मंगलवार, 12 नवंबर 2013

हिंदी का बाज़ार (लेखक : दीपक शर्मा)


हिंदी भाषा के लिए काफी समय से एक जुमला प्रचलित है कि ‘हिंदी गरीब की भौजाई है’ लेकिन अब इस जुमले का अतिक्रमण करती हुई हिंदी भाषा गरीब की भौजाई ही नहीं, इस बाज़ार की मां बन बैठी है। बाज़ार को अपनी इस मां का आंचल थाम कर ही आगे बढ़ना होगा। मीडिया के संदर्भ में अगर बात की जाए तो कहना होगा कि आज हर चैनल या तो हिंदी में अपना प्रसारण कर रहा है या करना चाहता है। हॉलीवुड फिल्मों का हिंदी में डब करके प्रसारण हो रहा है और अब तो दक्षिण भारतीय फिल्मों का भी प्रसारण हिंदी में विभिन्न चैनलों पर होता रहता है जो हिंदी की बढती हुई शक्ति को ही दर्शाता है। न केवल कंप्यूटर बल्कि मोबाइल फोन में भी हिंदी के विभिन्न सोफ्टवेयरों का प्रयोग किया जा रहा है और हिंदी भाषा से संबंधित नये-नये कार्यक्रमों को भी निर्मित किया जा रहा है। हर देशी और विदेशी कंपनी हिंदी भाषा में अपना एक निजी हिंदी चैनल लाने की ताक में रहती है। साहित्य के क्षेत्र में भी अन्य भाषाओं से सबसे ज्यादा अनुवाद हिंदी भाषा में ही किये जा रहे हैं। इस बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था और इससे उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों ने हिंदी भाषा के संसार को ही बदल कर रख दिया है। यह बदलाव इस गति से हो रहा है कि उसे ठीक से कुछ निश्चित शब्दों में बांधना बहुत मुश्किल कार्य है।



भाषा एक ऐसा माध्यम है जिसके अभाव में संसार की हर संस्कृति और समाज व्यर्थ है। उस समाज और संस्कृति से सम्बंधित हर नियम और संस्कार का कोई मोल नहीं है। भाषा ही है जो हमें वि२व भर से जोड़ने का काम करती हुई लोगों को ग्लोबल अभिव्यक्ति दिलाने में सहायक होती है। संसार से भाषा की अगर विदाई हो जाए तो जीने का कोई महत्व ही नहीं रह जाएगा। भाषा का वास्तविक अर्थ किसी भाव और विचार का सफल सम्प्रेषण होता है फिर भले ही भाषा का स्वरुप कोई भी हो। इस बात को हिंदी भाषा के संदर्भ में रख कर देखा जाए तो कहना होगा कि आज हिंदी भाषा भी अपने पुराने चोले को उतारकर नयी होकर हमारे सम्मुख उपस्थित है। जिस शुद्धतावादी दृष्टिकोण की दुहाई आमतौर पर हिंदी के लिए दी जाती रही है उसे हिंदी भाषा ने काफी पीछे छोड़ दिया है जो आज के परिदृश्य में बहुत ज़रुरी भी था। अगर हिंदी भाषा को इसी शुद्धतावाद के फेरे में व्यस्त रखा तो वह दिन दूर नहीं जब हिंदी भाषा की मृत्यु पर शोक मनाने वाला भी कोई नहीं मिलेगा और न ही कोई हिंदी पढ़ना-लिखना चाहेगा। भाषा का उद्देश्य सरल रूप में भावों और विचारों को अपने लक्षित वर्ग तक पहुंचाना होता है और आज हिंदी यही कर रही है।

