एजेंसियाँ त्याज्य नहीं हैं...
फ्रीलांसर अनुवादकों के समक्ष एजेंसियों की छवि मुनाफाखोर खलनायक की बन गई है। कुछ टटपूँजिया एजेंसियों की वजह से सरसरी तौर पर एजेंसियों की भूमिका को खारिज कर दिया जाता है, जो सही नहीं है। एजेंसियों के लिए काम करना और उनसे जुड़े रहना घाटे का सौदा नहीं है।
अनुवाद
की किताबों में यह बात अकसर कही जाती है कि अनुवाद कार्य एक सृजन के
समतुल्य है। इसके लिए अत्यंत कुशलता और सृजनशीलता की जरूरत होती है।
अनुवाद मौलिक लेखन से भी अधिक महत्वपूर्ण होता है। पढ़कर लगता है कि
अनुवाद को एक विधा के रूप में बड़ी इज्जत हासिल है, लेकिन वास्तविक जीवन
में बिलकुल इसँके उलट है। हिंदी जगत में इसे सम्मान तो क्या, काम भी नहीं
समझा जाता। ऐसा नहीं कि ऐसी सोच वाले लोग अनपढ़ या जाहिल होते हैं। यह सोच
बिना किसी भेदभाव के छोटे कर्मचारियों से लेकर बड़े अधिकारियों, छात्रों
से लेकर बड़े-बड़े बुद्धिजीवियों और अकादमिक लोगों में एक समान रूप से पाई
जाती है, “अनुवाद भी कोई काम है? इसे तो कोई भी कर लेगा। अच्छी सी
डिक्शनरी देखो और बस हो गया। गूगल ट्रांसलेट में डालो, सारा अनुवाद अपने
आप हो जाता है।” इस सोच ने अनुवादकों की दोतरफा वाट लगाई है। पहला,
अनुवादकों के श्रम और योगदान का मूल्यांकन नहीं हो पाता, और दूसरा,
व्हाइट कॉलर कार्य ढूँढ़ने वाले शॉर्टकट पसंदों ने स्वयं को अनुवादक
घोषित कर रही सही कसर भी पूरी कर दी।
सर्वप्रथम अनुवाद को कला न कहकर कौशल कहना शुरू करना होगा। कला एक अमूर्त, अस्पष्ट और घोटाले वाला शब्द है। कला अराजकता होती है, और कलाकार मूडी होता है। कला या कलाकार किसी भी अनुशासन को मानने या उसमें बँधने से इनकार करता है, जबकि एक कौशल या हुनर वह है, जो आवश्यक ज्ञान के उपरांत धीरे धीरे अभ्यास से विकसित किया जाता है। इस विधा में कितनी कला है, कितना सृजन है, इसका फैसला शोधार्थियों को करने दें, लेकिन फिलहाल इसे कला की जकड़न से निकालना जरूरी है। इसे एक पेशा बनाना पड़ेगा। जो अनुवादक बंधु पार्ट-टाइम, फुल-टाइम नौकरी करते हैं या फ्रीलांसर हैं, वे समझते होंगे कि इसके लिए एक विशेष प्रकार के अनुशासन और कंसिस्टेंसी की जरूरत होती है। अनुवाद क्या, प्रत्येक धंधे के लिए अनुशासन और कंसिस्टेंसी की जरूरत होती है।
दरअसल हमारे देश में अनुवादक होना लेखक बनने की शुरुआती सीढ़ी माना जाता है। सभी स्टार लेखकों ने शुरुआती दौर में अनुवाद किया। चूँकि लेखन इस देश में पवित्र काम है, लेखक को पैसों से क्या लेना-देना, सो अनुवादकों से भी यही अपेक्षाएँ की जाने लगीं। हिंदी के प्रकाशनघर यही मानते हैं। लेखक की लेखक जाने, पर वे अनुवादक को पारिश्रमिक नहीं, जेबखर्च देने पर यकीन रखते हैं। विदेशों में ऐसी स्थिति नहीं है। विदेशों में प्रकाशनघर अपने लेखकों को भी सम्मानजनक पारिश्रमिक देते हैं और अनुवादकों को भी। यहाँ तो कुएँ में ही भांग पड़ी है, पारिश्रमिक माँगने और देने का रिवाज ही नहीं है। फिलहाल अनुवादक को उसकी मेहनत का समुचित मेहनताना मिले, यही उसके लिए बहुत बड़ा सम्मान होगा।
