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गुरुवार, 15 अप्रैल 2021

भाषा को एक ऐसा दरिया होने की ज़रूरत है जो दूसरी ज़बानों को भी ख़ुद में समेट सके

20 साल की उम्र तक मैं भी अपने कई अन्य बिहारी साथियों की तरह "Vast" को "भास्ट", "शाम" को "साम", "सड़क" को "सरक" और "Fool" को "फूल" बोलता रहा। 

अफ़सोस इस बात का नहीं था कि मैं ग़लत बोलता या ग़लत लिखता था, तकलीफ़ इस बात की थी कि मुझे यह पता ही नहीं था कि मेरे लिखने और बोलने में कितनी ग़लतियाँ थीं।

इसके लिए ज़िम्मेदार किसे ठहराया जाए? अपनी कमअक़्ली को या पढ़ाई-लिखाई की उस परिपाटी को जिसमें मैं बड़ा हुआ?

अगर आप भी मेरे ही आयुवर्ग (30-35 वर्ष) और मेरी ही पृष्ठभूमि के हैं, तो आपको बचपन में रट्टा मारकर वर्णमाला के अक्षरों को याद करते हुए यह बोलना याद होगा - य, र, ल, व, ह, तालव्य स, दन्त स, मूर्धन्य स, अच्छ, त्र, ज्ञ। और ज़रा वह भी याद कीजिए   W से व, Bh से भ। किताबों में कभी नहीं बताया गया कि V से भ होता है लेकिन हम "इंडिया इज अ भास्ट कंट्री" बोलने के आदी हो गए थे।

इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि उच्चारण का सूत्र समझाकर भी हमारा एजुकेशन सिस्टम हमें यह न समझा सका कि तालु से कभी "स" का उच्चारण हो ही नहीं सकता, उससे "श" का ही उच्चारण निकलेगा। अपनी बत्तीसी को नज़दीक लाए बिना "स" का उच्चारण निकल ही नहीं सकता। मूर्धन्य तो ख़ैर अभी भी टेढ़ी खीर है।

जब अपनी ही मातृभाषा में सही बोलना न आए तो उर्दू और अंग्रेज़ी के लफ़्ज़ों का सही उच्चारण कर पाना तो ख़याली पुलाव ही था।

लेकिन जब जान पर बन आए तो एक कोस दूर जल रहा दीया भी कड़कड़ाती ठंड से लड़ने का साहस दे जाता है। संक्षेप में, डूबते को तिनके का सहारा।

दिल्ली आ तो गया था पढ़ाई करने, लेकिन ख़र्च इतना था कि घर से भेजे गए पैसे नाकाफ़ी होते थे। कॉल सेंटर में नौकरी करने के अलावा और कुछ सूझ रहा नहीं था। मुश्किल बस यह थी कि कभी किसी तो कभी किसी और शब्द के ग़लत उच्चारण के चलते जॉब मिल ही नहीं पाती थी। तब डोमेस्टिक और इंटरनेशनल दोनों ही तरह के कॉल सेंटरों का स्टैंडर्ड बड़ा हाई हुआ करता था। 

यह समझने में ज़्यादा देर नहीं लगी कि जब तक अपनी ज़बान ठीक नहीं करूँगा, उर्दू और अंग्रेज़ी की ज़बान ठीक नहीं होने वाली। और जब तक ज़बान ठीक नहीं होती, जॉब नहीं मिलने वाली। 

हिन्दी ठीक करना उतना भी मुश्किल नहीं था। कॉलेज के गुरुओं और दिल्ली के साथियों की दया से इतना समझ आ गया कि मूलतः ड़, श और आ से शुरू होने वाले शब्दों (मसलन आराम को अराम या पाकिस्तान को पकिस्तान बोलना) का उच्चारण गड़बड़ हो रहा है।

बचपन की सरल हिन्दी व्याकरण वाली उन्हीं किताबों ने बताया कि ड़ सही तरह से बोलने के लिए अपनी जिह्वा को अपने तालु से टच करवाना होगा, जबकि बचपन में देखे गए मुख के अंदर की तमाम मुद्राओं को दर्शाने वाले चित्रों के बावजूद ड़ को र बोलने की ही आदत रही। दुर्भाग्य यह कि ऐसी आदत सिर्फ़ हम विद्यार्थियों की नहीं, बल्कि उन्हीं किताबों से हमें पढ़ाने वाले हमारे हिन्दी के शिक्षकों की भी थी।

