राजभाषा हिंदी ने न केवल जनहिंदी के विकास को रोकने का काम किया है बल्कि इसके कारण अन्य भारतीय भाषाएँ भी असुरक्षित महसूस करती हैं। हम हिंदीवालों को इस सवाल से बचने की कोशिश नहीं करनी चाहिए कि जब गुजरात उच्च न्यायालय ने 2010 में यह साफ़ कर दिया कि भारत की कोई राष्ट्रभाषा नहीं है तो हम हिंदी के राष्ट्रभाषा होने की बात कहने वाले लोगों को सच्चाई बताने से हिचकिचाते क्यों हैं। कहीं इस हिचकिचाहट के पीछे हमारे मन में हिंदी के राष्ट्रभाषा नहीं होने के तथ्य को नकारने की भावना तो नहीं है? राष्ट्रभाषा बनने के मोह में हिंदी साधारण भाषा के रूप में भी अपना अस्तित्व नहीं बचा पाएगी। अगर हम हिंदी के भविष्य को सुरक्षित करना चाहते हैं तो हमें संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भारतीय भाषाओं को भारत की राजभाषा बनाने की माँग का समर्थन करना चाहिए। ऐसा करके हिंदी अन्य भारतीय भाषाओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर राजभाषा हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों का मुकाबला कर पाएगी।
क्या हमने उन लोगों के तर्कों को ठीक से समझने की कोशिश की है जो अपने राज्य में राजभाषा हिंदी के थोपे जाने का विरोध करते हैं? क्या हम कर्नाटक के उन यात्रियों की परेशानी समझ सकते हैं जो ट्रेन या हवाई जहाज से तमिलनाडु जाते समय हिंदी और अंग्रेज़ी में लिखे या बोले गए सुरक्षा निर्देशों को नहीं समझ सकते हैं? क्या केंद्र सरकार की नौकरियों की परीक्षाओं में केवल अंग्रेज़ी और हिंदी का प्रयोग करना अन्य भारतीय भाषाओं के साथ भेदभाव का उदाहरण नहीं है? इन सवालों से बचने की कोशिश वही लोग करेंगे जिन्हें लोकतांत्रिक मूल्यों की परवाह नहीं है। भाषा का सवाल केवल उन असुविधाओं से नहीं जुड़ा होता है जिनका ऊपर उल्लेख किया गया है। भाषा हमारी पहचान से भी जुड़ी होती है। जब बंगाल या कर्नाटक में केंद्र सरकार के कार्यालय में केवल हिंदी और अंग्रेज़ी का प्रयोग होता है तो यह अहिंदीभाषियों के अपमान का भी उदाहरण बनता है। क्या हम बिहार या उत्तर प्रदेश में किसी कार्यालय में हिंदी की जगह कन्नड़ या किसी अन्य भाषा के प्रयोग पर आपत्ति नहीं दर्ज करेंगे? हमें यह समझना होगा कि सभी भारतीय भाषाओं का समान महत्व है।
हाल ही में एक अच्छी पहल सामने आई है। प्रोमोट लैंग्वेज इक्वलिटी नाम के संगठन में कई राज्यों के लोग हिंदी और अंग्रेज़ी को भारतीयों पर थोपने का विरोध करने के लिए एकजुट हुए हैं। यह संगठन संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भारतीय भाषाओं को भारत की राजभाषा बनाने की माँग कर रहा है। इस साल स्वतंत्रता दिवस के समय इस संगठन के सदस्य ट्विटर पर #StopHindiImposition हैशटैग डालकर अपने राज्यों पर हिंदी के थोपे जाने का विरोध कर रहे थे। यह हैशटैग उस दिन ट्विटर पर छाया रहा। उन लोगों ने विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान ट्विटर पर #StopHindiImperialism हैशटैग के माध्यम से अपनी बात सामने रखी। अख़बारों में इस ऑनलाइन विरोध से जुड़ी ख़बरें छपीं। बाद में इस संगठन ने चेन्नई में 19-20 सितंबर को आयोजित सम्मेलन में भाषा अधिकारों से जुड़ा घोषणा पत्र जारी किया। इस सम्मेलन में उन भाषाओं को भी संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग की गई है जिन्हें लंबे समय से अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।