अंग्रेजी वैश्विक संचार की भाषा है और हिंदी भारत की संपर्क भाषा या राजभाषा है। अत: हमारे देश में सबसे ज्यादा संभावनाशील भाषायुग्म अंग्रेजी-हिंदी है। इन भाषाओं के अनुवाद बाजार की स्थिति यह है कि अनुवाद के ग्राहक (पैसे देने वाले ग्राहक) भारत में मौजूद नहीं हैं। यदि स्वदेशी ग्राहकों के भरोसे रहें तो अनुवादक भूखे मर जाएँ। कहने को तो हिंदी प्रकाशकों का बहुत बड़ा कारोबार है, लेकिन उनमें चोटी का प्रकाशक अपने अनुवादक को 25 से 50 पैसे प्रति शब्द ऑफर करता है। सरकारी संस्थाओं के पास अनुवाद कार्य की बहुत बड़ी संभावना है, लेकिन उनमें संवेदनहीनता व्यापक है और अनुवाद की दरें दयनीय हैं।
सम्मानजनक दर वह होती है, जिस पर सामान्य गति से कार्य करते हुए अनुवादक अपना और अपने बच्चों का पेट पाल सके, स्कूल की फीस जमा कर सके, मकान का किराया भर सके, बीमारी होने पर इलाज करवा सके और एक सम्मानजनक लाइफस्टाइल अफोर्ड कर सके। फिलहाल अनुवादकों के सामने विदेशी कंपनियों या बड़ी विज्ञापन एजेंसियों का ही सहारा रह गया है, अत: बेहिचक अपना सारा फोकस बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों, विज्ञापन एजेंसियों, सॉफ्टवेयर और उपकरण आदि बनाने वाली कंपनियों की प्रचार सामग्रियों, रिपोर्टों, उपयोगकर्ता मैनुअलों, वेबसाइटों आदि के अनुवाद पर रखने की जरूरत है।
इस पेशे की अपनी कुछ सच्चाइयाँ हैं, जिन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता। यह रोज पानी पीने के लिए रोज कुआँ खोदने जैसा कार्य है। अनुवाद के कार्य में कोई रॉयल्टी नहीं मिलती, कि एक बार करो और इससे ताजिंदगी कमाई होती रहे। इसमें आपको अपने कार्य का श्रेय भी नहीं मिलता। केवल भाषांतर करने की मजदूरी मिलती है। इस नाते यह कार्य मजदूरी जैसा ही है। जितना अनुवाद करेंगे, उतना ही पैसा मिलेगा। अनुवाद बंद तो पैसा मिलना बंद। अनुवाद एक-एक शब्द पढ़कर किया जाता है, वैसे ही, जैसे राज मिस्त्री एक-एक ईंट जोड़कर दीवार बनाता है। कोई ज्यादा पैसा दे, तो भी वह दिन भर में जितनी क्षमता है उतनी दीवार ही चुन सकता है, ज्यादा लालच करे तो 10-20 प्रतिशत अधिक। यही अनुवाद की स्थिति भी है। कई बार तो कंटेंट ऐसा कठिन आ जाता है कि औसत आउटपुट देना भी मुश्किल हो जाता है।
यह अत्यंत आवश्यक है कि (सामान्यत:) महीने में दस या पंद्रह दिन से अधिक काम मिलना चाहिए। तभी महीने भर का खर्चा चलाया जा सकता है। इंटरनेट के युग में काम ढूँढ़ना बहुत आसान हो गया है। ऐसे कई पोर्टल हैं, जिनमें अनुवादक और ग्राहक दोनों अपना-अपना विवरण दर्ज करते हैं।
नई दिल्ली के मोहन गार्डन से गांधी चौक जाते समय पीपल वाला चौक पड़ता है। वहाँ रोज सुबह सात बजे मजदूरों का जमावड़ा लगता है। मजदूर आकर जमा होते हैं, और उन्हें काम देने वाले वहाँ आकर अपनी जरूरत के मजदूरों को चुन लेते हैं। जिन्हें काम मिल गया, उनकी पौ बारह हो जाती है और जिन्हें नहीं मिला, वे दस-ग्यारह बजे तक इंतजार करके खाली हाथ अपने घर लौट जाते हैं। उस दिन उनकी दिहाड़ी नहीं पकती। अनुवादकों की स्थिति भी जुदा नहीं है।
