सिविल सेवा परीक्षा में 2011 से लागू हुए सीसैट के विरोध में इस साल जो आंदोलन उठ खड़ा हुआ है उसके कारण लंबे समय के बाद हमारे लोकतंत्र में भारतीय भाषाओं की अनदेखी पर बहस का माहौल बना है। हालाँकि जिस देश में पिछले 50 साल में 250 भाषाएँ लुप्त हो गई हैं वहाँ आज़ादी मिलने के दशकों बाद इस मुद्दे पर लोगों का ध्यान जाना कम आश्चर्यजनक नहीं है। भाषाओं की अनदेखी का अर्थ है उस भाषा को बोलने वाले लोगों की अनदेखी और यही वजह है कि लोकतंत्र में विविधता को बचाए रखने का एक बहुत बड़ा साधन उन भाषाओं को समृद्ध करना है जो पूँजी की तानाशाही के इस दौर में हाशिये पर जा रही हैं। लोकतंत्र की विफलता का इससे बड़ा प्रमाण नहीं मिल सकता कि हमारे देश में अपने विषय के जानकारों को भी ज़िंदगी की दौड़ में उन लोगों से पीछे रहना पड़ता है जो अपनी वर्गीय स्थिति के कारण अंग्रेज़ी अच्छी तरह जानते हैं। इसके कुछ अपवाद ज़रूर हैं, लेकिन इन अपवादों से अंग्रेज़ी के वर्चस्व की पुष्टि ही होती है।
भारत में अंग्रेज़ी का अपना एक वर्गीय आधार है। अंग्रेज़ी मीडिया ने सुनियोजित तरीके से इस आंदोलन को ऐसे रट्टुओं का आंदोलन बताया जो अंग्रेज़ी का विरोध करने के बहाने कम मेहनत करके देश की प्रतिष्ठित परीक्षा में अव्वल आने का सपना देखते हैं। आंदोलनकारियों के ज्ञापन को पढ़े बिना इसे केवल हिंदी पट्टी के परीक्षार्थियों का ऐसा आंदोलन बताया गया जो केवल दिल्ली तक सीमित है। सच तो यह है कि जयपुर, पटना, इलाहाबाद, चेन्नई, हैदराबाद आदि शहरों में सीसैट के विरोध में रैलियाँ निकाली गईं। दिल्ली में आंदोलनकारियों ने अपने ज्ञापन में तमाम भारतीय भाषाओं के परीक्षार्थियों की घटती सफलता दर के आँकड़े पेश किए। अंग्रेज़ी मीडिया ने इस मामले को अनुवाद की समस्या तक सीमित करने की भी कोशिश की, जबकि असली समस्या यह है कि भारतीय भाषाओं को शिक्षा व्यवस्था में अनुवाद की भाषा का दर्जा दे दिया गया है।
उच्च शिक्षा में किसी भाषा को अनुवाद पर निर्भर बना देने से उसका विकास रुक जाता है। अनुवाद को ज्ञान प्राप्त करने के कई साधनों में से एक साधन मानने के बदले उसे एकमात्र साधन मानने की मानसिकता ने तमाम भारतीय भाषाओं का नुकसान किया है। हिंदी में यह नुकसान पत्रकारिता, विज्ञापन आदि की बनावटी भाषा में भी दिखता है। इतिहास, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान आदि की हिंदी किताबों में अनुवाद को खाने में चटनी की तरह इस्तेमाल करने के बजाय भोजन ही बना दिया जाता है। इसे हिंदी माध्यम के परीक्षार्थियों के बौद्धिक हाज़मे के बिगड़ने की एक वजह माना जा सकता है। हिंदी के आलेखों में अंग्रेज़ी के शब्दों को रोमन लिपि में लिखने की प्रवृत्ति अंग्रेज़ी के सामने हिंदी के घुटने टेकने का उदाहरण है। भाषाई विविधता को ख़त्म करके अंग्रेज़ी के वर्चस्व वाली ऐसी दुनिया बनाने की कोशिश की जा रही है जिसमें पूँजी के तर्कों को काटने लायक न तो कोई विचारधारा बचे न भाषा।
हमारे देश में अंग्रेज़ी का एक ऐसा तंत्र विकसित किया गया है जिसके कारण सरकारी विभागों और भारतीय शिक्षा व्यवस्था में हिंदी अनुवाद की भाषा बनकर रह गई है। इसकी शुरुआत उसी समय हो गई थी जब संविधान के केवल अंग्रेज़ी संस्करण को मानक घोषित किया गया। इस ग़लती को सुधारने के बजाय हिंदी के ऐसे रूप को जनता पर लादने का काम जारी रखा गया जिसमें न तो भाषा की रचनात्मकता है न विचार का सौंदर्य। क्या करोड़ों लोगों की भाषा होने के बावजूद हिंदी को ज्ञान की भाषा मानने से इनकार करने के पीछे कोई बड़ा षड्यंत्र नहीं है? इस षड्यंत्र को समझने के लिए सीसैट का विरोध कर रहे आंदोलनकारियों की उस माँग को मानने से इनकार करने की वजह पर बात करनी होगी जिसमें सवालों का अनुवाद किए जाने के बजाय उसे हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में तैयार करने की बात कही गई है। जिस देश में सरकार द्वारा आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर करोड़ों रुपये खर्च किए जा सकते हैं, वहाँ इतनी छोटी माँग को मानने से इनकार करते हुए संसाधनों की कमी की बात कहना हास्यास्पद ही है। संघ लोक सेवा आयोग में वर्षों तक स्तरहीन अनुवाद को सुधारने की कोई कोशिश नहीं की गई। यह एक ऐसी लापरवाही है जिसके कारण न जाने कितने परीक्षार्थियों को सिविल सेवा परीक्षा में असफलता का सामना करना पड़ा। अगर किसी सवाल में 'लैंड रिफ़ॉर्म्स' के अनुवाद में 'लैंड' का अनुवाद ही न किया जाए तो इससे हिंदी के परीक्षार्थी की असफलता लगभग तय हो जाती है। सीसैट का विरोध कर रहे आंदोलनकारियों ने अपने ज्ञापन में ऐसे कई उदाहरण पेश किए हैं। अगर हमारे देश में सरकारी जवाबदेही नाम की कोई चीज़ होती तो योग्यता का ढोल पीटने वाले अधिकारियों को इस लापरवाही के कारण अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ता।
सरकारी तंत्र में जिस हिंदी का प्रयोग होता है उसे देवनागरी लिपि में लिखे ऐसे शब्दों का समूह कहना ग़लत नहीं होगा जिनका अर्थ न लिखने वाले व्यक्ति को पता होता है न पढ़ने वाले को। बाज़ार की हिंदी केवल सामान बेचने की भाषा के रूप में अपना अस्तित्व बचा पाई है। यह हिंदी अपनी जड़ों से कटी होने के कारण बेजान-सी दिखती है। मंत्रालयों में भी हिंदी की दुर्गति हो रही है। इसका एक उदाहरण देखिए:
"रक्षा के लिए और सामान्य में श्रमिकों के हितों और जो गरीब का गठन, समाज के वंचितों और नुकसान वर्गों की रक्षा. विशेष रूप से, उच्च उत्पादन और उत्पादकता और के लिए एक स्वस्थ माहौल बनाने का काम करने के कारण संबंध में मंत्रालय की मुख्य जिम्मेदारी है विकास और व्यावसायिक कौशल प्रशिक्षण और रोजगार सेवाओं के समन्वय." (श्रम एवं रोजगार मंत्रालय की वेबसाइट से)
मंत्रालयों की वेबसाइटों पर ऐसी हिंदी के प्रयोग पर मीडिया में भी कोई बहस नहीं होती। हिंदी की रोटी खाने वाले लोगों को भी अपनी भाषा के ऐसे अपमान पर ग़ुस्सा नहीं आता। इसकी वजह यह है कि भारतीय मध्यम वर्ग ने अपनी भाषाओं की चिंता करना छोड़ दिया है। आज़ादी के बाद भी देश की राजनीति में भारतीय भाषाओं को ज्ञान की भाषा का दर्जा दिलाने की कोशिशों को कभी सफलता नहीं मिली। जहाँ तक राजभाषा हिंदी की बात है तो उसे राजभाषा बनने के बावजूद बोली से भी कमतर दर्जा हासिल है। आप बोलियों को समझ सकते हैं, लेकिन राजभाषा हिंदी को समझना कभी-कभार नामुमकिन हो जाता है।
ऐसा नहीं है कि मंत्रालयों की वेबसाइटों में ही अबूझ हिंदी का प्रयोग होता है। सरकारी प्रकाशन में भी हिंदी के साथ वही व्यवहार किया जाता है जैसा ट्रेन की प्रथम श्रेणी बोगी में ग़लती से घुस आए ग़रीबों के साथ होता है। भारत सरकार के प्रकाशन विभाग की किताब 'भारत 2013' की भाषा देखिए:
"विकसित देशों द्वारा कमजोर न्यूनीकरण प्रतिबद्धताओं को सुददृढ़ बनाने, जलवायु परिवर्तन के नाम से एक पक्षीय व्यापार कार्यों को रोकन, जलवायु स्थिरीकरण के दीर्घावधि लक्ष्य के प्रति बढ़ने के उठाने में बराबरी अधिकार सुनिश्चित करने, बहुपक्षीय चैनलों के माध्यम से जलवायु परिवर्तन संबंधी वित्त पोषित करने के लिए पर्याप्त संसाधनों का प्रावधान और उन्हें जुटाने और प्रौद्योगिकी विकास और हस्तान्तरण प्रयासों के भाग के रूप में बौद्धिक सम्पदा अधिकारों पर वार्ता को निरंतर बनाए रखने के संबंध में अभी व्यापक कार्य किया जाना शेष है।"
क्या ऐसी हिंदी से प्रतियोगियों को परीक्षा की तैयारी करने में मदद मिल सकती है? क्या यह भारत सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं है कि वह सरकारी प्रकाशन में ऐसे स्तरहीन अनुवाद की जाँच के लिए विभागीय कार्रवाई का आदेश दे? सरकार इनमें से किसी सवाल का जवाब नहीं देना चाहती है, लेकिन क्या एक प्रबुद्ध नागरिक के रूप में आपकी इस मामले में कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती है? मेरा यह सवाल ऐसे हर नागरिक से है जिसकी रोज़ी-रोटी हिंदी से ही चलती है।
सीसैट के विरोध में जो आंदोलन उठ खड़ा हुआ है उसे तमाम भारतीय भाषाओं में अच्छी किताबों को उपलब्ध कराने, सरकारी नौकरी की परीक्षाओं में भारतीय भाषाओं की जगह बनाने और उच्च शिक्षा में भारतीय भाषाओं को शामिल करने के मुद्दों तक ले जाना होगा। अगर ऐसा नहीं होगा तो उन लोगों की बात सही साबित हो जाएगी जो इस आंदोलन को तलवार से काँटा निकालने की कोशिश बता रहे हैं। सीसैट विरोधी आंदोलन ने सिविल सेवा परीक्षा में भारतीय भाषाओं को शामिल करने के सवाल को ज़िंदा रखा है, लेकिन इस आंदोलन को समाज की दिशा बदलने की प्रक्रिया शुरू करने वाला आंदोलन तभी कहा जा सकेगा जब यह भाषा से जुड़े अन्य मुद्दों पर बहुत-से लोगों को सक्रिय करने में सफल साबित होगा। ऐसा तभी होगा जब हम भाषा के मुद्दे को नौकरी या आर्थिक लाभ के सीमित संदर्भ में न देखकर लोकतंत्र के मूल्यों से जोड़कर देखना शुरू करेंगे।
भारत में अंग्रेज़ी का अपना एक वर्गीय आधार है। अंग्रेज़ी मीडिया ने सुनियोजित तरीके से इस आंदोलन को ऐसे रट्टुओं का आंदोलन बताया जो अंग्रेज़ी का विरोध करने के बहाने कम मेहनत करके देश की प्रतिष्ठित परीक्षा में अव्वल आने का सपना देखते हैं। आंदोलनकारियों के ज्ञापन को पढ़े बिना इसे केवल हिंदी पट्टी के परीक्षार्थियों का ऐसा आंदोलन बताया गया जो केवल दिल्ली तक सीमित है। सच तो यह है कि जयपुर, पटना, इलाहाबाद, चेन्नई, हैदराबाद आदि शहरों में सीसैट के विरोध में रैलियाँ निकाली गईं। दिल्ली में आंदोलनकारियों ने अपने ज्ञापन में तमाम भारतीय भाषाओं के परीक्षार्थियों की घटती सफलता दर के आँकड़े पेश किए। अंग्रेज़ी मीडिया ने इस मामले को अनुवाद की समस्या तक सीमित करने की भी कोशिश की, जबकि असली समस्या यह है कि भारतीय भाषाओं को शिक्षा व्यवस्था में अनुवाद की भाषा का दर्जा दे दिया गया है।
उच्च शिक्षा में किसी भाषा को अनुवाद पर निर्भर बना देने से उसका विकास रुक जाता है। अनुवाद को ज्ञान प्राप्त करने के कई साधनों में से एक साधन मानने के बदले उसे एकमात्र साधन मानने की मानसिकता ने तमाम भारतीय भाषाओं का नुकसान किया है। हिंदी में यह नुकसान पत्रकारिता, विज्ञापन आदि की बनावटी भाषा में भी दिखता है। इतिहास, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान आदि की हिंदी किताबों में अनुवाद को खाने में चटनी की तरह इस्तेमाल करने के बजाय भोजन ही बना दिया जाता है। इसे हिंदी माध्यम के परीक्षार्थियों के बौद्धिक हाज़मे के बिगड़ने की एक वजह माना जा सकता है। हिंदी के आलेखों में अंग्रेज़ी के शब्दों को रोमन लिपि में लिखने की प्रवृत्ति अंग्रेज़ी के सामने हिंदी के घुटने टेकने का उदाहरण है। भाषाई विविधता को ख़त्म करके अंग्रेज़ी के वर्चस्व वाली ऐसी दुनिया बनाने की कोशिश की जा रही है जिसमें पूँजी के तर्कों को काटने लायक न तो कोई विचारधारा बचे न भाषा।
हमारे देश में अंग्रेज़ी का एक ऐसा तंत्र विकसित किया गया है जिसके कारण सरकारी विभागों और भारतीय शिक्षा व्यवस्था में हिंदी अनुवाद की भाषा बनकर रह गई है। इसकी शुरुआत उसी समय हो गई थी जब संविधान के केवल अंग्रेज़ी संस्करण को मानक घोषित किया गया। इस ग़लती को सुधारने के बजाय हिंदी के ऐसे रूप को जनता पर लादने का काम जारी रखा गया जिसमें न तो भाषा की रचनात्मकता है न विचार का सौंदर्य। क्या करोड़ों लोगों की भाषा होने के बावजूद हिंदी को ज्ञान की भाषा मानने से इनकार करने के पीछे कोई बड़ा षड्यंत्र नहीं है? इस षड्यंत्र को समझने के लिए सीसैट का विरोध कर रहे आंदोलनकारियों की उस माँग को मानने से इनकार करने की वजह पर बात करनी होगी जिसमें सवालों का अनुवाद किए जाने के बजाय उसे हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में तैयार करने की बात कही गई है। जिस देश में सरकार द्वारा आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर करोड़ों रुपये खर्च किए जा सकते हैं, वहाँ इतनी छोटी माँग को मानने से इनकार करते हुए संसाधनों की कमी की बात कहना हास्यास्पद ही है। संघ लोक सेवा आयोग में वर्षों तक स्तरहीन अनुवाद को सुधारने की कोई कोशिश नहीं की गई। यह एक ऐसी लापरवाही है जिसके कारण न जाने कितने परीक्षार्थियों को सिविल सेवा परीक्षा में असफलता का सामना करना पड़ा। अगर किसी सवाल में 'लैंड रिफ़ॉर्म्स' के अनुवाद में 'लैंड' का अनुवाद ही न किया जाए तो इससे हिंदी के परीक्षार्थी की असफलता लगभग तय हो जाती है। सीसैट का विरोध कर रहे आंदोलनकारियों ने अपने ज्ञापन में ऐसे कई उदाहरण पेश किए हैं। अगर हमारे देश में सरकारी जवाबदेही नाम की कोई चीज़ होती तो योग्यता का ढोल पीटने वाले अधिकारियों को इस लापरवाही के कारण अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ता।
सरकारी तंत्र में जिस हिंदी का प्रयोग होता है उसे देवनागरी लिपि में लिखे ऐसे शब्दों का समूह कहना ग़लत नहीं होगा जिनका अर्थ न लिखने वाले व्यक्ति को पता होता है न पढ़ने वाले को। बाज़ार की हिंदी केवल सामान बेचने की भाषा के रूप में अपना अस्तित्व बचा पाई है। यह हिंदी अपनी जड़ों से कटी होने के कारण बेजान-सी दिखती है। मंत्रालयों में भी हिंदी की दुर्गति हो रही है। इसका एक उदाहरण देखिए:
"रक्षा के लिए और सामान्य में श्रमिकों के हितों और जो गरीब का गठन, समाज के वंचितों और नुकसान वर्गों की रक्षा. विशेष रूप से, उच्च उत्पादन और उत्पादकता और के लिए एक स्वस्थ माहौल बनाने का काम करने के कारण संबंध में मंत्रालय की मुख्य जिम्मेदारी है विकास और व्यावसायिक कौशल प्रशिक्षण और रोजगार सेवाओं के समन्वय." (श्रम एवं रोजगार मंत्रालय की वेबसाइट से)
मंत्रालयों की वेबसाइटों पर ऐसी हिंदी के प्रयोग पर मीडिया में भी कोई बहस नहीं होती। हिंदी की रोटी खाने वाले लोगों को भी अपनी भाषा के ऐसे अपमान पर ग़ुस्सा नहीं आता। इसकी वजह यह है कि भारतीय मध्यम वर्ग ने अपनी भाषाओं की चिंता करना छोड़ दिया है। आज़ादी के बाद भी देश की राजनीति में भारतीय भाषाओं को ज्ञान की भाषा का दर्जा दिलाने की कोशिशों को कभी सफलता नहीं मिली। जहाँ तक राजभाषा हिंदी की बात है तो उसे राजभाषा बनने के बावजूद बोली से भी कमतर दर्जा हासिल है। आप बोलियों को समझ सकते हैं, लेकिन राजभाषा हिंदी को समझना कभी-कभार नामुमकिन हो जाता है।
ऐसा नहीं है कि मंत्रालयों की वेबसाइटों में ही अबूझ हिंदी का प्रयोग होता है। सरकारी प्रकाशन में भी हिंदी के साथ वही व्यवहार किया जाता है जैसा ट्रेन की प्रथम श्रेणी बोगी में ग़लती से घुस आए ग़रीबों के साथ होता है। भारत सरकार के प्रकाशन विभाग की किताब 'भारत 2013' की भाषा देखिए:
"विकसित देशों द्वारा कमजोर न्यूनीकरण प्रतिबद्धताओं को सुददृढ़ बनाने, जलवायु परिवर्तन के नाम से एक पक्षीय व्यापार कार्यों को रोकन, जलवायु स्थिरीकरण के दीर्घावधि लक्ष्य के प्रति बढ़ने के उठाने में बराबरी अधिकार सुनिश्चित करने, बहुपक्षीय चैनलों के माध्यम से जलवायु परिवर्तन संबंधी वित्त पोषित करने के लिए पर्याप्त संसाधनों का प्रावधान और उन्हें जुटाने और प्रौद्योगिकी विकास और हस्तान्तरण प्रयासों के भाग के रूप में बौद्धिक सम्पदा अधिकारों पर वार्ता को निरंतर बनाए रखने के संबंध में अभी व्यापक कार्य किया जाना शेष है।"
क्या ऐसी हिंदी से प्रतियोगियों को परीक्षा की तैयारी करने में मदद मिल सकती है? क्या यह भारत सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं है कि वह सरकारी प्रकाशन में ऐसे स्तरहीन अनुवाद की जाँच के लिए विभागीय कार्रवाई का आदेश दे? सरकार इनमें से किसी सवाल का जवाब नहीं देना चाहती है, लेकिन क्या एक प्रबुद्ध नागरिक के रूप में आपकी इस मामले में कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती है? मेरा यह सवाल ऐसे हर नागरिक से है जिसकी रोज़ी-रोटी हिंदी से ही चलती है।
सीसैट के विरोध में जो आंदोलन उठ खड़ा हुआ है उसे तमाम भारतीय भाषाओं में अच्छी किताबों को उपलब्ध कराने, सरकारी नौकरी की परीक्षाओं में भारतीय भाषाओं की जगह बनाने और उच्च शिक्षा में भारतीय भाषाओं को शामिल करने के मुद्दों तक ले जाना होगा। अगर ऐसा नहीं होगा तो उन लोगों की बात सही साबित हो जाएगी जो इस आंदोलन को तलवार से काँटा निकालने की कोशिश बता रहे हैं। सीसैट विरोधी आंदोलन ने सिविल सेवा परीक्षा में भारतीय भाषाओं को शामिल करने के सवाल को ज़िंदा रखा है, लेकिन इस आंदोलन को समाज की दिशा बदलने की प्रक्रिया शुरू करने वाला आंदोलन तभी कहा जा सकेगा जब यह भाषा से जुड़े अन्य मुद्दों पर बहुत-से लोगों को सक्रिय करने में सफल साबित होगा। ऐसा तभी होगा जब हम भाषा के मुद्दे को नौकरी या आर्थिक लाभ के सीमित संदर्भ में न देखकर लोकतंत्र के मूल्यों से जोड़कर देखना शुरू करेंगे।
यह आलेख 'सबलोग' पत्रिका के सितंबर, 2014 अंक में प्रकाशित हुआ है।
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