भारत में सही अर्थ में लोकतंत्र तभी आएगा जब जनता अपनी भाषा में सरकार से बात कर पाएगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मन की बात नाम के अपने रेडियो कार्यक्रम में लोगों से हिंदी और अंग्रेज़ी में सवाल करने को कहते हैं। यह कैसा लोकतंत्र है जिसमें नागरिकों को केवल दो भाषाओं में अपनी बात कहने का मौका दिया जाता है? जो सरकार हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषाओं में शामिल करने के लिए लगभग 275 करोड़ रुपये खर्च करने को तैयार है, वह अपने देश में ही नागरिकों की भावनाओं और सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए उनकी भाषाओं के लिए कुछ सार्थक क्यों नहीं करती है? असली मसला संसाधनों की कमी का नहीं है। समस्या यह है कि भारत में लोकतंत्र को केवल चुनावी तिकड़मों तक सीमित कर दिया गया है। अगर सरकार को नागरिकों की सुविधा का ध्यान होता तो रेलवे टिकट केवल हिंदी और अंग्रेज़ी में नहीं होते। वर्तमान केंद्र सरकार अपनी योजनाओं का नामकरण केवल हिंदी में नहीं करती। न्यायालयों में अपनी भाषा में मुकदमा लड़ने की माँग करने वाले लोगों को जेल नहीं जाना पड़ता। करोड़ों लोग अंग्रेज़ी पर अच्छी पकड़ नहीं होने के कारण कुंठित नहीं होते। भारतीय भाषाओं के ग्राहकों को केवल अंग्रेज़ी में जानकारी नहीं दी जाती। संसद में भाषांतरण की सुविधा केवल हिंदी और अंग्रेज़ी में नहीं उपलब्ध होती। ऐसे न जाने कितने तथ्य हैं जो यह साबित करते हैं कि भारत में भाषा को आज तक लोकतंत्र से जोड़कर देखा ही नहीं गया।
ऐसा नहीं है कि केवल सरकार ने भाषा के मसले को ठीक से नहीं समझा है। भारतीय भाषाओं की अनदेखी करने की ग़लती बड़ी कंपनियाँ भी करती हैं। जब अमेज़न ने दक्षिण भारत में अपने ऐप के विज्ञापन में हिंदी का प्रयोग किया तो बहुत-से लोगों ने इसका विरोध किया। दक्षिण भारत में फ्लिपकार्ट के हिंदी विज्ञापन का भी विरोध हुआ। अधिकतर कंपनियों में केवल अंग्रेज़ी और हिंदी जानने वाले लोगों को ग्राहक सहायता टीम में रखा जाता है। अन्य भाषाओं के लोगों को इससे दिक्कत होती है। कंपनियाँ तो फिर भी अपने ग्राहकों की बात मान लेती हैं लेकिन सरकार के अड़ियल रवैये के कारण नागरिकों को बहुत-सी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। जब रेल मंत्रालय ने टिकट को भारतीय भाषाओं में उपलब्ध कराने में अपनी असमर्थता जताई तो प्रोमोट लैंग्वेज इक्वलिटी के कुछ सदस्यों ने मिल-जुलकर ऐसा सॉफ़्टवेयर बनाने की घोषणा की जिससे टिकट में बहुत-सी भारतीय भाषाओं को शामिल करना संभव हो जाएगा।
प्रोमोट लैंग्वेज इक्वलिटी के सदस्यों ने भारतीय भाषाओं की अनदेखी के सवाल पर जो बहस छेड़ी है उससे भारत में भाषा की समस्या से जुड़ी कई ग़लत धारणाओं को दूर करने में भी मदद मिलेगी। पहली ग़लत धारणा तो यह है कि दक्षिण भारत में हिंदी का विरोध करने वाले लोग यह काम नेताओं के बहकावे में आकर ही करते हैं। हमें यह समझना होगा कि अपने ही राज्य के कार्यालयों, बैंकों आदि में अपनी मातृभाषाओं की अनदेखी से उन्हें न केवल असुविधा होती है बल्कि वे इसे अपना अपमान भी मानते हैं। अगर उनकी भाषा की अनदेखी किसी दूसरी भारतीय भाषा के कारण होती तो वे उसका भी विरोध करते। वे अपने राज्य पर हिंदी के थोपे जाने का विरोध कर रहे हैं न कि हिंदी का। इस अंतर को समझे बिना हम उनके तर्कों को ठीक से नहीं समझ पाएँगे। दूसरी ग़लत धारणा यह है कि हिंदी का विरोध करने वाले लोग अंग्रेज़ी के साम्राज्यवादी रूप की अनदेखी करते हैं। प्रोमोट लैंग्वेज इक्वलिटी के घोषणा पत्र में हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों के वर्चस्वकारी रूपों का उल्लेख किया गया है।