हर वर्ष में आने वाला सितम्बर का महीना हिंदी के लिए जीवन बूटी का काम करता है जिसमें हिंदी भाषा के भविष्य को लेकर अनेक तरह के सकारात्मक पहलुओं को सबके सम्मुख रखा जाता है। हर बार की तरह इस बार भी सितम्बर का महीना आने पर हिंदी पखवाड़े में अनेक प्रकार की हलचले हुईं, और ऐसा होना भी लाज़मी है आख़िरकार इस महीने की 14 तारीख को हिंदी दिवस जो आता है। हर बार की तरह इस वर्ष भी हिंदी दिवस आया और चला भी गया। इस दौरान विभिन्न प्रकार की गोष्ठियों एवं सम्मेलनों में हिंदी की चिंता करते हुए अनेक विद्वानों द्वारा बड़े जोर शोर से लंबे-लंबे भाषण दिये गये तथा हिंदी को राष्ट्रभाषा और वि२वभाषा बनाने की घोषणाएं की गयीं। लेकिन अगले ही पल हिंदी से सम्बंधित यह चिंताएं और बड़े बड़े दावे चारों खाने चित्त मिलते हैं। मतलब जिस औपचारिकता के साथ हिंदी के वर्तमान एवं भविष्य की चिंताएं हम सुनते-पढ़ते हैं, वह सब मात्र औपचारिक रूप में ही रह जाता है जिसका व्यावहारिक प्रयोग हमें देखने को नहीं मिलता। मज़ेदार बात तो यह है कि इस प्रकार के सम्मेलनों में हमें केवल हिंदी का अध्ययन-अध्यापन करने वाले लोगों के अलावा इक्का-दुक्का मंत्री और नेता के साथ प्रिंट मीडिया का एकाधा पत्रकार ही नज़र आता है। प्रिंट मीडिया का पत्रकार इस दौरान पूरे तेवर लिए हुए रहता है जो गोया हिंदी से सम्बंधित इन कार्यक्रमों को कवर करके कोई अहसान हिंदी समाज पर कर रहा हो। इसके अतिरिक्त इलेक्ट्रोनिक मीडिया तो यह अहसान करने की भी जेहमत नहीं उठता। यहां प्रश्न यह उठता है कि हिंदी के प्रति यह जागरूकता आखिर किसके लिए है? जिस समाज में हिंदी की आवश्यकता को बताना ज़रुरी है, वही जब इनसे नदारद रहता है तो वह कैसे हिंदी के महत्व को समझ सकेगा? मीडिया की भूमिका भी हिंदी के प्रति उपेक्षित ही नज़र आती है जो हिंदी की खाकर भी हिंदी के प्रति उदासीन रहता है।

वर्तमान समय में हम देखते हैं कि जिस भारत में पहले वेलेंटाइन डे का ही चलन था और जिसकी अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकृति के बाद मदर डे, फादर डे, फ्रेंडशिप डे, चोकलेट डे और न जाने कितनी तरह के दिवसों को मनाने का चलन बढता जा रहा है वहीं हमारे अन्य महत्वपूर्ण दिवसों के प्रति हमारे समाज की रूचि या तो कम हुई है या परिवर्तित हुई है। उल्लेखनीय है कि इन अन्य दिवसों की तुलना में हिंदी दिवस या कहे तो हिंदी डे के प्रति एक बहुसंख्यक वर्ग की कोई रूचि ही नहीं रहती। गौरतलब है कि जिन दिवसों का आज हमारे भारत में चलन हो चला है, वे दरअसल अन्य देशों में समयाभाव के कारण उस विशेष दिन पर उस रिश्ते को मनाने के लिए खोजे गये हैं। लेकिन क्या हम भारतीय परिवेश में ऐसा सोच सकते हैं कि हम अपने मित्र से केवल उसी दिन मिले, जिस दिन फ्रेंडशिप दिवस हो। अपने माता पिता को एक विशेष दिन कुछ कार्ड्स या गिफ्ट देकर खुश करें भले ही उन्हें अपने साथ रखने में हमें तकलीफ होती हो। और क्या जिस उद्देश्य और विचारधारा के चलते इन दिवसों को मनाया जाता है, क्या उसी दृष्टि से हमें हिंदी दिवस या कहें तो हिंदी डे को भी मनाना चाहिए तभी जाकर हम हिंदी भाषा का प्रचार प्रसार कर सकते हैं? स्पष्ट है कि यह विभिन्न प्रकार के दिवस इसलिय मनाये जाते हैं ताकि इनके प्रति लोगों को संवेदनशील बनाये रखा जा सके। लेकिन प्र२न यहां फिर यह उठता है कि क्या सच में हिंदी इस स्थिति में आ पहुंची है कि लोगों को हिंदी के प्रति जागरूक करने के लिए समय-समय पर हिंदी दिवसों का आयोजन करना पड़े? कारण, हिंदी दिवसों या अनेक अन्य अवसरों पर हिंदी की दुर्दशा पर रोना रोया जाता है तथा हिंदी भाषा से गायब होने वाले परम आवश्यक तत्व ‘शुद्धतावाद’ के लिए छाती पीटी जाती हैं। अब अनेक हिंदी आलोचकों को तो यह भी बुरा लग जाएगा कि लेखक ने हिंदी डे क्यों लिखा है। खैर, प्रश्न यहां यह है कि साल भर में एक- दो दिन हिंदी भाषा से सम्बंधित समस्याओं की मात्र चर्चा करके हिंदी भाषा का विकास किया जा सकता है।

प्रश्न यह भी है कि आखिर ऐसे क्या कारण हो गए हैं कि हिंदी दिवस को मनाना ज़रुरी होता जा रहा है? इसके जवाब में यह कहना होगा कि हिंदी भाषा को हिंदी समाज की मानसिकता ने ही पीछे किया है। एक विशेष वर्ग ने हिंदी का मतलब केवल साहित्यिक विशुद्ध हिंदी ही माना है और जब तक यह सोच हिंदी समाज में उपस्थित रहेगी तब तक हिंदी की स्थिति को सुधारा नहीं जा सकता। सभी को पता है कि हिंदी भाषा का हृदय बहुत विशाल है जिसके भीतर संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, फ़ारसी, अरबी, तुर्की, अंग्रेजी, फ़्रांसिसी इत्यादि भाषाओं के साथ-साथ भारत की ही अनेक बोलियों के शब्द समाहित हैं जिन्हें हिंदी ने बहुत ही खुले मन से अपनाया है और जो हिंदी भाषा के ही अपने शब्द प्रतीत होते हैं। अब अनेक आलोचक तो हिंदी भाषा से अन्य भाषाओं के साथ-साथ ब्रज, अवधि, भोजपुरी, बांग्ला, खड़ीबोली जैसी बोलियों को भी अलग करने पर जोर देते हैं। इस वर्ग की यह मान्यता है कि इन सबसे विरक्त होकर ही हिंदी भाषा का वास्तविक स्वरुप सबके सामने आएगा और अन्य बोलियों के अस्तित्व को भी बचाया जा सकेगा। लेकिन यहां कहना होगा कि हिंदी भाषा इन बोलियों के अस्तित्व के लिए खतरा न होकर बल्कि उनके अस्तित्व का ही पुनर्निर्माण है जो इन बोलियों को भी एक ग्लोबल अभिव्यक्ति दिलवाती है। इन लोगों को यह क्यों नहीं समझ आता है कि हिंदी में समाविष्ट होकर इन बोलिओं का क्षेत्र विस्तार ही हो रहा है। हिंदी के स्वरुप में रची-पकी यह बोलियां हिंदी से अलग होकर घाटे में ही रहेंगीं क्योंकि जो क्रय-शक्ति एवं बाज़ार आज हिंदी भाषा के पास है वो इन बोलियों को नहीं मिल सकता। वैश्वीकरण ने हिंदी भाषा को जो विस्तार दिया है संभवतः हिंदी को ऐसा विस्तार पाने के लिए कई और वर्ष लगने वाले थे। इसका कारण भी स्पष्ट है कि हिन्दी भाषा के पास एक बहुत बड़ा बाज़ार है जिसे पाने के लिए विभिन्न व्यापारिक निगमों को इस हिंदी भाषा से ही होकर गुज़रना होगा अन्यथा यह निगम भारत में प्रभावशाली रूप से कार्य नहीं कर सकते हैं। इस भूमंडलीकरण का ही प्रभाव मानना चाहिए कि जो हिंदी भाषा अभी तक गरीब एवं पिछड़े वर्गों की भाषा मानी जाती थी अब वह देश और दुनिया में अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज करवा चुकी है। आज हिंदी गरीब और पूंजीवादी वर्ग, दोनों कि भाषा बन चुकी है। फिर भले ही पूंजीवादी वर्ग हिंदी को मज़बूरी में ही अपना रहा हो। आज तो अनेक पूंजीवादी देशों में हिंदी भाषा सिखायी जा रही है खुद अमेरिकन सरकार अपने देश में हिंदी भाषा को सिखाने के लिए लाखों-करोड़ों डॉलर खर्च कर रही है। इसी क्रम में ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी इत्यादि देशों का नाम भी लिया जा सकता है।

