हाल ही में आंबेडकर की एक किताब की भूमिका लिखने के बाद अरुंधती राय विवादों के घेरे में आ गई थीं। इस मामले में भाषा का भी एक पहलू सामने आया था। भारतीय भाषाओं के लेखकों ने यह शिकायत की कि अरुंधती ने आंबेडकर और गाँधी की तुलना करते हुए जो बातें आज कही हैं वही हम पहले से कहते आए हैं लेकिन उनकी तरफ़ कभी ध्यान नहीं दिया गया। उनका यह कहना है कि जो बात अंग्रेज़ी में कही जाती है उसका महत्व कई गुना ज़्यादा बढ़ जाता है। भारतीय भाषाओं की अनदेखी के इस पहलू पर बहुत कम लोगों का ध्यान जाता है। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के ज्ञान और विमर्श की भाषा नहीं बन पाने की वजहों की पड़ताल करते हुए हमारी नज़र सत्ता प्रतिष्ठानों के षड्यंत्रों तक तो चली जाती है लेकिन प्रगतिशील खेमे को हम इस मामले में दूध का धुला मान लेते हैं। अब समय आ गया है कि हम हिंदी पट्टी के बुद्धिजीवियों के पूर्वाग्रहों (इस शब्द पर आगे चर्चा करूँगा) पर बात करें। आम लोगों की ग़लत धारणाओं पर चर्चा करना भी ज़रूरी है।
सबसे पहले प्रगतिशील खेमे में अपनी भाषा को लेकर हीनभावना पर विचार करते हैं। हिंदी के अधिकतर वामपंथी लेखक यह मान बैठे हैं कि भारत में अंग्रेज़ी ही ज्ञान की भाषा बन सकती है। हिंदी के स्तरीय लेखन पर उनका ध्यान ही नहीं जाता। वे पत्रकारिता में हिंदी की समृद्धि की तरफ़ देखते भी नहीं हैं। हिंदी पत्रिकाओं में न जाने कितने स्तरीय आलेख छपे हैं लेकिन उनका सारा ध्यान अंग्रेज़ी में छपी सामग्री की तरफ़ रहता है। रघुवीर सहाय से लेकर सुनील तक वैचारिक लेखन की एक लंबी परंपरा रही है जिसकी अनदेखी अंग्रेज़ीदाँ लेखकों और हिंदी लेखकों दोनों ने की है। सामाजिक विज्ञान में हिंदी विश्वकोश तो छप गया लेकिन इस विषय को अंग्रेज़ी की छाया से निकालने की ईमानदार कोशिश आज तक नहीं हो पाई। अगर अकादमिक जगत के लेखक इस मसले को गंभीरता से लें तो ज्ञान के इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में शोधपरक हिंदी लेखन की कमी की शिकायत हमेशा के लिए दूर हो जाएगी। बहुत-से लोगों ने व्यक्तिगत स्तर पर बदलाव लाने की कोशिश की है, लेकिन सच तो यही है कि यह काम संस्थान या समूह के स्तर पर ही पूरा हो सकता है।
भारतीय वामपंथियों ने भाषा से जुड़े मसलों पर जैसी वैचारिक शिथिलता दिखाई है उसे देखते हुए निकट भविष्य में उनके नज़रिये में किसी सार्थक बदलाव की उम्मीद नहीं दिखती। न तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की वेबसाइट हिंदी में है न मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की। संसदीय राजनीति का रास्ता चुनने वाली इन पार्टियों ने हिंदी की अनदेखी करके कितना बड़ा जनाधार खोया है इसकी वे कल्पना भी नहीं कर सकते। शायद कल्पना और दृष्टि के इसी अभाव के कारण वे लोक सभा के पहले सत्र में विपक्षी दल बनने के बाद आज अपनी ज़मीन की तलाश करते नज़र आ रहे हैं।
अब बात करते हैं आम लोगों में भाषा से संबंधित ग़लत धारणाओं की। हिंदी में व्याकरण को लेकर दो तरह के अतिवाद देखने को मिलते हैं। एक अतिवाद है व्याकरण के नियमों को पत्थर की लकीर मानना और दूसरा है व्याकरण को सिरे से नकारना।