अनुवाद को यूरोप की भाषा कहा जाता है। भारत में संवाद के इस साधन को वह प्रतिष्ठा क्यों नहीं दी जा रही है जिसका यह हमेशा से हकदार रहा है? इसका एकमात्र जवाब यह है कि भारत में शासक वर्ग ने विविधता को लोकतंत्र की ताकत बनाने के बदले इसका इस्तेमाल वोट बटोरने और फूट डालने के लिए किया है। यूरोपीय संसद में 24 भाषाओं के अनुवाद की सुविधा उपलब्ध है। मीडिया का एक तबका इसे पैसे की बर्बादी बताता है, लेकिन सच तो यह है कि सांसदों को अपनी भाषा में बात रखने की सुविधा देने से यूरोप में लोकतांत्रिक मूल्यों को मज़बूती मिलती है। जो मीडिया अरबपतियों के अरबों रुपये के टैक्स को माफ़ किए जाने के ख़िलाफ़ कोई मुहिम नहीं चलाता है, उसे अनुवाद पर पैसे की बर्बादी की बात कहते देखकर यह अच्छी तरह समझ में आ जाता है कि मीडिया किस वर्ग के हित साधने की कोशिश में लगा रहता है। जब-जब लोकतंत्र की बात उठेगी, तब-तब अनुवाद के महत्व पर भी चर्चा होगी। लोकतंत्र और अनुवाद को एक-दूसरे से अलग़ करके देखना असंभव है। जब यूरोपीय संसद में दो दर्जन से अधिक भाषाओं में काम किया जा सकता है तो हमारे देश की संसदीय कार्यवाही में आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं के प्रयोग को असंभव क्यों बताया जाता है? हम कब तक इस सवाल की अनदेखी करते रहेंगे? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जनता से उसकी भाषा में बात करना सरकार की ज़िम्मेदारी है। जो सरकार अपनी इस ज़िम्मेदारी से भागती है, वह और कुछ भले ही हो लेकिन लोकतांत्रिक तो बिल्कुल नहीं हो सकती।
मेरा यह आलेख सामयिक वार्ता के सितंबर-अक्टूबर, 2015 अंक में प्रकाशित हुआ है। -- सुयश सुप्रभ
क्या हमने उन लोगों के तर्कों को ठीक से समझने की कोशिश की है जो अपने राज्य में राजभाषा हिंदी के थोपे जाने का विरोध करते हैं? क्या हम कर्नाटक के उन यात्रियों की परेशानी समझ सकते हैं जो ट्रेन या हवाई जहाज से तमिलनाडु जाते समय हिंदी और अंग्रेज़ी में लिखे या बोले गए सुरक्षा निर्देशों को नहीं समझ सकते हैं? क्या केंद्र सरकार की नौकरियों की परीक्षाओं में केवल अंग्रेज़ी और हिंदी का प्रयोग करना अन्य भारतीय भाषाओं के साथ भेदभाव का उदाहरण नहीं है? इन सवालों से बचने की कोशिश वही लोग करेंगे जिन्हें लोकतांत्रिक मूल्यों की परवाह नहीं है। भाषा का सवाल केवल उन असुविधाओं से नहीं जुड़ा होता है जिनका ऊपर उल्लेख किया गया है। भाषा हमारी पहचान से भी जुड़ी होती है। जब बंगाल या कर्नाटक में केंद्र सरकार के कार्यालय में केवल हिंदी और अंग्रेज़ी का प्रयोग होता है तो यह अहिंदीभाषियों के अपमान का भी उदाहरण बनता है। क्या हम बिहार या उत्तर प्रदेश में किसी कार्यालय में हिंदी की जगह कन्नड़ या किसी अन्य भाषा के प्रयोग पर आपत्ति नहीं दर्ज करेंगे? हमें यह समझना होगा कि सभी भारतीय भाषाओं का समान महत्व है।