यह सर्वविदित है कि हिंदी भाषा बोलने और समझने की दृष्टि से मंदारिन के बाद दूसरे नंबर पर आती है और जिस अंग्रेजी भाषा का डंका भारत में बज़ रहा है उसका स्थान तीसरा है। अभी हालिया अनुसन्धान के अनुसार यह तथ्य भी सामने आया है कि चीन में मंदारिन बोलने वाले सभी लोग नहीं है जबकि इसके विपरीत हिंदी भाषा केवल भारत में ही नहीं बल्कि देश-विदेश में भी बोली-समझी जाती है जिसको बोलने और समझने वालों की संख्या लगभग सौ करोड़ के आसपास है। कारण, आज विभिन्न देशों में हिंदी का अध्ययन करवाया जा रहा है ताकि वह हिंदी संस्कृति को समझकर अपने माल की अधिकाधिक खपत भारत में कर सके। इस लिहाज़ से हिंदी को वि२व में सर्वाधिक बोली एवं समझी जाने वाली भाषा कह सकते हैं। भविष्य में हिंदी भाषा के इस विस्तार के बढ़ने की भी अनेक घोषणाएं की जा चुकी हैं जिन्हें नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है। हिंदी भाषा की लिपि की अगर बात की जाए तो कहना होगा कि यह विश्व की सबसे वैज्ञानिक लिपि है। इस भाषा में जो जैसा बोला जाता है, वैसा ही लिखा जाता है। यह मंदारिन भाषा की लिपि की तरह कोई चित्र लिपि नहीं है कि जिसे समझने में ही सालों-साल लग जाए। हमें यह भी ज्ञात है कि तुर्किश और इंडोनेशियन भाषा को अपने प्रसार के लिए रोमन लिपि को अपनाना पड़ा लेकिन हिंदी भाषा न केवल भारतीय परिवेश में भावों को अच्छी तरह से व्यक्त करने में समर्थ रही है बल्कि तकनीकी स्तर पर भी हिंदी भाषा ने अपार सफलताएं अर्जित की है। इसी के चलते विभिन्न इन्टरनेट एक्सप्लोरर, ऑपेरा ब्राउज़र, नेटस्केप, मौज़िला के साथ-साथ सबसे बड़ा सर्च इंज़न माने जाने वाला गूगल भी हिंदी को स्वीकार करता है।

जिस ‘ब्लॉग’ की चर्चा अभी तक अंग्रेजी भाषा के संदर्भ में ही होती थी और जो हिंदी भाषा एवं हिंदी भाषियों के लिए एक अजनबी दुनिया थी आज उसी ब्लॉग की दुनिया में हिंदी वालों ने तहलका मचा दिया है। रोज़-रोज़ अनेक हिंदी ब्लोगरों का इस हिंदी ब्लोगिंग के क्षेत्र में आना हिंदी की बढ़ती हुई शक्ति को ही बता रहा है। इस क्षेत्र में जो सबसे क्रांतिकारी काम हुआ, वह था यूनिकोड नामक एक हिंदी भाषा से सम्बंधित ऐसा एन्कोडिंग सिस्टम जिसने हिंदी को वही शक्ति प्रदान की जो अभी तक अंग्रेजी भाषा के पास थी। जिस सरलता से अंग्रेजी भाषा का प्रयोग कंप्यूटर और अन्य तकनीकी क्षेत्रों में किया जाता था अब बिलकुल वैसा ही प्रयोग हिंदी भाषा का भी होने लगा है। इस एन्कोडिंग सिस्टम ने हिंदी की सूरत ही बदल कर रख दी जिससे हिंदी भाषा के बाज़ार में बहुत तेज़ी से विस्तार हुआ और हिंदी विभिन्न व्यापारिक निगमों से हाथ मिलाकर उनकी हमकदम बन गयी। यहां फिर यह बात सिद्ध हो जाती है कि हिंदी का हृदय बहुत विशाल और तालमेल बिठाने वाला है जिसने न केवल अन्य भाषाओं बल्कि टेक्नोलॉजी के साथ भी कदम मिलाया है। यही वह शक्ति है जिसकी बार-बार चर्चा हम यहां करना चाहते हैं जिसकी तरफ सबका ध्यान भी आकर्षित करना चाहते हैं।

हिंदी भाषा के लिए काफी समय से एक जुमला प्रचलित है कि ‘हिंदी गरीब की भौजाई है’ लेकिन अब इस जुमले का अतिक्रमण करती हुई हिंदी भाषा गरीब की भौजाई ही नहीं, इस बाज़ार की मां बन बैठी है। बाज़ार को अपनी इस मां का आंचल थाम कर ही आगे बढ़ना होगा। मीडिया के संदर्भ में अगर बात की जाए तो कहना होगा कि आज हर चैनल या तो हिंदी में अपना प्रसारण कर रहा है या करना चाहता है। हॉलीवुड फिल्मों का हिंदी में डब करके प्रसारण हो रहा है और अब तो दक्षिण भारतीय फिल्मों का भी प्रसारण हिंदी में विभिन्न चैनलों पर होता रहता है जो हिंदी की बढती हुई शक्ति को ही दर्शाता है। न केवल कंप्यूटर बल्कि मोबाइल फोन में भी हिंदी के विभिन्न सोफ्टवेयरों का प्रयोग किया जा रहा है और हिंदी भाषा से संबंधित नये-नये कार्यक्रमों को भी निर्मित किया जा रहा है। हर देशी और विदेशी कंपनी हिंदी भाषा में अपना एक निजी हिंदी चैनल लाने की ताक में रहती है। साहित्य के क्षेत्र में भी अन्य भाषाओं से सबसे ज्यादा अनुवाद हिंदी भाषा में ही किये जा रहे हैं। इस बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था और इससे उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों ने हिंदी भाषा के संसार को ही बदल कर रख दिया है। यह बदलाव इस गति से हो रहा है कि उसे ठीक से कुछ निश्चित शब्दों में बांधना बहुत मुश्किल कार्य है। लेकिन इस बदलाव ने निश्चय ही हिंदी भाषा के शब्द भंडार को समृद्ध किया है जिसके कारण हिंदी के विस्तार की गति और भी तेज हो गयी है। इसे हम यों भी कह सकते है कि हिंदी स्वतंत्र होकर बिना किसी सरकारी सहायता के आगे बढ़ रही है। हिंदी भाषा में यह दम और साहस इसी बाज़ार ने दिया है जिसे हिंदी साहित्यिक समाज दिन रात कोसते रहते हैं। जिस हिंदी के विकास में सरकारी तंत्र पिछले अनेक वर्षों से प्रयासरत रहा है और जिसने हिंदी सुधार के नाम पर हिंदी को केवल किताबों और पुस्तकालयों तक ही सीमित कर दिया जबकि बाज़ार ने उसी हिंदी का बहुत ही रचनात्मक और व्यावहारिक प्रयोग कर हिंदी का भूगोल ही बदल डाला है। सरकारी कार्यालयों में एक पंक्ति अवश्य देखते हैं – ‘अगर आप हिंदी में बात करेंगे तो हमें प्रसन्नता होगी’। लेकिन इसके अलावा कुछ भी सार्थक काम हिंदी के प्रति नहीं किया गया है। हिंदी भाषा के प्रति जो धिक्कार बोध इसप्रकार की क्रियाओं द्वारा विकसित हुआ है, उसी पर सबसे पहले इस नयी हिंदी ने चोट की है। उसी हिंदी ने आज इससे अलग अपनी एक दुनिया को निर्मित किया है जिसे आज पहचानना बहुत ज़रुरी है। सही मायनों में वही हिंदी की वास्तविक शक्ति है।