पहले अतिवाद का लक्षण है दशकों पुरानी किताबों के नियमों के आधार पर आज की भाषा की शुद्धता-अशुद्धता तय करना। चाहे बहुवचन संबोधन में अनुस्वार के प्रयोग पर आपत्ति हो या 'परिषद्' जैसी वर्तनी को सही साबित करने की कोशिश, ऐसे कई उदाहरण हैं जो हिंदी में व्याकरण और वर्तनी के मामले में व्यावहारिक सोच की कमी का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। भाषा हमेशा बदलती रहती है और कल जो नियम सही-ग़लत के दायरे में आता था वह आज एकरूपता के क्षेत्र तक सिमट सकता है। उदाहरण के लिए, पहले 'किये', 'गये' आदि प्रचलित वर्तनियाँ थीं। अब 'किए', 'गए' को ही मानक माना जाता है। अगर आप 'किये', 'गये' आदि लिखते हैं तो आपसे यह उम्मीद की जाएगी कि आप इनके प्रयोग में एकरूपता रखेंगे यानी कहीं 'किये' तो कहीं 'किए' नहीं लिखेंगे। रही बात 'परिषद्' के हलंत होने की तो जब आप हिंदी में शब्द के अंतिम वर्ण में स्वर का उच्चारण ही नहीं करते तो उसे वर्तनी में अनुच्चरित दिखाने का क्या मतलब रह जाता है! अब बात करते हैं बहुवचन संबोधन में अनुस्वार के प्रयोग की मनाही की। अगर आप हिंदी के आम पाठक से यह पूछेंगे कि 'भाई लोगो' और 'भाई लोगों' में कौन-सा रूप सही है तो वह 'भाई लोगों' को ही सही बताएगा। फिर आप उसे बताएँगे कि व्याकरण के अनुसार पहला विकल्प सही है तो वह व्याकरण से आतंकित होकर अपनी ग़लती मान लेगा!
जब आप किसी भाषा को ज्ञान से जोड़ने की कोशिश करेंगे तो आपको एकरूपता, वर्तनी आदि से जुड़े मसलों से जूझना ही होगा। चूँकि हिंदी में भाषा को केवल विचारों की अभिव्यक्ति का साधन मान लिया गया है, इसलिए व्याकरण से जुड़ा विमर्श मुख्यधारा की पत्रिकाओं में कभी नहीं दिखता है। व्याकरण को भाषाई अराजकता से बचने का साधन न मानकर ऐसे शाश्वत नियमों का संकलन मान लिया जाता है जिनमें बदलाव संभव ही नहीं है। अंग्रेज़ी में ऐसा नहीं है। इस भाषा में पूर्वसर्ग (प्रीपोज़िशन) को वाक्य के अंत में नहीं रखने के नियम को अब अप्रासंगिक घोषित किया जा चुका है। अंग्रेज़ी के वैयाकरण यह कहने में बिलकुल नहीं हिचकिचाते कि इस भाषा के नियमों को लैटिन व्याकरण के नियमों के अनुसार नहीं ढाला जा सकता। अंग्रेज़ी में वर्तनी के मामले में भी व्यापक विचार-विमर्श होता है। अमेरिकी विद्वान ब्रायन गार्नर ने अंग्रेज़ी शब्दों की स्वीकार्यता के पाँच चरण निर्धारित किए हैं। ये चरण हैं : 1. अमान्य 2. बहुत हद तक अमान्य 3. बहुत हद तक प्रचलित 4. लगभग प्रचलित 5. पूरी तरह प्रचलित। अगर हिंदी में ब्रायन गार्नर जैसे विद्वान होते तो वे 'पूर्वाग्रह' को पाँचवें चरण में रखते। हिंदी में शिकागो मैनुअल जैसी शैली मार्गदर्शिका का नहीं होना भी एक ऐसा तथ्य है जिसकी अनदेखी होती आई है। अगर हमें हिंदी को ज्ञान की भाषा बनाना है तो शैली, व्याकरण, वर्तनी आदि से जुड़ी बातों पर ध्यान देना ही होगा क्योंकि ऐसा नहीं करने पर न तो लेखन में एकरूपता रह पाएगी न अनावश्यक भाषाई विवादों से बचते हुए विचार को बेहतर ढंग से सामने रख पाना संभव हो पाएगा। व्याकरण को सिरे से नकारने के अतिवाद पर भी बात होनी चाहिए। ऐसे हिंदी लेखकों की कमी नहीं है जो अंग्रेज़ी में वर्तनी, व्याकरण आदि से जुड़ी जानकारी हासिल करने के लिए बहुत-सी किताबों के पन्ने उलटा लेंगे, लेकिन हिंदी में वे 'सब कुछ चलता है' की बात आसानी से कह देते हैं। ऐसे लोग 'स्टेटस' को हिंदी में 'स्टेट्स' लिखेंगे और उसे सही साबित करने की कोशिश भी करेंगे। उच्चारण की ऐसी अनदेखी भी नहीं की जानी चाहिए जिससे शब्द का अर्थ ही बदल जाए।
सबसे पहले प्रगतिशील खेमे में अपनी भाषा को लेकर हीनभावना पर विचार करते हैं। हिंदी के अधिकतर वामपंथी लेखक यह मान बैठे हैं कि भारत में अंग्रेज़ी ही ज्ञान की भाषा बन सकती है। हिंदी के स्तरीय लेखन पर उनका ध्यान ही नहीं जाता। वे पत्रकारिता में हिंदी की समृद्धि की तरफ़ देखते भी नहीं हैं। हिंदी पत्रिकाओं में न जाने कितने स्तरीय आलेख छपे हैं लेकिन उनका सारा ध्यान अंग्रेज़ी में छपी सामग्री की तरफ़ रहता है। रघुवीर सहाय से लेकर सुनील तक वैचारिक लेखन की एक लंबी परंपरा रही है जिसकी अनदेखी अंग्रेज़ीदाँ लेखकों और हिंदी लेखकों दोनों ने की है। सामाजिक विज्ञान में हिंदी विश्वकोश तो छप गया लेकिन इस विषय को अंग्रेज़ी की छाया से निकालने की ईमानदार कोशिश आज तक नहीं हो पाई। अगर अकादमिक जगत के लेखक इस मसले को गंभीरता से लें तो ज्ञान के इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में शोधपरक हिंदी लेखन की कमी की शिकायत हमेशा के लिए दूर हो जाएगी। बहुत-से लोगों ने व्यक्तिगत स्तर पर बदलाव लाने की कोशिश की है, लेकिन सच तो यही है कि यह काम संस्थान या समूह के स्तर पर ही पूरा हो सकता है।
भारतीय वामपंथियों ने भाषा से जुड़े मसलों पर जैसी वैचारिक शिथिलता दिखाई है उसे देखते हुए निकट भविष्य में उनके नज़रिये में किसी सार्थक बदलाव की उम्मीद नहीं दिखती। न तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की वेबसाइट हिंदी में है न मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की। संसदीय राजनीति का रास्ता चुनने वाली इन पार्टियों ने हिंदी की अनदेखी करके कितना बड़ा जनाधार खोया है इसकी वे कल्पना भी नहीं कर सकते। शायद कल्पना और दृष्टि के इसी अभाव के कारण वे लोक सभा के पहले सत्र में विपक्षी दल बनने के बाद आज अपनी ज़मीन की तलाश करते नज़र आ रहे हैं।
अब बात करते हैं आम लोगों में भाषा से संबंधित ग़लत धारणाओं की। हिंदी में व्याकरण को लेकर दो तरह के अतिवाद देखने को मिलते हैं। एक अतिवाद है व्याकरण के नियमों को पत्थर की लकीर मानना और दूसरा है व्याकरण को सिरे से नकारना।
पहले अतिवाद का लक्षण है दशकों पुरानी किताबों के नियमों के आधार पर आज की भाषा की शुद्धता-अशुद्धता तय करना। चाहे बहुवचन संबोधन में अनुस्वार के प्रयोग पर आपत्ति हो या 'परिषद्' जैसी वर्तनी को सही साबित करने की कोशिश, ऐसे कई उदाहरण हैं जो हिंदी में व्याकरण और वर्तनी के मामले में व्यावहारिक सोच की कमी का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। भाषा हमेशा बदलती रहती है और कल जो नियम सही-ग़लत के दायरे में आता था वह आज एकरूपता के क्षेत्र तक सिमट सकता है। उदाहरण के लिए, पहले 'किये', 'गये' आदि प्रचलित वर्तनियाँ थीं। अब 'किए', 'गए' को ही मानक माना जाता है। अगर आप 'किये', 'गये' आदि लिखते हैं तो आपसे यह उम्मीद की जाएगी कि आप इनके प्रयोग में एकरूपता रखेंगे यानी कहीं 'किये' तो कहीं 'किए' नहीं लिखेंगे। रही बात 'परिषद्' के हलंत होने की तो जब आप हिंदी में शब्द के अंतिम वर्ण में स्वर का उच्चारण ही नहीं करते तो उसे वर्तनी में अनुच्चरित दिखाने का क्या मतलब रह जाता है! अब बात करते हैं बहुवचन संबोधन में अनुस्वार के प्रयोग की मनाही की। अगर आप हिंदी के आम पाठक से यह पूछेंगे कि 'भाई लोगो' और 'भाई लोगों' में कौन-सा रूप सही है तो वह 'भाई लोगों' को ही सही बताएगा। फिर आप उसे बताएँगे कि व्याकरण के अनुसार पहला विकल्प सही है तो वह व्याकरण से आतंकित होकर अपनी ग़लती मान लेगा!