हाल ही में एक अच्छी पहल सामने आई है। प्रोमोट लैंग्वेज इक्वलिटी नाम के संगठन में कई राज्यों के लोग हिंदी और अंग्रेज़ी को भारतीयों पर थोपने का विरोध करने के लिए एकजुट हुए हैं। यह संगठन संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भारतीय भाषाओं को भारत की राजभाषा बनाने की माँग कर रहा है। इस साल स्वतंत्रता दिवस के समय इस संगठन के सदस्य ट्विटर पर #StopHindiImposition हैशटैग डालकर अपने राज्यों पर हिंदी के थोपे जाने का विरोध कर रहे थे। यह हैशटैग उस दिन ट्विटर पर छाया रहा। उन लोगों ने विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान ट्विटर पर #StopHindiImperialism हैशटैग के माध्यम से अपनी बात सामने रखी। अख़बारों में इस ऑनलाइन विरोध से जुड़ी ख़बरें छपीं। बाद में इस संगठन ने चेन्नई में 19-20 सितंबर को आयोजित सम्मेलन में भाषा अधिकारों से जुड़ा घोषणा पत्र जारी किया। इस सम्मेलन में उन भाषाओं को भी संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग की गई है जिन्हें लंबे समय से अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।
भारत में सही अर्थ में लोकतंत्र तभी आएगा जब जनता अपनी भाषा में सरकार से बात कर पाएगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मन की बात नाम के अपने रेडियो कार्यक्रम में लोगों से हिंदी और अंग्रेज़ी में सवाल करने को कहते हैं। यह कैसा लोकतंत्र है जिसमें नागरिकों को केवल दो भाषाओं में अपनी बात कहने का मौका दिया जाता है? जो सरकार हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषाओं में शामिल करने के लिए लगभग 275 करोड़ रुपये खर्च करने को तैयार है, वह अपने देश में ही नागरिकों की भावनाओं और सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए उनकी भाषाओं के लिए कुछ सार्थक क्यों नहीं करती है? असली मसला संसाधनों की कमी का नहीं है। समस्या यह है कि भारत में लोकतंत्र को केवल चुनावी तिकड़मों तक सीमित कर दिया गया है। अगर सरकार को नागरिकों की सुविधा का ध्यान होता तो रेलवे टिकट केवल हिंदी और अंग्रेज़ी में नहीं होते। वर्तमान केंद्र सरकार अपनी योजनाओं का नामकरण केवल हिंदी में नहीं करती। न्यायालयों में अपनी भाषा में मुकदमा लड़ने की माँग करने वाले लोगों को जेल नहीं जाना पड़ता। करोड़ों लोग अंग्रेज़ी पर अच्छी पकड़ नहीं होने के कारण कुंठित नहीं होते। भारतीय भाषाओं के ग्राहकों को केवल अंग्रेज़ी में जानकारी नहीं दी जाती। संसद में भाषांतरण की सुविधा केवल हिंदी और अंग्रेज़ी में नहीं उपलब्ध होती। ऐसे न जाने कितने तथ्य हैं जो यह साबित करते हैं कि भारत में भाषा को आज तक लोकतंत्र से जोड़कर देखा ही नहीं गया।
ऐसा नहीं है कि केवल सरकार ने भाषा के मसले को ठीक से नहीं समझा है। भारतीय भाषाओं की अनदेखी करने की ग़लती बड़ी कंपनियाँ भी करती हैं। जब अमेज़न ने दक्षिण भारत में अपने ऐप के विज्ञापन में हिंदी का प्रयोग किया तो बहुत-से लोगों ने इसका विरोध किया। दक्षिण भारत में फ्लिपकार्ट के हिंदी विज्ञापन का भी विरोध हुआ। अधिकतर कंपनियों में केवल अंग्रेज़ी और हिंदी जानने वाले लोगों को ग्राहक सहायता टीम में रखा जाता है। अन्य भाषाओं के लोगों को इससे दिक्कत होती है। कंपनियाँ तो फिर भी अपने ग्राहकों की बात मान लेती हैं लेकिन सरकार के अड़ियल रवैये के कारण नागरिकों को बहुत-सी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। जब रेल मंत्रालय ने टिकट को भारतीय भाषाओं में उपलब्ध कराने में अपनी असमर्थता जताई तो प्रोमोट लैंग्वेज इक्वलिटी के कुछ सदस्यों ने मिल-जुलकर ऐसा सॉफ़्टवेयर बनाने की घोषणा की जिससे टिकट में बहुत-सी भारतीय भाषाओं को शामिल करना संभव हो जाएगा।
