मंगलवार, 26 मई 2015

अपनी ही भाषा को आगे बढ़ने से रोकने वाले लोग (सामयिक वार्ता में शीघ्र प्रकाश्य)

हाल ही में आंबेडकर की एक किताब की भूमिका लिखने के बाद अरुंधती राय विवादों के घेरे में आ गई थीं। इस मामले में भाषा का भी एक पहलू सामने आया था। भारतीय भाषाओं के लेखकों ने यह शिकायत की कि अरुंधती ने आंबेडकर और गाँधी की तुलना करते हुए जो बातें आज कही हैं वही हम पहले से कहते आए हैं लेकिन उनकी तरफ़ कभी ध्यान नहीं दिया गया। उनका यह कहना है कि जो बात अंग्रेज़ी में कही जाती है उसका महत्व कई गुना ज़्यादा बढ़ जाता है। भारतीय भाषाओं की अनदेखी के इस पहलू पर बहुत कम लोगों का ध्यान जाता है। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के ज्ञान और विमर्श की भाषा नहीं बन पाने की वजहों की पड़ताल करते हुए हमारी नज़र सत्ता प्रतिष्ठानों के षड्यंत्रों तक तो चली जाती है लेकिन प्रगतिशील खेमे को हम इस मामले में दूध का धुला मान लेते हैं। अब समय आ गया है कि हम हिंदी पट्टी के बुद्धिजीवियों के पूर्वाग्रहों (इस शब्द पर आगे चर्चा करूँगा) पर बात करें। आम लोगों की ग़लत धारणाओं पर चर्चा करना भी ज़रूरी है।

सबसे पहले प्रगतिशील खेमे में अपनी भाषा को लेकर हीनभावना पर विचार करते हैं। हिंदी के अधिकतर वामपंथी लेखक यह मान बैठे हैं कि भारत में अंग्रेज़ी ही ज्ञान की भाषा बन सकती है। हिंदी के स्तरीय लेखन पर उनका ध्यान ही नहीं जाता। वे पत्रकारिता में हिंदी की समृद्धि की तरफ़ देखते भी नहीं हैं। हिंदी पत्रिकाओं में न जाने कितने स्तरीय आलेख छपे हैं लेकिन उनका सारा ध्यान अंग्रेज़ी में छपी सामग्री की तरफ़ रहता है। रघुवीर सहाय से लेकर सुनील तक वैचारिक लेखन की एक लंबी परंपरा रही है जिसकी अनदेखी अंग्रेज़ीदाँ लेखकों और हिंदी लेखकों दोनों ने की है। सामाजिक विज्ञान में हिंदी विश्‍वकोश तो छप गया लेकिन इस विषय को अंग्रेज़ी की छाया से निकालने की ईमानदार कोशिश आज तक नहीं हो पाई। अगर अकादमिक जगत के लेखक इस मसले को गंभीरता से लें तो ज्ञान के इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में शोधपरक हिंदी लेखन की कमी की शिकायत हमेशा के लिए दूर हो जाएगी। बहुत-से लोगों ने व्यक्‍तिगत स्तर पर बदलाव लाने की कोशिश की है, लेकिन सच तो यही है कि यह काम संस्थान या समूह के स्तर पर ही पूरा हो सकता है।

भारतीय वामपंथियों ने भाषा से जुड़े मसलों पर जैसी वैचारिक शिथिलता दिखाई है उसे देखते हुए निकट भविष्य में उनके नज़रिये में किसी सार्थक बदलाव की उम्मीद नहीं दिखती। न तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की वेबसाइट हिंदी में है न मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की। संसदीय राजनीति का रास्ता चुनने वाली इन पार्टियों ने हिंदी की अनदेखी करके कितना बड़ा जनाधार खोया है इसकी वे कल्पना भी नहीं कर सकते। शायद कल्पना और दृष्टि के इसी अभाव के कारण वे लोक सभा के पहले सत्र में विपक्षी दल बनने के बाद आज अपनी ज़मीन की तलाश करते नज़र आ रहे हैं।

अब बात करते हैं आम लोगों में भाषा से संबंधित ग़लत धारणाओं की। हिंदी में व्याकरण को लेकर दो तरह के अतिवाद देखने को मिलते हैं। एक अतिवाद है व्याकरण के नियमों को पत्थर की लकीर मानना और दूसरा है व्याकरण को सिरे से नकारना।

पहले अतिवाद का लक्षण है दशकों पुरानी किताबों के नियमों के आधार पर आज की भाषा की शुद्धता-अशुद्धता तय करना। चाहे बहुवचन संबोधन में अनुस्वार के प्रयोग पर आपत्ति हो या 'परिषद्' जैसी वर्तनी को सही साबित करने की कोशिश, ऐसे कई उदाहरण हैं जो हिंदी में व्याकरण और वर्तनी के मामले में व्यावहारिक सोच की कमी का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। भाषा हमेशा बदलती रहती है और कल जो नियम सही-ग़लत के दायरे में आता था वह आज एकरूपता के क्षेत्र तक सिमट सकता है। उदाहरण के लिए, पहले 'किये', 'गये' आदि प्रचलित वर्तनियाँ थीं। अब 'किए', 'गए' को ही मानक माना जाता है। अगर आप 'किये', 'गये' आदि लिखते हैं तो आपसे यह उम्मीद की जाएगी कि आप इनके प्रयोग में एकरूपता रखेंगे यानी कहीं 'किये' तो कहीं 'किए' नहीं लिखेंगे। रही बात 'परिषद्' के हलंत होने की तो जब आप हिंदी में शब्द के अंतिम वर्ण में स्वर का उच्चारण ही नहीं करते तो उसे वर्तनी में अनुच्चरित दिखाने का क्या मतलब रह जाता है! अब बात करते हैं बहुवचन संबोधन में अनुस्वार के प्रयोग की मनाही की। अगर आप हिंदी के आम पाठक से यह पूछेंगे कि 'भाई लोगो' और 'भाई लोगों' में कौन-सा रूप सही है तो वह 'भाई लोगों' को ही सही बताएगा। फिर आप उसे बताएँगे कि व्याकरण के अनुसार पहला विकल्प सही है तो वह व्याकरण से आतंकित होकर अपनी ग़लती मान लेगा!

जब आप किसी भाषा को ज्ञान से जोड़ने की कोशिश करेंगे तो आपको एकरूपता, वर्तनी आदि से जुड़े मसलों से जूझना ही होगा। चूँकि हिंदी में भाषा को केवल विचारों की अभिव्यक्‍ति का साधन मान लिया गया है, इसलिए व्याकरण से जुड़ा विमर्श मुख्यधारा की पत्रिकाओं में कभी नहीं दिखता है। व्याकरण को भाषाई अराजकता से बचने का साधन न मानकर ऐसे शाश्‍वत नियमों का संकलन मान लिया जाता है जिनमें बदलाव संभव ही नहीं है। अंग्रेज़ी में ऐसा नहीं है। इस भाषा में पूर्वसर्ग (प्रीपोज़िशन) को वाक्य के अंत में नहीं रखने के नियम को अब अप्रासंगिक घोषित किया जा चुका है। अंग्रेज़ी के वैयाकरण यह कहने में बिलकुल नहीं हिचकिचाते कि इस भाषा के नियमों को लैटिन व्याकरण के नियमों के अनुसार नहीं ढाला जा सकता। अंग्रेज़ी में वर्तनी के मामले में भी व्यापक विचार-विमर्श होता है। अमेरिकी विद्वान ब्रायन गार्नर ने अंग्रेज़ी शब्दों की स्वीकार्यता के पाँच चरण निर्धारित किए हैं। ये चरण हैं : 1. अमान्य 2. बहुत हद तक अमान्य 3. बहुत हद तक प्रचलित 4. लगभग प्रचलित 5. पूरी तरह प्रचलित। अगर हिंदी में ब्रायन गार्नर जैसे विद्वान होते तो वे 'पूर्वाग्रह' को पाँचवें चरण में रखते। हिंदी में शिकागो मैनुअल जैसी शैली मार्गदर्शिका का नहीं होना भी एक ऐसा तथ्य है जिसकी अनदेखी होती आई है। अगर हमें हिंदी को ज्ञान की भाषा बनाना है तो शैली, व्याकरण, वर्तनी आदि से जुड़ी बातों पर ध्यान देना ही होगा क्योंकि ऐसा नहीं करने पर न तो लेखन में एकरूपता रह पाएगी न अनावश्यक भाषाई विवादों से बचते हुए विचार को बेहतर ढंग से सामने रख पाना संभव हो पाएगा। व्याकरण को सिरे से नकारने के अतिवाद पर भी बात होनी चाहिए। ऐसे हिंदी लेखकों की कमी नहीं है जो अंग्रेज़ी में वर्तनी, व्याकरण आदि से जुड़ी जानकारी हासिल करने के लिए बहुत-सी किताबों के पन्ने उलटा लेंगे, लेकिन हिंदी में वे 'सब कुछ चलता है' की बात आसानी से कह देते हैं। ऐसे लोग 'स्टेटस' को हिंदी में 'स्टेट्स' लिखेंगे और उसे सही साबित करने की कोशिश भी करेंगे। उच्चारण की ऐसी अनदेखी भी नहीं की जानी चाहिए जिससे शब्द का अर्थ ही बदल जाए।

3 टिप्‍पणियां:

  1. Needed Hindi Saralikaran
    I prefer nukta,chandrabindu,anuswar ,ि ,ू and dandaa /full stop free Hindi.
    If Hindi words can be understood in simple spellings(Vartani) and have no other meanings for those words then why not write these words in easy as you pronounce/write Vartani.

    This simplification may ease into easy to read Roman Transliteration.
    Here is my partial conversion in a simple Vartani.

    अपनी ही भाषा को आगे बढने से रोकने वाले लोग (सामयीक वार्ता मॅ शीघ्र प्रकाश्य)
    हाल ही मॅ आन्बेडकर की एक कीताब की भुमीका लीखने के बाद अरुन्धती राय वीवादॉ के घेरे मॅ आ गई थी. इस मामले मॅ भाषा का भी एक पहलु सामने आया था. भारतीय भाषाऑ के लेखकॉ ने यह शीकायत की की अरुन्धती ने आन्बेडकर और गान्धी की तुलना करते हुए जो बातॅ आज कही है वही हम पहले से कहते आए है लेकीन उनकी तरफ कभी ध्यान नही दीया गया. उनका यह कहना है की जो बात अन्ग्रेजी मॅ कही जाती है उसका महत्व कई गुना ज्यादा बढ जाता है. भारतीय भाषाऑ की अनदेखी के इस पहलु पर बहुत कम लोगॉ का ध्यान जाता है. हीन्दी और अन्य भारतीय भाषाऑ के ज्ञान और वीमर्श की भाषा नही बन पाने की वजहॉ की पडताल करते हुए हमारी नजर सत्ता प्रतीष्ठानॉ के षड्यन्त्रॉ तक तो चली जाती है लेकीन प्रगतीशील खेमे को हम इस मामले मॅ दुध का धुला मान लेते है. अब समय आ गया है की हम हीन्दी पट्टी के बुद्धीजीवीयॉ के पुर्वाग्रहॉ (इस शब्द पर आगे चर्चा करुन्गा) पर बात करॅ. आम लोगॉ की गलत धारणाऑ पर चर्चा करना भी जरुरी है.

    सबसे पहले प्रगतीशील खेमे मॅ अपनी भाषा को लेकर हीनभावना पर वीचार करते है. हीन्दी के अधीकतर वामपन्थी लेखक यह मान बैठे है की भारत मॅ अन्ग्रेजी ही ज्ञान की भाषा बन सकती है. हीन्दी के स्तरीय लेखन पर उनका ध्यान ही नही जाता. वे पत्रकारीता मॅ हीन्दी की समृद्धी की तरफ देखते भी नही है. हीन्दी पत्रीकाऑ मॅ न जाने कीतने स्तरीय आलेख छपे है लेकीन उनका सारा ध्यान अन्ग्रेजी मॅ छपी सामग्री की तरफ रहता है. रघुवीर सहाय से लेकर सुनील तक वैचारीक लेखन की एक लन्बी परन्परा रही है जीसकी अनदेखी अन्ग्रेजीदान् लेखकॉ और हीन्दी लेखकॉ दोनॉ ने की है. सामाजीक वीज्ञान मॅ हीन्दी वीश्‍वकोश तो छप गया लेकीन इस वीषय को अन्ग्रेजी की छाया से नीकालने की ईमानदार कोशीश आज तक नही हो पाई. अगर अकादमीक जगत के लेखक इस मसले को गन्भीरता से लॅ तो ज्ञान के इस महत्वपुर्ण क्षेत्र मॅ शोधपरक हीन्दी लेखन की कमी की शीकायत हमेशा के लीए दुर हो जाएगी. बहुत-से लोगॉ ने व्यक्‍तीगत स्तर पर बदलाव लाने की कोशीश की है, लेकीन सच तो यही है की यह काम सन्स्थान या समुह के स्तर पर ही पुरा हो सकता है.

    भारतीय वामपन्थीयॉ ने भाषा से जुडे मसलॉ पर जैसी वैचारीक शीथीलता दीखाई है उसे देखते हुए नीकट भवीष्य मॅ उनके नजरीये मॅ कीसी सार्थक बदलाव की उम्मीद नही दीखती. न तो भारतीय कम्युनीस्ट पार्टी की वेबसाइट हीन्दी मॅ है न मार्क्सवादी कम्युनीस्ट पार्टी की. सन्सदीय राजनीती का रास्ता चुनने वाली इन पार्टीयॉ ने हीन्दी की अनदेखी करके कीतना बडा जनाधार खोया है इसकी वे कल्पना भी नही कर सकते. शायद कल्पना और दृष्टी के इसी अभाव के कारण वे लोक सभा के पहले सत्र मॅ वीपक्षी दल बनने के बाद आज अपनी जमीन की तलाश करते नजर आ रहे है.

    अब बात करते है आम लोगॉ मॅ भाषा से सन्बन्धीत गलत धारणाऑ की. हीन्दी मॅ व्याकरण को लेकर दो तरह के अतीवाद देखने को मीलते है. एक अतीवाद है व्याकरण के नीयमॉ को पत्थर की लकीर मानना और दुसरा है व्याकरण को सीरे से नकारना.

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  2. Rest of Conversion:
    पहले अतीवाद का लक्षण है दशकॉ पुरानी कीताबॉ के नीयमॉ के आधार पर आज की भाषा की शुद्धता-अशुद्धता तय करना. चाहे बहुवचन सन्बोधन मॅ अनुस्वार के प्रयोग पर आपत्ती हो या 'परीषद्' जैसी वर्तनी को सही साबीत करने की कोशीश, ऐसे कई उदाहरण है जो हीन्दी मॅ व्याकरण और वर्तनी के मामले मॅ व्यावहारीक सोच की कमी का प्रमाण प्रस्तुत करते है. भाषा हमेशा बदलती रहती है और कल जो नीयम सही-गलत के दायरे मॅ आता था वह आज एकरुपता के क्षेत्र तक सीमट सकता है. उदाहरण के लीए, पहले 'कीये', 'गये' आदी प्रचलीत वर्तनीयॉ थी. अब 'कीए', 'गए' को ही मानक माना जाता है. अगर आप 'कीये', 'गये' आदी लीखते है तो आपसे यह उम्मीद की जाएगी की आप इनके प्रयोग मॅ एकरुपता रखॅगे यानी कही 'कीये' तो कही 'कीए' नही लीखॅगे. रही बात 'परीषद्' के हलन्त होने की तो जब आप हीन्दी मॅ शब्द के अन्तीम वर्ण मॅ स्वर का उच्चारण ही नही करते तो उसे वर्तनी मॅ अनुच्चरीत दीखाने का क्या मतलब रह जाता है! अब बात करते है बहुवचन सन्बोधन मॅ अनुस्वार के प्रयोग की मनाही की. अगर आप हीन्दी के आम पाठक से यह पुछॅगे की 'भाई लोगो' और 'भाई लोगॉ' मॅ कौन-सा रुप सही है तो वह 'भाई लोगॉ' को ही सही बताएगा. फीर आप उसे बताएन्गे की व्याकरण के अनुसार पहला वीकल्प सही है तो वह व्याकरण से आतन्कीत होकर अपनी गलती मान लेगा!