बहरहाल कुछ ही महीनों में हिन्दी का ठीक-ठाक उच्चारण करने लगा, लेकिन यह फ़ॉर्मूला उर्दू और अंग्रेज़ी पर लागू नहीं हो पाता। उसके लिए कुछ दूसरा जुगाड़ निकालने की ज़रूरत थी, क्योंकि वहाँ तो शब्दावली की कंगाली भी एक बड़ी समस्या थी।

आख़िर यह पता कैसे चले कि मज़दूर में तो ज़ का उच्चारण होता है, लेकिन मजबूर में ज का उच्चारण होता है? यह कैसे

समझ आए कि Individual (इंडिविजुअल) में तो ज का उच्चारण होता है, लेकिन Visual में वही ज बोलने के लिए जीभ के अगले हिस्से को उल्टा घुमाना पड़ जाता है जबकि Visa में ज़ का उच्चारण होता है?

अंग्रेज़ी के साथ भी ज़्यादा मुश्किलें नहीं हुईं। सिंपल ज़बान है, बस पैटर्न समझने की देर है। 

J है तो ज, Z है तो ज़, D और DG वाले ज में ज (जैसे Individual, Grudge) और Si और Su वाले ज में जीभ का अग्रभाग उल्टा घुमाकर कुछ ऐसे बोलना है जैसे य और ज का मेल बन जाए (जैसे Vision, Measure, Pleasure, Treasure आदि)। Sh है तो श, S है तो स। चाहे Ph हो या F, उच्चारण फ़ ही होगा क्योंकि अंग्रेज़ी में तो फ का साउंड होता ही नहीं है, न ही ड़ का साउंड होता है और न ही क्ष का। इसलिए पैटर्न तलाश पाए तो अंग्रेज़ी बोलने को दुरुस्त करना कोई बहुत मुश्किल चुनौती नहीं थी।  

असली दुश्वारियाँ तो उस ज़बान को ठीक करने की थीं, जिसके बिना हिन्दी अधूरी है।

उर्दू के लफ़्ज़ों के लिए ख़ुद की मरम्मत के दो ही तरीक़े समझ आए और बहुत हद तक कारगर भी रहे, पहला तो अपने आस-पास उन लोगों की तलाश करना जो शुद्ध बोलते हों, और दूसरा उन सीखे हुए नए शब्दों को ठीक उसी तरह से लिखने की कोशिश करना, जैसे उन्हें बोला जाएगा।

अपनी लेखनी में नुक़्ते का इस्तेमाल शुरू करने का सिलसिला इसी तलफ़्फ़ुज़ को ठीक करने की चाहत के साथ शुरू हुआ। सही बोलने के लिए सही लिखना और सही लिखने के लिए सही पढ़ना साथ ही सही सुनना बहुत ज़रूरी है।

हिन्दी में उर्दू के इतने लफ़्ज़ हैं कि शायद उन लफ़्ज़ों के बिना हिन्दी मुकम्मल ही नहीं हो पाएगी। क्या बिना "दुकान" के हमारी दिनचर्या पूरी होगी? क्या बिना "ख़ुशी" और बिना "ग़म" के हमारे जज़्बात पूरे होंगे?

भले ही ग़लत उच्चारणों के साथ, मगर क्या इन शब्दों के बिना हमारी जवानी पूरी हो सकती है? कॉलेज के दिनों में "बेवफ़ाई" का रोना, घर बनवाने में "मज़दूरों" की "मेहनत", "मजबूरी" में मैगी खाना, जॉब के चक्कर में "जुदाई" सहना, "बेरोज़गारी" के "आलम" में "ज़माने" का ताना, अपने "ख़्वाबों" में "ख़ज़ाने" की "तलाश", बचपन में चाचा का टिफ़िन देने "क़ारख़ाने" जाना वग़ैरह-वग़ैरह।

क्या आप चाहेंगे कि क़ारख़ाने जाने की जगह आप "कार खाने" जाएँ? 

