्य में जहां अंग्रेजी का बोलबाल वैसा नहीं है जैसा कि अन्य राज्यों में नजर आता है, वहां स्थिति के तब तक, जब तक कि राज्य अंग्रेजी को बड़े पैमाने पर नहीं अपना लेता, स्थिति का और खराब होना लगभग अनिवार्य है।
यह बात चकित करनेवाली है कि आखिर ऐसे देश में जहां आज भी कम से कम 40 प्रतिशत जनता निरक्षर हो और दो-तिहाई से भी ज्यादा जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में रहती हो, जहां पांच प्रतिशत लोग भी अंग्रेजी न जानते हों, वहां अंग्रेजी का ऐसा क्या महत्त्व है कि जिसके बिना काम ही न चल सके। अंतत: प्रशासन का मतलब आम जनता की जरूरतों को समझना और उनका समाधान करना है। जो नौकरशाही, और भारतीय नौकरशाही तो अपनी औपनिवेशिक पृष्ठभूमि के कारण पहले ही अपनी ऊंची नाक के लिए चर्चित है, जनता से अपनी दूरी के लिए बदनाम हो, उसे एक और ऐसे उपकरण से सन्नद्ध कर देना जो इस दूरी को मजबूत करे, कहां तक जायज है?
यह किसी से छिपा नहीं है कि हमारे देश में भाषा के माध्यम से आम जनता को ज्ञान और सत्ता से दूर रखने की लंबी परंपरा रही है। कोई भी लोकतंत्र तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक कि सत्ता में आम आदमी की भागीदारी न हो। और यह भागीदारी ज्ञान और प्रशासन में बिना जन भाषा के इस्तेमाल के संभव नहीं है।
हमारी तथाकथित लोकतांत्रिक सरकार या कहें शासक-वर्ग जिस तरह से वर्ग भेद को बढ़ाने में लगा है, वह डरावना है। इस तरह से शासक वर्ग यही नहीं कि सत्ता और प्रशासन में सीधे-सीधे आम जनता की भागीदारी को घटाने की कोशिश कर रहा है बल्कि सत्ता के महत्त्वपूर्ण पदों को उच्चवर्ग के लिए सुरक्षित करने में भी लगा है। इसका एक और भयानक नतीजा यह होनेवाला है कि दलित और पिछड़े वर्गों में आरक्षण का जो लाभ है वह सिर्फ उन तक सीमित हो जाएगा जो पहले से इसका लाभ उठा चुके हैं। यह भी किसी से छिपा नहीं है कि आरक्षण के समाज के नीचे के तबके तक न पहुंचने के कारण दलितों में एक एलीट तबका बन गया है और उसका हित याथास्थिति को बनाए रखने में उच्च वर्णों से अलग नहीं है।
निश्चय ही इसके दूरगामी परिणाम होंगे। यह पिछड़े लोगों के पिछड़ेपन को और बढ़ाएगा तथा अधिकार संपन्न लोगों को और मजबूत करेगा। यह बात और है कि इससे गहराते सामाजिक असंतोष को बढ़ावा ही मिलेगा।
दुनिया का कोई भी ऐसा देश जिसे अपने समाज में बदलाव लाना है और प्रगति करनी है, विदेशी भाषा पर निर्भर नहीं रह सकता। विशेषकर ऐसा देश जो लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करता हो किसी भी दशा में शासन और ज्ञान की भाषा के लिए जनता की भाषा की जगह औपनिवेशिक भाषा का इस्तेमाल नहीं कर सकता। कोई भी ऐसा देश जिसे अपने आत्मसम्मान का खयाल है इस तरह से विदेशी भाषा का भक्त नहीं हो सकता जिस तरह से भारतीय शासक वर्ग है। आप चीन, जापान, कोरिया के अलावा रूस, जर्मनी, फ्रांस, इटली, स्पेन की तो बात ही छोड़ें योरोप का छोटे से छोटा देश फिर चाहे वह स्वीडन हो या ग्रीस या पोलैंड या लुथवानिया सब की अपनी भाषा है। क्या यह अचानक है कि किसी भी योरोपीय देश की भाषा विदेशी भाषा नहीं है और लगभग हर उपनिवेश रहे देश की भाषा अपने पूर्व शासित की भाषा है?
किसी देश के विकास के लिए 67 वर्ष का समय कम नहीं होता। अगर हमने जरा भी कोशिश की होती तो प्रशासन, ज्ञान व संपर्क भाषा के सवाल को कब का सुलझा लिया होता पर हमारे शासकों को इस सवाल को उलझाए रखना ही श्रेयस्कर लगा और उन्होंने तथाकथित वैश्विक भाषा का हव्वा खड़ा कर इसे अपने निहित स्वार्थों को अक्षुण्ण बनाए रखने का, जातिवाद के बाद, एक नया रास्ता बना लिया। अंग्रेजी के तथाकथित अंतर्राष्ट्रीय और ज्ञान की भाषा होने का तर्क कितना बोदा है इसका सबसे बड़ा जवाब यह है कि अगर अंग्रेजी इतनी ही जरूरी है तो फिर छोटे से छोटे योरोपीय देश में यह भाषा क्यों नहीं है? फ्रांस, जर्मनी और रूस क्या हम से कम अंतर्राष्ट्रीय और पिछड़े हैं – वैज्ञानिक या सामाजिक प्रगति, किसी में भी? अंग्रेजी की महानता का गीत असल में मानसिक गुलामी का गीत होने के अलावा स्वार्थ का गीत भी है। अंग्रेजी का लगातार विस्तार कर और उसे सरकारी प्रश्रय देकर इस मिथक को मजबूत किया जा रहा है कि भारतीय भाषाएं इस काबिल हैं ही नहीं कि वे ज्ञान और प्रशासन की भाषा बन पाएं। इसका कारण यह है कि हमारे शासक वर्ग और सत्ताधारियों ने यह समझ लिया है कि एक ऐसी भाषा, जो आम आदमी नहीं समझता, उसे बोलना और उसमें काम करना, शासक वर्ग को विशिष्ट तो बनाता ही है जनता को सत्ता से दूर रखने का काम भी प्रभावशाली ढंग से करता है। सबसे बड़ी बात यह है कि सत्ता और उससे जुड़े सीमित पदों को अपने लिए सुरक्षित कर लेना।
लेखक: पंकज बिष्ट
समयांतर से साभार
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें