सोमवार, 22 सितंबर 2014

सीसैट विवाद के अनदेखे पहलू

सिविल सेवा परीक्षा में 2011 से लागू हुए सीसैट के विरोध में जो आंदोलन इस साल उठ खड़ा हुआ है उसमें भारतीय लोकतंत्र में समाज के सभी तबकों की भागीदारी के सवाल से जुड़ा आंदोलन बनने की संभावना मौजूद है। इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस संभावना को यथार्थ में बदलने की लिए जो इच्छाशक्‍ति चाहिए वह अभी हमारे समाज और राजनीति में मौजूद नहीं है। हालाँकि इस मुद्दे पर समाज के प्रगतिशील तबके को संगठित करने के प्रयास को जारी रखने का अपना अलग महत्व है। हाल के दशकों में भाषा के मसले को जिस मज़बूती से इस आंदोलन में सामने रखा गया है उसकी दूसरी मिसाल शायद ही कहीं मिलेगी।

हमारे लोकतंत्र के लिए यह शर्म की बात है कि अपनी भाषाओं को सिविल सेवा परीक्षा में जगह दिलाने की कोशिश कर रहे परीक्षार्थियों को पुलिस की मार झेलनी पड़ती है। दिल्ली के मुखर्जी नगर में भारतीय सीमा की सुरक्षा करने वाले जवानों को तैनात करने के फ़ैसले की पृष्ठभूमि को समझे बिना इस आंदोलन को ठीक से समझना नामुमकिन है। मुखर्जी नगर में लड़कियों पर भी लाठियाँ बरसाई गईं। आंदोलन के इतने हिंसात्मक दमन के कारणों पर बात होनी चाहिए। एक ओर तो भाजपा के सांसद मनोज तिवारी आंदोलनकारियों को हर तरह के सहयोग का आश्‍वासन दे रहे थे, वहीं दूसरी ओर मुखर्जी नगर में पुलिस ने ऐसा माहौल बना रखा था कि आंदोलनकारी अपने कमरे से बाहर निकलने से भी डर रहे थे। आख़िर ऐसी क्या वज़ह थी कि श्याम रुद्र पाठक जैसे आंदोलनकारी के नेतृत्व में शांतिपूर्वक प्रदर्शन कर रहे परीक्षार्थियों की आवाज़ को दबाने के लिए सरकार ने साम, दाम, दंड, भेद के तमाम तरीके अपना लिए? इस पर बात करने से पहले इस आंदोलन के प्रति लेकर सरकार और राजनीतिक दलों के रवैये पर नज़र डालते हैं।

पहले सरकार ने इस आंदोलन की अनदेखी करने की रणनीति अपनाई थी। जब मुखर्जी नगर और आस-पास के इलाकों से सैकड़ों आंदोलनकारी कड़ी धूप में चलकर रेसकोर्स गए तो प्रधानमंत्री ने अपने किसी प्रतिनिधि को उनसे बात करने के लिए नहीं भेजा। बाद में जब कई राजनीतिक दलों के नेताओं ने आंदोनकारियों की माँगों का समर्थन किया तो सरकार ने रक्षात्मक मुद्रा अपना ली। इन नेताओं में आम आदमी पार्टी के योगेंद्र यादव, आनंद कुमार, जनता दल (संयुक्‍त) के शरद यादव, राष्ट्रीय जनता दल के पप्पू यादव आदि शामिल हैं। जब जयपुर, इलाहाबाद, चेन्नई, लखनऊ, पटना आदि शहरों से भी धरना-प्रदर्शन की ख़बरें आने लगीं तो सरकार के पास यह विकल्प भी नहीं बचा कि वह इस आंदोलन को दिल्ली के कुछ कोचिंग संस्थानों द्वारा प्रायोजित होने की बात कहकर इसकी अनदेखी कर सके। श्याम रुद्र पाठक ने इस आंदोलन के प्रायोजित होने की बात का खंडन करते हुए कहा कि पुलिस की लाठी खाते हुए आंदोलन करने वाले युवाओं पर इस तरह का आरोप लगाना अपने ही देश की युवाशक्‍ति का अपमान करने के समान है। उन्होंने अपने नेतृत्व में चले आंदोलन में कोचिंग संस्थानों से आर्थिक मदद मिलने की बात से इनकार किया।

आंदोलनकारियों की बड़ी सफलता यह रही कि अगस्त के पहले सप्ताह में संसदीय कार्य मंत्री वेंकैया नायडू को लोक सभा में यह कहना पड़ा कि सरकार सिविल सेवा परीक्षा को आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं में आयोजित करने पर विचार करेगी। लेकिन सरकार के इस आश्‍वासन पर भरोसा करना मुश्किल है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि इसी सरकार ने आंदोलनकारियों की तमाम माँगों को दरकिनार करते हुए ऐसा कदम उठाया जिसका सिविल सेवा परीक्षार्थियों के लिए कोई महत्व नहीं है। सरकार ने सीसैट में अंग्रेज़ी के उन आठ सवालों को छोड़ देने का निर्देश जारी किया जिन्हें हटाने की माँग आंदोलनकारियों ने की ही नहीं थी। कोढ़ में खाज यह कि अनुवाद का स्तर इस साल भी इतना ख़राब था कि प्रतियोगियों का कीमती वक्‍त सवालों को समझने में ही बर्बाद हो गया। इसका फ़ायदा अंग्रेज़ी माध्यम के प्रतियोगियों को ही मिलेगा।

अब सवाल यह उठता है कि आंदोलनकारियों का मनोबल गिराने के लिए सरकार ने ऐसा कदम क्यों उठाया जिससे आंदोलनकारियों में यह संदेश गया कि सरकार उनकी माँगों का मज़ाक उड़ा रही है। इसका जवाब यह है कि सरकार जिस शोषक वर्ग के हित साधने का साधन बनकर रह गई है वह अंग्रेज़ी के बहाने दशकों से देश के संसाधनों पर अपने एकाधिकार पर किसी तरह की दावेदारी को बर्दाश्त नहीं कर सकता है। यहीं आकर हमें इस आंदोलन के हिंसक दमन का कारण समझ में आता है। शोषक वर्ग को अपने एकाधिकार पर उठने वाली उँगली को मरोड़ने की आदत पड़ चुकी है और उसे इस बात से अब कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि वह जिन लोगों का दमन कर रहा है वह मीडिया की सीधी पहुँच से दूर रहने वाले आदिवासी हैं या दिल्ली में रहकर सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने वाले ऐसे लोग जिन तक मीडिया की आसान पहुँच है। ऐसे समय में प्रगतिशील बुद्धिजीवियों का संगठित होना ज़रूरी है। उन्हें केवल इस आधार पर आंदोलन से दूर रहने का नैतिक कारण नहीं मिल जाता कि अधिकतर आंदोलनकारियों में इस मुद्दे को लोकतंत्र के बड़े मूल्यों से जोड़ने की दृष्टि नहीं है। उन्हें इस आंदोलन को सही नज़रिये से देखने की सलाह देने की ज़िम्मेदारी किस वर्ग की है? क्या यह काम सरकार की तमाम ग़लत नीतियों का समर्थन करने वाला मीडिया करेगा?

सीसैट में अनुवाद की ग़लतियों को सुधारने के लिए सरकार के पास लगभग डेढ़ महीने का समय था। जिन गड़बड़ियों की चर्चा टेलीविज़न चैनलों के स्टूडियो से लेकर संसद में हो रही हो, उन्हें इस साल की परीक्षा में भी नहीं सुधारना असल में एक ऐसी लापरवाही है जिसके लिए संघ लोक सेवा आयोग के अधिकारियों को भी जनता की अदालत के कठघरे में खड़ा करना चाहिए। मीडिया में अनुवाद की ग़लतियों पर तो अच्छी-ख़ासी चर्चा हुई लेकिन भाषा से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहुत कम लोगों का ध्यान गया। सिविल सेवा परीक्षा में अंग्रेज़ी प्रश्‍नों के हिंदी अनुवाद में a, b, c, d आदि को हिंदी में न लिखकर अंग्रेज़ी में भी जस का तस छोड़ दिया जाता है। यह एक तरह से हिंदी वर्णमाला के अस्तित्‍व से इनकार करने के समान है। सालों से ऐसा इस तथ्य के बावजूद किया जा रहा है कि केंद्रीय हिंदी निदेशालय ने 1980 में ही a, b, c, d आदि को हिंदी में क, ख, ग, घ आदि लिखने का नियम बना लिया था। ऐसा इसलिए किया गया था कि हिंदी अनुवाद में कुछ लोग क, ख, ग, घ लिखते हैं तो कुछ अ, आ, इ, ई या अ, ब, स, द। इस नियम की अनदेखी करके हिंदी अनुवाद में भी अंग्रेज़ी वर्णों का प्रयोग भारतीय शासन तंत्र में हिंदी के सूक्ष्म अपमान का उदाहरण है।

सीसैट में ग़ैर-मानविकी विषयों के विद्यार्थियों को अनुचित फ़ायदा मिलने की बात को भी सरकार ने हवा में उड़ाने की कोशिश की। सच तो यही है कि गणित, तर्कशक्‍ति आदि के सवालों का बेहतर ढंग से जवाब देने के लिए सालों महँगे कोचिंग संस्थानों में तैयारी करने वाले परीक्षार्थियों की तुलना में मानविकी के विद्यार्थियों को बहुत अधिक मेहनत करनी पड़ती है। वहीं दूसरी ओर, ग़ैर-मानविकी विषयों के विद्यार्थी सामान्य अध्ययन के पेपर में बहुत कम अंक लाकर भी सीसैट के दूसरे पेपर की मदद से आसानी से मुख्य परीक्षा तक पहुँच जाते हैं। मानविकी से तमाम सरकारों को समस्या होती है। इसके विद्यार्थी सरकार से मुश्किल सवाल करने लगते हैं। जनतांत्रिक मूल्यों के प्रचार-प्रसार में मानविकी से मिलने वाली समझ और विश्‍लेषण क्षमता की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। लेकिन 2011 के बाद सिविल सेवा परीक्षा में जिस तरह परीक्षार्थियों के सामाजिक ज्ञान की तुलना में प्रबंधकीय योग्यता को बहुत अधिक महत्व दिया जा रहा है उसे देखते हुए ज्ञान की इस शाखा के हाशिये पर जाने की आशंका भी बढ़ रही है। उच्च शिक्षा में मानविकी की लगातार अनदेखी होती आई है। भारत में सिविल सेवा परीक्षा के बहाने मानविकी को महत्व मिलता रहा है। लेकिन अब सीसैट के कारण इसका महत्व और भी कम हो जाएगा। सरकार को अपनी जनविरोधी नीतियाँ लागू करने के लिए कुशल प्रबंधक चाहिए न कि उसकी मंशा पर सवाल करने वाले लोग। यही वजह है कि बड़ी कंपनियों के दबाव में बनने वाली शिक्षा नीतियों में मानविकी को हाशिये पर डालने की कोशिश की जा रही है।

नौकरशाहों का एक वर्ग सीसैट का पक्ष लेते हुए यह तर्क देता है कि इससे उन परीक्षार्थियों को सिविल सेवा से दूर रखने में मदद मिलती है जो अपनी सत्तावादी और सांप्रदायिक सोच के कारण लोकतंत्र के लिए ख़तरा बन सकते हैं। अगर हम यह मान लें कि तर्कशक्‍ति के मूल्यांकन का इस संदर्भ में महत्व हो सकता है तो भी इन सवालों का आवश्यकता से अधिक संख्या में होने और परीक्षा के अंग्रेज़ी और अबूझ सरकारी हिंदी में होने का सवाल अपनी जगह बना रहेगा। क्या विवेक की भी कोई भाषा होती है? भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में समाज के सभी तबकों को शासन व्यवस्था में शामिल करने के लिए चुने गए प्रतियोगियों को प्रशिक्षण की अवधि के दौरान अंग्रेज़ी में दक्ष बनाया जा सकता है। आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भारतीय भाषाओं में परीक्षा आयोजित करना भी असंभव नहीं है। क्या मानविकी के विद्यार्थियों पर गणित और तर्कशक्‍ति के बहुत-से सवालों का अनावश्यक बोझ डालकर उन्हें परीक्षा की दौड़ में पीछे रहने पर मजबूर करना सही है? क्या स्थानीय समस्याओं को ठीक से समझने के लिए इतिहास, भूगोल, संस्कृति आदि की औसत से बेहतर जानकारी से ज़्यादा महत्वपूर्ण वह गणितीय या तर्कशक्‍ति योग्यता है जिसका मूल्यांकन करने का दावा सीसैट के पक्षधर कर रहे हैं? जिस देश में असमान शिक्षा व्यवस्था हो, वहाँ उच्च वर्ग को प्रबंधन या इंजीनियरिंग की महँगी शिक्षा से मिलने वाली सुविधा को ध्यान में रखकर बनाई गई अलोकतांत्रिक परीक्षा पद्धति पर सवाल उठाना हर ज़िम्मेदार नागरिक का कर्तव्य है। इस सुविधा का अंदाज़ा आप इस तथ्य से लगा सकते हैं कि जहाँ 2010 में मुख्य परीक्षा तक पहुँचने वाले 47.5% प्रतियोगी मानविकी के विद्यार्थी थे वहीं सीसैट लागू होने के बाद 2011 में इनका प्रतिशत घटकर 31.2% रह गया।

इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता है कि भारत में अंग्रेज़ी केवल आर्थिक उन्नति से जुड़ी भाषा नहीं बल्कि औपनिवेशिकता से भी जुड़ी भाषा भी रही है। इसे सीखने पर किसी को आपत्ति नहीं है, लेकिन इसके आधार पर समाज के कमज़ोर तबकों को शासन व्यवस्था से दूर रखने की साज़िश का विरोध करना हमारा कर्तव्य है। सीसैट के विरोध के दौरान अनुवाद की जिन ग़लतियों पर मीडिया में चर्चा हुई वे शासक वर्ग के भाषाई षड्यंत्र के उदाहरण हैं। हिंदी को अनुवाद की भाषा बनाकर उसे न केवल आम लोगों बल्कि हिंदी भाषा के विद्यार्थियों के लिए भी अनुपयोगी बना दिया गया है। यह हिंदी हाशिये पर रहने वाले तबकों को आगे बढ़ने का अवसर देने में नाकाम रहती है। इसे ऐसा बनाकर शासक वर्ग हिंदी को कामकाजी तबके के लिए अनुपयोगी साबित कर देता है। हमें सभी भारतीय भाषाओं को ज्ञान की भाषा बनाने का संकल्प लेना चाहिए। ऐसा करना असंभव नहीं है। भारतीय भाषाओं को साहित्य तक सीमित रखने का नुकसान भारतीय लोकतंत्र को उठाना पड़ा है। अंग्रेज़ी को भाषा न मानकर ज्ञान मान लिया गया है। इससे अंग्रेज़ी में कही गई अधकचरी बात भी भारतीय भाषा में व्यक्‍त की गई सार्थक बात से कमतर साबित हो जाती है।

हमें यह समझना होगा कि भारत में अभी राजनीति जिस दिशा में आगे बढ़ रही है उसमें सरकारी तंत्र बार-बार शासन से ज़्यादा प्रबंधन को महत्व देने की बात कह रहा है। ज्ञान की सभी शाखाओं को प्रबंधन की योग्यता से कमतर आँकने की मानसिकता का विरोध करने के लिए अकादमिक जगत को भी आगे आना चाहिए। तमाम असुविधाओं का सामना करके सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहे आंदोलनकारियों को शिक्षकों, लेखकों, आलोचकों आदि का सहयोग मिलना ही चाहिए। यह देखकर अफ़सोस होता है कि प्रगतिशीलता के अनेक नामवरों ने इस मसले पर चुप्पी साधी रखी। लोकतांत्रिक मूल्यों की लड़ाई केवल कहानी, कविता आदि में नहीं लड़ी जा सकती है। इसके लिए सड़क पर पुलिस की लाठियों का सामना कर रहे लोगों के समर्थन में आगे आना पड़ता है। सीसैट में भाषाओं का मसला उन भाषाओं को बोलने वाले तबकों के लोकतंत्र में प्रतिनिधित्व का मसला है।

मेरा यह आलेख सामयिक वार्ता पत्रिका के सितंबर अंक में छपा है। 

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