कई विद्वान साथियों की दलील है कि जब हिन्दी में नुक़्ते का कॉन्सेप्ट ही नहीं है, तो उसका इस्तेमाल करके अपनी हिन्दी को जबरन जटिल बनाने की क्या आवश्यकता है। मैं मानता हूँ कि न्याय-व्यवस्था के लिए बनाए गए क़ानूनों के अलावा अनिवार्यता तो किसी भी चीज़ की नहीं होनी चाहिए, लेकिन बहुधा फ़र्क़ स्थापित करना ज़रूरी हो जाता है। "दशहरे में नौ कन्याओं को जमाने का दस्तूर है" और जाने-अनजाने ही सही, "मर्दों के भीतर मिसॉजनी ज़माने का दस्तूर है।"

अंत में जाने-माने स्क्रीनप्ले राइटर जावेद सिद्दिक़ी साहब को अपने शब्दों में क्वोट करूँगा, "जो भाषा दरिया की तरह हो, जो दूसरी ज़बानों को भी ख़ुद में इस तरह समेट ले जैसे वे उसी भाषा की हैं, तो उस भाषा का विस्तार होते रहना तय है।"

ड़ और ढ़ में तो हम नीचे बिंदी लगाते ही हैं न, बस उसी परंपरा को अगर दूसरे अक्षरों पर भी ज़रूरत के अनुसार लागू कर दें तो इससे क्या बिगड़ जाएगा? मुझे नुक़्ते से परहेज़ का न तो मक़सद समझ आता है, न ही नुक़्ते का इस्तेमाल न करने का कोई फ़ायदा समझ आता है।

लेखक : राहुल कुमार आत्म-परिचय न्यूज़ डेस्क पर 10 साल के अनुभव के दौरान अनुवाद का हुनर सीखा। पिछले चार साल से फ़ुल टाइम अनुवाद के ही काम में लगा हूँ। अतीत में National Geographic, HBO, Discovery आदि के लिए टीवी शो और फ़िल्मों की स्क्रिप्ट ट्रांसलेट की है। फ़िलहाल ज़्यादातर काम यूज़र इंटरफ़ेस लोकलाइज़ करने का है। लिंक्डइन प्रोफ़ाइल लिंक : https://www.linkedin.com/in/webprofilerahulkumar


बुधवार, 3 जून 2015

वर्तनी की अशुद्धियाँ बनाम हिंदी का गिरता स्तर (लेखक: विनोद शर्मा)

वर्तमान दौर में जहाँ हिंदी के प्रचलन में वृद्धि हो रही है, उसके स्तर में निरंतर गिरावट नजर आ रही है। हिंदी भाषा में मानो अराजकता की स्थिति बनती जा रही है। समाचार माध्यमों और सामाजिक मीडिया में गलत वर्तनी का धड़ल्ले से प्रयोग किया जा रहा है। आज केवल प्रचलन पर जोर दिया जा रहा है। आप लंबे समय से किसी शब्द को जिस तरह से लिखते आए हैं, आपको लगता है कि वही वर्तनी सही है। पत्रकार और सामाजिक मीडिया पर लेखन कर रहे लेखक/कवि आदि भी इस विषय पर कोई ध्यान नहीं देना चाहते।

हिंदी में लघु एवं दीर्घ स्वरों के चार युग्म हैं, इ-ई, उ-ऊ, ए-ऐ तथा ओ-औ, जिनके प्रयोग में प्रायः गलतियाँ होती हैं, अर्थात युग्म के स्वरों की मात्राओं का परस्पर एक-दूसरे के स्थान पर प्रयोग हो जाता है। हिंदी भाषा पूर्णतः उच्चारण पर आधारित वैज्ञानिक भाषा है। इसे जैसा बोला जाता है वैसा ही लिखा जाता है। हाँ, समस्या वहाँ आती है जब हमारा उच्चारण भी दोषयुक्त होता है।

सबसे पहले लेते हैं युग्म ‘इ-ई’ को, इसकी मात्राएँ क्रमशः लघु और दीर्घ होती हैं। लघु स्वर या छोटी इ के प्रयोग के उदाहरण हैं- कवि, किसान, रिश्ता, पिता आदि। दीर्घ स्वर के उदाहरण हैं- जीत, खुशी, ठीक आदि। इस युग्म के गलत प्रयोग का सर्वाधिक दिखाई देने वाला उदाहरण है- ‘कि’ तथा ‘की’ का एक-दूसरे के स्थान पर प्रयोग। यहाँ हमें ध्यान रखना होगा कि ‘कि’ का प्रयोग किसी संदर्भ, उदाहरण आदि का उल्लेख करने से पूर्व किया जाता है। जैसे ‘राम ने देखा कि सामने से एक कार आ रही थी’, ‘उसने कहा कि...’, ‘उसने सोचा कि....’, ‘उसने बताया कि...’, ‘उसका दिल इतनी तेजी से धड़का कि...’। जबकि ‘की’ का प्रयोग या तो संबंध सूचक (स्त्रीलिंग) या ‘करना’ क्रिया के स्त्रीलिंग भूतकाल रूप में किया जाता है। संबंध सूचक के रूप में प्रयोग के उदाहरण हैं- ‘प्रभु की इच्छा’, ‘राम की पत्नी’, ‘दर्द की दवा’, ‘घर की बात’। भूतकाल क्रिया रूप के उदाहरण हैं- उसने खिड़की बंद की, मैंने अमरनाथ की यात्रा की, उसने प्रार्थना की। बड़े-बड़े ख्यातनाम लेखक भी इस गलती को अक्सर दुहराते हैं।