जब आप किसी भाषा को ज्ञान से जोड़ने की कोशिश करेंगे तो आपको एकरूपता, वर्तनी आदि से जुड़े मसलों से जूझना ही होगा। चूँकि हिंदी में भाषा को केवल विचारों की अभिव्यक्ति का साधन मान लिया गया है, इसलिए व्याकरण से जुड़ा विमर्श मुख्यधारा की पत्रिकाओं में कभी नहीं दिखता है। व्याकरण को भाषाई अराजकता से बचने का साधन न मानकर ऐसे शाश्वत नियमों का संकलन मान लिया जाता है जिनमें बदलाव संभव ही नहीं है। अंग्रेज़ी में ऐसा नहीं है। इस भाषा में पूर्वसर्ग (प्रीपोज़िशन) को वाक्य के अंत में नहीं रखने के नियम को अब अप्रासंगिक घोषित किया जा चुका है। अंग्रेज़ी के वैयाकरण यह कहने में बिलकुल नहीं हिचकिचाते कि इस भाषा के नियमों को लैटिन व्याकरण के नियमों के अनुसार नहीं ढाला जा सकता। अंग्रेज़ी में वर्तनी के मामले में भी व्यापक विचार-विमर्श होता है। अमेरिकी विद्वान ब्रायन गार्नर ने अंग्रेज़ी शब्दों की स्वीकार्यता के पाँच चरण निर्धारित किए हैं। ये चरण हैं : 1. अमान्य 2. बहुत हद तक अमान्य 3. बहुत हद तक प्रचलित 4. लगभग प्रचलित 5. पूरी तरह प्रचलित। अगर हिंदी में ब्रायन गार्नर जैसे विद्वान होते तो वे 'पूर्वाग्रह' को पाँचवें चरण में रखते। हिंदी में शिकागो मैनुअल जैसी शैली मार्गदर्शिका का नहीं होना भी एक ऐसा तथ्य है जिसकी अनदेखी होती आई है। अगर हमें हिंदी को ज्ञान की भाषा बनाना है तो शैली, व्याकरण, वर्तनी आदि से जुड़ी बातों पर ध्यान देना ही होगा क्योंकि ऐसा नहीं करने पर न तो लेखन में एकरूपता रह पाएगी न अनावश्यक भाषाई विवादों से बचते हुए विचार को बेहतर ढंग से सामने रख पाना संभव हो पाएगा। व्याकरण को सिरे से नकारने के अतिवाद पर भी बात होनी चाहिए। ऐसे हिंदी लेखकों की कमी नहीं है जो अंग्रेज़ी में वर्तनी, व्याकरण आदि से जुड़ी जानकारी हासिल करने के लिए बहुत-सी किताबों के पन्ने उलटा लेंगे, लेकिन हिंदी में वे 'सब कुछ चलता है' की बात आसानी से कह देते हैं। ऐसे लोग 'स्टेटस' को हिंदी में 'स्टेट्स' लिखेंगे और उसे सही साबित करने की कोशिश भी करेंगे। उच्चारण की ऐसी अनदेखी भी नहीं की जानी चाहिए जिससे शब्द का अर्थ ही बदल जाए।