    जब आप कीसी भाषा को ज्ञान से जोडने की कोशीश करॅगे तो आपको एकरुपता, वर्तनी आदी से जुडे मसलॉ से जुझना ही होगा. चुन्की हीन्दी मॅ भाषा को केवल वीचारॉ की अभीव्यक्‍ती का साधन मान लीया गया है, इसलीए व्याकरण से जुडा वीमर्श मुख्यधारा की पत्रीकाऑ मॅ कभी नही दीखता है. व्याकरण को भाषाई अराजकता से बचने का साधन न मानकर ऐसे शाश्‍वत नीयमॉ का सन्कलन मान लीया जाता है जीनमॅ बदलाव सन्भव ही नही है. अन्ग्रेजी मॅ ऐसा नही है. इस भाषा मॅ पुर्वसर्ग (प्रीपोजीशन) को वाक्य के अन्त मॅ नही रखने के नीयम को अब अप्रासन्गीक घोषीत कीया जा चुका है. अन्ग्रेजी के वैयाकरण यह कहने मॅ बीलकुल नही हीचकीचाते की इस भाषा के नीयमॉ को लैटीन व्याकरण के नीयमॉ के अनुसार नही ढाला जा सकता. अन्ग्रेजी मॅ वर्तनी के मामले मॅ भी व्यापक वीचार-वीमर्श होता है. अमेरीकी वीद्वान ब्रायन गार्नर ने अन्ग्रेजी शब्दॉ की स्वीकार्यता के पान्च चरण नीर्धारीत कीए है. ये चरण है : 1. अमान्य 2. बहुत हद तक अमान्य 3. बहुत हद तक प्रचलीत 4. लगभग प्रचलीत 5. पुरी तरह प्रचलीत. अगर हीन्दी मॅ ब्रायन गार्नर जैसे वीद्वान होते तो वे 'पुर्वाग्रह' को पान्चवॅ चरण मॅ रखते. हीन्दी मॅ शीकागो मैनुअल जैसी शैली मार्गदर्शीका का नही होना भी एक ऐसा तथ्य है जीसकी अनदेखी होती आई है. अगर हमॅ हीन्दी को ज्ञान की भाषा बनाना है तो शैली, व्याकरण, वर्तनी आदी से जुडी बातॉ पर ध्यान देना ही होगा क्यॉकी ऐसा नही करने पर न तो लेखन मॅ एकरुपता रह पाएगी न अनावश्यक भाषाई वीवादॉ से बचते हुए वीचार को बेहतर ढन्ग से सामने रख पाना सन्भव हो पाएगा. व्याकरण को सीरे से नकारने के अतीवाद पर भी बात होनी चाहीए. ऐसे हीन्दी लेखकॉ की कमी नही है जो अन्ग्रेजी मॅ वर्तनी, व्याकरण आदी से जुडी जानकारी हासील करने के लीए बहुत-सी कीताबॉ के पन्ने उलटा लॅगे, लेकीन हीन्दी मॅ वे 'सब कुछ चलता है' की बात आसानी से कह देते है. ऐसे लोग 'स्टेटस' को हीन्दी मॅ 'स्टेट्स' लीखॅगे और उसे सही साबीत करने की कोशीश भी करॅगे. उच्चारण की ऐसी अनदेखी भी नही की जानी चाहीए जीससे शब्द का अर्थ ही बदल जाए.
    प्रस्तुतकर्ता सुयश सुप्रभ पर 1:10 am

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  3. Roman Transliteration:
    As is:
    अब बात करते हैं आम लोगों में भाषा से संबंधित ग़लत धारणाओं की। हिंदी में व्याकरण को लेकर दो तरह के अतिवाद देखने को मिलते हैं। एक अतिवाद है व्याकरण के नियमों को पत्थर की लकीर मानना और दूसरा है व्याकरण को सिरे से नकारना।
    Ab baat karte haiṁ aam logoṁ meṁ bhaaṣaa se saṁbaṁdhit ġalat dhaaraṇaaoṁ kii| hiṁdii meṁ vyaakraṇ ko lekar do tarah ke ativaad dekhne ko milte haiṁ| ek ativaad hai vyaakraṇ ke niymoṁ ko patthar kii lakiir maannaa aur duusraa hai vyaakraṇ ko sire se nakaarnaa|

    In simple Vartani:
    अब बात करते है आम लोगॉ मॅ भाषा से सन्बन्धीत गलत धारणाऑ की. हीन्दी मॅ व्याकरण को लेकर दो तरह के अतीवाद देखने को मीलते है. एक अतीवाद है व्याकरण के नीयमॉ को पत्थर की लकीर मानना और दुसरा है व्याकरण को सीरे से नकारना.

    Ab baat karte hai aam logaw mæ bhaaṣaa se sanbandhiit galat dhaaraṇaaaw kii. hiindii mæ vyaakraṇ ko lekar do tarah ke atiivaad dekhne ko miilte hai. ek atiivaad hai vyaakraṇ ke niiyamaw ko patthar kii lakiir maannaa aur dusraa hai vyaakraṇ ko siire se nakaarnaa.

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