अगला स्वर युग्म है ‘उ-ऊ’। लोग लघु की जगह दीर्घ और दीर्घ की जगह लघु मात्रा का प्रयोग कर शब्द का अर्थ ही बदल देते हैं। जैसे- सवेरे की धुप (सही वर्तनी- धूप), उसने पुछा (सही वर्तनी- पूछा), उसने कबुल किया (सही वर्तनी - कबूल), दिल में शुल सी चूभी (सही वर्तनियाँ- शूल, चुभी)।

इसके बाद आता है ‘ए-ऐ’ युग्म, इसमें भी कुछ लोग लघु की जगह दीर्घ और दीर्घ की जगह लघु मात्रा का प्रयोग करते हैं। सर्वाधिक भ्रम होता है ‘में’ और ‘मैं’ को ले कर। ‘मैं’ उत्तम वचन सर्वनाम है जिसका प्रयोग वक्ता या लेखक स्वयं के लिए करता है तथा इसमें सदैव ही ‘ऐ’ की मात्रा लगनी चाहिए, लेकिन कई लोग ‘में’ का प्रयोग करते हैं। वर्तनी गलत होने से शब्द का अर्थ बदल जाता है, जैसे ‘सेर’ वजन की एक माप है जबकि ‘सैर’ का अर्थ भ्रमण या पर्यटन होता है। ‘मेला’ जहाँ लोगों के उल्लासपूर्ण समागम को व्यक्त करता है, वहीं गलत मात्रा लगने से ‘मैला’ का अर्थ गंदा या अपवित्र हो जाता है। इसी प्रकार केश-कैश, फेल-फैल, बेर-बैर आदि के परस्पर प्रयोग से अर्थ बदल जाते हैं।

इस कड़ी में अंतिम स्वर युग्म है- ‘ओ-औ’ का। पूर्वोक्त की भांति इन स्वरों की मात्राओं के प्रयोग में भी असावधानीवश भूल होती है। कौन, मौन, गौण, प्रौढ़, दौड़ आदि के स्थान पर गलत वर्तनी का प्रयोग करके अक्सर कोन, मोन, गोण, प्रोढ़, दोड़ लिख दिया जाता है। अब ‘शौक’ का ही उदाहरण लीजिए। शौक आपकी पसंद या अभिरुचि को प्रकट करता है, किंतु ‘शोक’ लिखते ही वह मातम में बदल जाता है। लौटा-लोटा या लौटना-लोटना में लौटना का आशय है कहीं से वापस आना, जबकि लोटना का अर्थ है लेटना, उलट-पलट होना।

तो आपने देखा कि वर्तनी की अशुद्धि अर्थ का अनर्थ भी कर सकती है और आपके द्वारा लिखी गई अच्छी से अच्छी रचना के स्तर को बुरी तरह से प्रभावित कर सकती है। आपको थोड़ा सा सतर्क होने की जरूरत है। अपने लेख की किसी मित्र या गुरु से समीक्षा करवा लें। जिन अशुद्धियों को चिह्नित किया जाए, उन पर कुछ दिन तक विशेष ध्यान दें। बाद में सब ठीक हो जाएगा।

लेखक: विनोद शर्मा

मंगलवार, 26 मई 2015

अपनी ही भाषा को आगे बढ़ने से रोकने वाले लोग (सामयिक वार्ता में शीघ्र प्रकाश्य)

हाल ही में आंबेडकर की एक किताब की भूमिका लिखने के बाद अरुंधती राय विवादों के घेरे में आ गई थीं। इस मामले में भाषा का भी एक पहलू सामने आया था। भारतीय भाषाओं के लेखकों ने यह शिकायत की कि अरुंधती ने आंबेडकर और गाँधी की तुलना करते हुए जो बातें आज कही हैं वही हम पहले से कहते आए हैं लेकिन उनकी तरफ़ कभी ध्यान नहीं दिया गया। उनका यह कहना है कि जो बात अंग्रेज़ी में कही जाती है उसका महत्व कई गुना ज़्यादा बढ़ जाता है। भारतीय भाषाओं की अनदेखी के इस पहलू पर बहुत कम लोगों का ध्यान जाता है। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के ज्ञान और विमर्श की भाषा नहीं बन पाने की वजहों की पड़ताल करते हुए हमारी नज़र सत्ता प्रतिष्ठानों के षड्यंत्रों तक तो चली जाती है लेकिन प्रगतिशील खेमे को हम इस मामले में दूध का धुला मान लेते हैं। अब समय आ गया है कि हम हिंदी पट्टी के बुद्धिजीवियों के पूर्वाग्रहों (इस शब्द पर आगे चर्चा करूँगा) पर बात करें। आम लोगों की ग़लत धारणाओं पर चर्चा करना भी ज़रूरी है।

सबसे पहले प्रगतिशील खेमे में अपनी भाषा को लेकर हीनभावना पर विचार करते हैं। हिंदी के अधिकतर वामपंथी लेखक यह मान बैठे हैं कि भारत में अंग्रेज़ी ही ज्ञान की भाषा बन सकती है। हिंदी के स्तरीय लेखन पर उनका ध्यान ही नहीं जाता। वे पत्रकारिता में हिंदी की समृद्धि की तरफ़ देखते भी नहीं हैं। हिंदी पत्रिकाओं में न जाने कितने स्तरीय आलेख छपे हैं लेकिन उनका सारा ध्यान अंग्रेज़ी में छपी सामग्री की तरफ़ रहता है। रघुवीर सहाय से लेकर सुनील तक वैचारिक लेखन की एक लंबी परंपरा रही है जिसकी अनदेखी अंग्रेज़ीदाँ लेखकों और हिंदी लेखकों दोनों ने की है। सामाजिक विज्ञान में हिंदी विश्‍वकोश तो छप गया लेकिन इस विषय को अंग्रेज़ी की छाया से निकालने की ईमानदार कोशिश आज तक नहीं हो पाई। अगर अकादमिक जगत के लेखक इस मसले को गंभीरता से लें तो ज्ञान के इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में शोधपरक हिंदी लेखन की कमी की शिकायत हमेशा के लिए दूर हो जाएगी। बहुत-से लोगों ने व्यक्‍तिगत स्तर पर बदलाव लाने की कोशिश की है, लेकिन सच तो यही है कि यह काम संस्थान या समूह के स्तर पर ही पूरा हो सकता है।

भारतीय वामपंथियों ने भाषा से जुड़े मसलों पर जैसी वैचारिक शिथिलता दिखाई है उसे देखते हुए निकट भविष्य में उनके नज़रिये में किसी सार्थक बदलाव की उम्मीद नहीं दिखती। न तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की वेबसाइट हिंदी में है न मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की। संसदीय राजनीति का रास्ता चुनने वाली इन पार्टियों ने हिंदी की अनदेखी करके कितना बड़ा जनाधार खोया है इसकी वे कल्पना भी नहीं कर सकते। शायद कल्पना और दृष्टि के इसी अभाव के कारण वे लोक सभा के पहले सत्र में विपक्षी दल बनने के बाद आज अपनी ज़मीन की तलाश करते नज़र आ रहे हैं।

अब बात करते हैं आम लोगों में भाषा से संबंधित ग़लत धारणाओं की। हिंदी में व्याकरण को लेकर दो तरह के अतिवाद देखने को मिलते हैं। एक अतिवाद है व्याकरण के नियमों को पत्थर की लकीर मानना और दूसरा है व्याकरण को सिरे से नकारना।