काम सतत रूप से मिलता रहे, इसके लिए मार्केटिंग और ब्रांडिंग जरूरी है। ब्रांडिंग के लिए अन्य बातों के साथ दो बातें अत्यंत महत्वपूर्ण होती हैं, पहली, डेडलाइन का सम्मान करें, दूसरी, गुणवत्ता बनाए रखें। यही हमारी साख बनाती है, जो कालांतर में काम का नियमित मिलना सुनिश्चित करती है। गुणवत्ता जाँचने का एक सीधा उपाय है, कि यदि ग्राहक हमें दुबारा काम देता है, तो हमारी गुणवत्ता संतोषजनक है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि एजेंसियों का पूरा कारोबार जिन फ्रीलांसर अनुवादकों की मेहनत पर टिका होता है, उन्हें समुचित पारिश्रमिक देने के मामले में वे कंजूसी बरतती हैं। पूरी मलाई स्वयं खा जाती हैं, और अनुवादकों को केवल सूखे टुकड़े देकर निपटा देती हैं। ग्राहक और अनुवादक में सीधा संपर्क हो, यह एक आदर्श स्थिति है। लेकिन इस उद्योग में एजेंसियों का भी अहम स्थान है। एजेंसियों को त्यागना उचित नहीं है, क्योंकि:
लेखक: आनंदफ्रीलांसर अनुवादकों के समक्ष एजेंसियों की छवि मुनाफाखोर खलनायक की बन गई है। कुछ टटपूँजिया एजेंसियों की वजह से सरसरी तौर पर एजेंसियों की भूमिका को खारिज कर दिया जाता है, जो सही नहीं है। एजेंसियों के लिए काम करना और उनसे जुड़े रहना घाटे का सौदा नहीं है।
सर्वप्रथम अनुवाद को कला न कहकर कौशल कहना शुरू करना होगा। कला एक अमूर्त, अस्पष्ट और घोटाले वाला शब्द है। कला अराजकता होती है, और कलाकार मूडी होता है। कला या कलाकार किसी भी अनुशासन को मानने या उसमें बँधने से इनकार करता है, जबकि एक कौशल या हुनर वह है, जो आवश्यक ज्ञान के उपरांत धीरे धीरे अभ्यास से विकसित किया जाता है। इस विधा में कितनी कला है, कितना सृजन है, इसका फैसला शोधार्थियों को करने दें, लेकिन फिलहाल इसे कला की जकड़न से निकालना जरूरी है। इसे एक पेशा बनाना पड़ेगा। जो अनुवादक बंधु पार्ट-टाइम, फुल-टाइम नौकरी करते हैं या फ्रीलांसर हैं, वे समझते होंगे कि इसके लिए एक विशेष प्रकार के अनुशासन और कंसिस्टेंसी की जरूरत होती है। अनुवाद क्या, प्रत्येक धंधे के लिए अनुशासन और कंसिस्टेंसी की जरूरत होती है।
दरअसल हमारे देश में अनुवादक होना लेखक बनने की शुरुआती सीढ़ी माना जाता है। सभी स्टार लेखकों ने शुरुआती दौर में अनुवाद किया। चूँकि लेखन इस देश में पवित्र काम है, लेखक को पैसों से क्या लेना-देना, सो अनुवादकों से भी यही अपेक्षाएँ की जाने लगीं। हिंदी के प्रकाशनघर यही मानते हैं। लेखक की लेखक जाने, पर वे अनुवादक को पारिश्रमिक नहीं, जेबखर्च देने पर यकीन रखते हैं। विदेशों में ऐसी स्थिति नहीं है। विदेशों में प्रकाशनघर अपने लेखकों को भी सम्मानजनक पारिश्रमिक देते हैं और अनुवादकों को भी। यहाँ तो कुएँ में ही भांग पड़ी है, पारिश्रमिक माँगने और देने का रिवाज ही नहीं है। फिलहाल अनुवादक को उसकी मेहनत का समुचित मेहनताना मिले, यही उसके लिए बहुत बड़ा सम्मान होगा।
अंग्रेजी वैश्विक संचार की भाषा है और हिंदी भारत की संपर्क भाषा या राजभाषा है। अत: हमारे देश में सबसे ज्यादा संभावनाशील भाषायुग्म अंग्रेजी-हिंदी है। इन भाषाओं के अनुवाद बाजार की स्थिति यह है कि अनुवाद के ग्राहक (पैसे देने वाले ग्राहक) भारत में मौजूद नहीं हैं। यदि स्वदेशी ग्राहकों के भरोसे रहें तो अनुवादक भूखे मर जाएँ। कहने को तो हिंदी प्रकाशकों का बहुत बड़ा कारोबार है, लेकिन उनमें चोटी का प्रकाशक अपने अनुवादक को 25 से 50 पैसे प्रति शब्द ऑफर करता है। सरकारी संस्थाओं के पास अनुवाद कार्य की बहुत बड़ी संभावना है, लेकिन उनमें संवेदनहीनता व्यापक है और अनुवाद की दरें दयनीय हैं।