प्रोमोट लैंग्वेज इक्वलिटी के सदस्यों ने भारतीय भाषाओं की अनदेखी के सवाल पर जो बहस छेड़ी है उससे भारत में भाषा की समस्या से जुड़ी कई ग़लत धारणाओं को दूर करने में भी मदद मिलेगी। पहली ग़लत धारणा तो यह है कि दक्षिण भारत में हिंदी का विरोध करने वाले लोग यह काम नेताओं के बहकावे में आकर ही करते हैं। हमें यह समझना होगा कि अपने ही राज्य के कार्यालयों, बैंकों आदि में अपनी मातृभाषाओं की अनदेखी से उन्हें न केवल असुविधा होती है बल्कि वे इसे अपना अपमान भी मानते हैं। अगर उनकी भाषा की अनदेखी किसी दूसरी भारतीय भाषा के कारण होती तो वे उसका भी विरोध करते। वे अपने राज्य पर हिंदी के थोपे जाने का विरोध कर रहे हैं न कि हिंदी का। इस अंतर को समझे बिना हम उनके तर्कों को ठीक से नहीं समझ पाएँगे। दूसरी ग़लत धारणा यह है कि हिंदी का विरोध करने वाले लोग अंग्रेज़ी के साम्राज्यवादी रूप की अनदेखी करते हैं। प्रोमोट लैंग्वेज इक्वलिटी के घोषणा पत्र में हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों के वर्चस्वकारी रूपों का उल्लेख किया गया है।
अनुवाद को यूरोप की भाषा कहा जाता है। भारत में संवाद के इस साधन को वह प्रतिष्ठा क्यों नहीं दी जा रही है जिसका यह हमेशा से हकदार रहा है? इसका एकमात्र जवाब यह है कि भारत में शासक वर्ग ने विविधता को लोकतंत्र की ताकत बनाने के बदले इसका इस्तेमाल वोट बटोरने और फूट डालने के लिए किया है। यूरोपीय संसद में 24 भाषाओं के अनुवाद की सुविधा उपलब्ध है। मीडिया का एक तबका इसे पैसे की बर्बादी बताता है, लेकिन सच तो यह है कि सांसदों को अपनी भाषा में बात रखने की सुविधा देने से यूरोप में लोकतांत्रिक मूल्यों को मज़बूती मिलती है। जो मीडिया अरबपतियों के अरबों रुपये के टैक्स को माफ़ किए जाने के ख़िलाफ़ कोई मुहिम नहीं चलाता है, उसे अनुवाद पर पैसे की बर्बादी की बात कहते देखकर यह अच्छी तरह समझ में आ जाता है कि मीडिया किस वर्ग के हित साधने की कोशिश में लगा रहता है। जब-जब लोकतंत्र की बात उठेगी, तब-तब अनुवाद के महत्व पर भी चर्चा होगी। लोकतंत्र और अनुवाद को एक-दूसरे से अलग़ करके देखना असंभव है। जब यूरोपीय संसद में दो दर्जन से अधिक भाषाओं में काम किया जा सकता है तो हमारे देश की संसदीय कार्यवाही में आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं के प्रयोग को असंभव क्यों बताया जाता है? हम कब तक इस सवाल की अनदेखी करते रहेंगे? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जनता से उसकी भाषा में बात करना सरकार की ज़िम्मेदारी है। जो सरकार अपनी इस ज़िम्मेदारी से भागती है, वह और कुछ भले ही हो लेकिन लोकतांत्रिक तो बिल्कुल नहीं हो सकती।
मेरा यह आलेख सामयिक वार्ता के सितंबर-अक्टूबर, 2015 अंक में प्रकाशित हुआ है। -- सुयश सुप्रभ
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