पहले अतिवाद का लक्षण है दशकों पुरानी किताबों के नियमों के आधार पर आज की भाषा की शुद्धता-अशुद्धता तय करना। चाहे बहुवचन संबोधन में अनुस्वार के प्रयोग पर आपत्ति हो या 'परिषद्' जैसी वर्तनी को सही साबित करने की कोशिश, ऐसे कई उदाहरण हैं जो हिंदी में व्याकरण और वर्तनी के मामले में व्यावहारिक सोच की कमी का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। भाषा हमेशा बदलती रहती है और कल जो नियम सही-ग़लत के दायरे में आता था वह आज एकरूपता के क्षेत्र तक सिमट सकता है। उदाहरण के लिए, पहले 'किये', 'गये' आदि प्रचलित वर्तनियाँ थीं। अब 'किए', 'गए' को ही मानक माना जाता है। अगर आप 'किये', 'गये' आदि लिखते हैं तो आपसे यह उम्मीद की जाएगी कि आप इनके प्रयोग में एकरूपता रखेंगे यानी कहीं 'किये' तो कहीं 'किए' नहीं लिखेंगे। रही बात 'परिषद्' के हलंत होने की तो जब आप हिंदी में शब्द के अंतिम वर्ण में स्वर का उच्चारण ही नहीं करते तो उसे वर्तनी में अनुच्चरित दिखाने का क्या मतलब रह जाता है! अब बात करते हैं बहुवचन संबोधन में अनुस्वार के प्रयोग की मनाही की। अगर आप हिंदी के आम पाठक से यह पूछेंगे कि 'भाई लोगो' और 'भाई लोगों' में कौन-सा रूप सही है तो वह 'भाई लोगों' को ही सही बताएगा। फिर आप उसे बताएँगे कि व्याकरण के अनुसार पहला विकल्प सही है तो वह व्याकरण से आतंकित होकर अपनी ग़लती मान लेगा!

जब आप किसी भाषा को ज्ञान से जोड़ने की कोशिश करेंगे तो आपको एकरूपता, वर्तनी आदि से जुड़े मसलों से जूझना ही होगा। चूँकि हिंदी में भाषा को केवल विचारों की अभिव्यक्‍ति का साधन मान लिया गया है, इसलिए व्याकरण से जुड़ा विमर्श मुख्यधारा की पत्रिकाओं में कभी नहीं दिखता है। व्याकरण को भाषाई अराजकता से बचने का साधन न मानकर ऐसे शाश्‍वत नियमों का संकलन मान लिया जाता है जिनमें बदलाव संभव ही नहीं है। अंग्रेज़ी में ऐसा नहीं है। इस भाषा में पूर्वसर्ग (प्रीपोज़िशन) को वाक्य के अंत में नहीं रखने के नियम को अब अप्रासंगिक घोषित किया जा चुका है। अंग्रेज़ी के वैयाकरण यह कहने में बिलकुल नहीं हिचकिचाते कि इस भाषा के नियमों को लैटिन व्याकरण के नियमों के अनुसार नहीं ढाला जा सकता। अंग्रेज़ी में वर्तनी के मामले में भी व्यापक विचार-विमर्श होता है। अमेरिकी विद्वान ब्रायन गार्नर ने अंग्रेज़ी शब्दों की स्वीकार्यता के पाँच चरण निर्धारित किए हैं। ये चरण हैं : 1. अमान्य 2. बहुत हद तक अमान्य 3. बहुत हद तक प्रचलित 4. लगभग प्रचलित 5. पूरी तरह प्रचलित। अगर हिंदी में ब्रायन गार्नर जैसे विद्वान होते तो वे 'पूर्वाग्रह' को पाँचवें चरण में रखते। हिंदी में शिकागो मैनुअल जैसी शैली मार्गदर्शिका का नहीं होना भी एक ऐसा तथ्य है जिसकी अनदेखी होती आई है। अगर हमें हिंदी को ज्ञान की भाषा बनाना है तो शैली, व्याकरण, वर्तनी आदि से जुड़ी बातों पर ध्यान देना ही होगा क्योंकि ऐसा नहीं करने पर न तो लेखन में एकरूपता रह पाएगी न अनावश्यक भाषाई विवादों से बचते हुए विचार को बेहतर ढंग से सामने रख पाना संभव हो पाएगा। व्याकरण को सिरे से नकारने के अतिवाद पर भी बात होनी चाहिए। ऐसे हिंदी लेखकों की कमी नहीं है जो अंग्रेज़ी में वर्तनी, व्याकरण आदि से जुड़ी जानकारी हासिल करने के लिए बहुत-सी किताबों के पन्ने उलटा लेंगे, लेकिन हिंदी में वे 'सब कुछ चलता है' की बात आसानी से कह देते हैं। ऐसे लोग 'स्टेटस' को हिंदी में 'स्टेट्स' लिखेंगे और उसे सही साबित करने की कोशिश भी करेंगे। उच्चारण की ऐसी अनदेखी भी नहीं की जानी चाहिए जिससे शब्द का अर्थ ही बदल जाए।