सम्मानजनक दर वह होती है, जिस पर सामान्य गति से कार्य करते हुए अनुवादक अपना और अपने बच्चों का पेट पाल सके, स्कूल की फीस जमा कर सके, मकान का किराया भर सके, बीमारी होने पर इलाज करवा सके और एक सम्मानजनक लाइफस्टाइल अफोर्ड कर सके। फिलहाल अनुवादकों के सामने विदेशी कंपनियों या बड़ी विज्ञापन एजेंसियों का ही सहारा रह गया है, अत: बेहिचक अपना सारा फोकस बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों, विज्ञापन एजेंसियों, सॉफ्टवेयर और उपकरण आदि बनाने वाली कंपनियों की प्रचार सामग्रियों, रिपोर्टों, उपयोगकर्ता मैनुअलों, वेबसाइटों आदि के अनुवाद पर रखने की जरूरत है।
इस पेशे की अपनी कुछ सच्चाइयाँ हैं, जिन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता। यह रोज पानी पीने के लिए रोज कुआँ खोदने जैसा कार्य है। अनुवाद के कार्य में कोई रॉयल्टी नहीं मिलती, कि एक बार करो और इससे ताजिंदगी कमाई होती रहे। इसमें आपको अपने कार्य का श्रेय भी नहीं मिलता। केवल भाषांतर करने की मजदूरी मिलती है। इस नाते यह कार्य मजदूरी जैसा ही है। जितना अनुवाद करेंगे, उतना ही पैसा मिलेगा। अनुवाद बंद तो पैसा मिलना बंद। अनुवाद एक-एक शब्द पढ़कर किया जाता है, वैसे ही, जैसे राज मिस्त्री एक-एक ईंट जोड़कर दीवार बनाता है। कोई ज्यादा पैसा दे, तो भी वह दिन भर में जितनी क्षमता है उतनी दीवार ही चुन सकता है, ज्यादा लालच करे तो 10-20 प्रतिशत अधिक। यही अनुवाद की स्थिति भी है। कई बार तो कंटेंट ऐसा कठिन आ जाता है कि औसत आउटपुट देना भी मुश्किल हो जाता है।
यह अत्यंत आवश्यक है कि (सामान्यत:) महीने में दस या पंद्रह दिन से अधिक काम मिलना चाहिए। तभी महीने भर का खर्चा चलाया जा सकता है। इंटरनेट के युग में काम ढूँढ़ना बहुत आसान हो गया है। ऐसे कई पोर्टल हैं, जिनमें अनुवादक और ग्राहक दोनों अपना-अपना विवरण दर्ज करते हैं।
नई दिल्ली के मोहन गार्डन से गांधी चौक जाते समय पीपल वाला चौक पड़ता है। वहाँ रोज सुबह सात बजे मजदूरों का जमावड़ा लगता है। मजदूर आकर जमा होते हैं, और उन्हें काम देने वाले वहाँ आकर अपनी जरूरत के मजदूरों को चुन लेते हैं। जिन्हें काम मिल गया, उनकी पौ बारह हो जाती है और जिन्हें नहीं मिला, वे दस-ग्यारह बजे तक इंतजार करके खाली हाथ अपने घर लौट जाते हैं। उस दिन उनकी दिहाड़ी नहीं पकती। अनुवादकों की स्थिति भी जुदा नहीं है।
काम सतत रूप से मिलता रहे, इसके लिए मार्केटिंग और ब्रांडिंग जरूरी है। ब्रांडिंग के लिए अन्य बातों के साथ दो बातें अत्यंत महत्वपूर्ण होती हैं, पहली, डेडलाइन का सम्मान करें, दूसरी, गुणवत्ता बनाए रखें। यही हमारी साख बनाती है, जो कालांतर में काम का नियमित मिलना सुनिश्चित करती है। गुणवत्ता जाँचने का एक सीधा उपाय है, कि यदि ग्राहक हमें दुबारा काम देता है, तो हमारी गुणवत्ता संतोषजनक है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि एजेंसियों का पूरा कारोबार जिन फ्रीलांसर अनुवादकों की मेहनत पर टिका होता है, उन्हें समुचित पारिश्रमिक देने के मामले में वे कंजूसी बरतती हैं। पूरी मलाई स्वयं खा जाती हैं, और अनुवादकों को केवल सूखे टुकड़े देकर निपटा देती हैं। ग्राहक और अनुवादक में सीधा संपर्क हो, यह एक आदर्श स्थिति है। लेकिन इस उद्योग में एजेंसियों का भी अहम स्थान है। एजेंसियों को त्यागना उचित नहीं है, क्योंकि:
- कई अनुवाद प्रोजेक्ट बड़े वॉल्यूम में आते हैं, जैसे माइक्रोसॉफ्ट, गूगल या अन्य सॉफ्टवेयर, हार्डवेयर कंपनियों के तकनीकी मैनुअल, वेबसाइट आदि। इसमें लाखों शब्दों का अनुवाद करना होता है, वह भी अनेक भाषाओं में। इसे करना एक-दो अनुवादकों के बस की बात नहीं होती। इसका ठेका केवल एजेंसियाँ लेती हैं। इसमें एक साथ कई अनुवादकों को लगाना पड़ता है; कंप्यूटर, इंटरनेट और विशेष सॉफ्टवेयर की मदद लेनी पड़ती है। प्रोजेक्ट प्रबंधन, कार्य वितरण, गुणवत्ता जाँच और सत्यापन आदि के बाद सबको एकीकृत करने के लिए अलग-अलग व्यक्ति नियुक्त करने पड़ते हैं। ऐसी बड़ी परियोजना में कार्य करना व्यक्तिगत तौर पर मुमकिन नहीं है। एजेंसियाँ न केवल अनुवाद के लिए नए-नए टूल, अनुवाद मेमोरी प्रदान करती हैं, बल्कि उनका उपयोग भी सिखाती हैं (हालांकि यह व्यवस्था केवल संबद्ध परियोजनाओं के लिए ही होती है)। ये टूल आम तौर पर महँगे होते हैं, जिन्हें व्यक्तिगत रूप से खरीदना फ्रीलांसर अनुवादक के लिए मुश्किल होता है। बड़े प्रोजेक्ट में टीम में अनुवाद करने का अनुभव होता है। ऐसे कार्यों में बहुत कुछ सीखने को मिलता है।
- ज्यादातर एजेंसियाँ किसी भी अनुवादक की तुलना में ज्यादा प्रोफेशनल और परिपक्व होती हैं। उन्हें कारोबार कायम रखना है, अत: गुणवत्ता को लेकर विशेष पाबंद होती हैं। अपने स्तर पर क्वालिटी चेक रखती हैं। थोड़ी भी लापरवाही या गुणवत्ता में कमी होने पर वे अनुवादक को सचेत करती रहती हैं।
- एजेंसियाँ अपनी मार्केटिंग बड़े पैमाने पर करती हैं, ताकि उन्हें अधिक से अधिक कार्य मिल सके। वे मार्केटिंग और टेंडर, कोटेशन आदि की प्रक्रिया पार करके काम लाती हैं। उनके ग्राहक के साथ अनुबंधों में गुणवत्ता में कमी या विलंब पर पेनल्टी आदि का भी प्रावधान होता है। इस लिहाज से देखें तो एजेंसियों को कई प्रकार का जोखिम होता है, जबकि उसी प्रोजेक्ट के लिए अपने द्वारा नियुक्त अनुवादकों पर इन जोखिमों का असर नहीं पड़ने देतीं।
- अनुवादक और ग्राहक के कंप्यूटर सिस्टम में सॉफ्टवेयर और टूल में संगतता न होने के कारण आउटपुट सही स्वरूप में दिखाई नहीं पड़ता और कई बार समस्या खड़ी हो जाती है। आम ग्राहक इन समस्याओं का आदी नहीं होता, वह इसे अनुवादक का दोष समझता है, अत: इसे दूर करने की जिम्मेदारी भी अनुवादक के सिर पर आन पड़ती है। जबकि एजेंसियाँ इस स्थिति से स्वयं ही निपट लेती हैं। यह उनके लिए रोज का काम होता है, और उन्हें समझाना भी कठिन नहीं होता।
- एजेंसियों के पास काम की कमी नहीं होती। यदि नियमित काम चाहिए, तो एजेंसियों से संपर्क बनाना जरूरी होता है। साथ ही, एजेंसियों के पास विविध प्रकार के काम लगातार आते रहते हैं, इन्हें करने से अनुवादक का एक्सपोजर अधिक होता है, और वैविध्यपूर्ण कार्य का अनुभव बढ़ता है।
- अच्छी एजेंसियाँ कभी अनुवादकों का पैसा नहीं रोकतीं। वे अपनी प्रतिष्ठा के प्रति सचेत होती हैं, यदि कोई विवाद होता भी है, तो पैसे चुकता कर अपना पीछा छुड़ा लेती हैं।