हिंदी के लिए अनेक विद्वानों का तर्क रहा है कि हिंदी का वास्तविक अर्थ वह हिंदी है जिसमें अनिवार्य रूप से शुद्धता का ध्यान रखा जाए, जिसमें अंग्रेजी व अन्य भाषाओं के शब्दों का समावेश नहीं होना चाहिए और अगर ऐसा कहीं होता भी है तो उस हिंदी भाषा से उन शब्दों को तुरंत निकाल कर बाहर का रास्ता दिखा देना चाहिए। ऐसे लोगों का उद्देश्य हिंदी को एक विशुद्ध भाषा के रूप में सुरक्षित रखने का होता है। किंतु ये लोग हिंदी के शुद्धतावाद को भले ही संभाल कर रख ले मगर हिंदी को जनसमाज से काट देते हैं। इस विशुद्ध हिंदी से केवल एक विशेष पाठक वर्ग ही जुड़ पाता है जिसका संबंध हिंदी अध्ययन-अध्यापन से अनिवार्य रूप से रहता है। यह ऐसी हिंदी होती है जिसे पढ़कर कोई जन, हिंदी-संस्कृति और हिंदी-व्याकरण को तो भलीभांति समझ सकता है लेकिन हिंदी को उत्पादन एवं व्यवसाय से नहीं जोड़ पाता। हिंदी भाषा के व्यावहारिक बोध से वंचित रहकर, हिंदी के प्रति एक धिक्कार बोध से ग्रसित हो जाता है। अधिक से अधिक वह हिंदी भाषा और साहित्य से संबंधित एक-दो किताबें लिखकर कुछ रूपये-पैसों का इंतजाम तो कर सकता है लेकिन हिंदी की वास्तविक शक्ति से अपरिचित ही रहता है। ऐसी हिंदी ही हिंदी भाषियों में एक ग्लानी बोध को जन्म देती है जिसके चलते हिंदी भाषी स्वयं को अन्यों से पिछड़े हुए मानने लगते हैं। स्वयं को दूसरों की नज़रों से देखना प्रारंभ कर देते है जिसमें उन्हें सिवाए उपेक्षा और कभी सहानुभूति के अलावा कुछ नहीं मिलता। जब तक हम इसी हिंदी के दामन को पकड़कर आगे बढेंगें तब तक हिंदी भाषा और हिंदी बोलने वालों को उपेक्षा और तिरस्कार का सामना करना पड़ेगा। आज उपभोक्तावादी व्यवस्था ने हिंदी भाषियों को एक राह सुझाई है कि कैसे हिंदी का सही इस्तेमाल हो सकता है। हिंदी की शक्ति का कैसे रचनात्मक प्रयोग किया जाना चाहिए। कहना होगा कि इस बाजारवादी अर्थव्यवस्था में भले ही अनेक खामियां हैं लेकिन हिंदी का भविष्य इस अर्थव्यवस्था में सुरक्षित है। हिंदी भाषा को इसी अर्थव्यवस्था ने पुनर्जीवित किया है। हमें आज यह समझना चाहिए कि हिंदी की शक्ति उसकी शुद्धता में नहीं, उसके व्यावहारिक प्रयोग में हैं। हिंदी की प्राणवत्ता अधिसंख्य समुदाय से जुड़ने में हैं न कि उसे कुछ निश्चित मानकों में समेटकर रखने में है।

संपर्क - दीपक शर्मा, शोधार्थी, हिंदी विभाग, दिल्ली वि२वविद्यालय, दिल्ली,  चलदूरभाष – 9811424200, ईमेल –





'मूक आवाज़' जर्नल से साभार

शनिवार, 9 नवंबर 2013

धाय मां अंग्रेजी ('मूक आवाज़' जर्नल में प्रमोद मीणा का संपादकीय)

मातृ देवी अंग्रेजी के प्रतिष्ठापक दलित स्तंभकार चंद्रभान प्रसाद की भाषा विषयक मान्यताएं विवादास्पद रही हैं किंतु असहमति को स्वीकृति प्रदान करना किसी भाषा भाषी समाज की जीवंतता और बड़प्पन का प्रतीक होना चाहिए। अस्तु, गुजराती के दलित कवि नीरव पटेल इस बहस में हिस्सा लेते हुए अपनी मातृभाषा गुजराती को अलविदा कहकर ‘धाय मां’ अंग्रेजी के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। उनकी यह स्थापना 2012 में गुजराती लेखक मंडल के जॉर्नल में उठाये गये इस प्रश्न के अप्रकाशित जबाव में आई है कि गुजराती वास्तव में किसकी भाषा है? यथार्थ में बात असल में यह है कि गुजराती भाषा की मानकता को लेकर चिंतित बौद्धिक-साहित्यिक जगत को इस बात पर आपत्ति है कि अल्प शिक्षित, ग्रामीण और निचली जातियों के लेखकों की कलम से भाषाई प्रदूषण फैल रहा है। मातृभाषा गुजराती की मानकता इस प्रकार के (दलित) लेखन से खंडित हो रही है। किंतु पटेल मातृभाषा की सार्वभौमिक अवधारणा पर ही प्रश्न चिन्ह खड़ा करते हैं। चाहे कोई भी भाषा हो, वह अपने बोलने वाले लोगों के मन में एक सदृश्य सम्मान का भाव नहीं जगा सकती। जाति-वर्ण में विभाजित भारतीय भाषाओं के संदर्भ में तो यह तथ्य और भी सटीक ठहरता है। अब दलित साहित्यकार के समक्ष इसमें कोई संदेह नहीं रह गया है कि मुख्यधारा की भारतीय भाषाएं दलितों के प्रति द्वेष भाव रखती आई हैं और इनके बरक्स सवर्ण जातीय संस्कृति से इन भाषाओं की सांठगांठ रही है। भाषा के मानकीकरण और शुद्धिकरण की मुहिम में ये भाषाएं दलितों और आदिवासियों से स्वयं को और दूर करती जाती हैं। दलित और आदिवासी जो भाषा बोलते हैं, उनके दुख-दर्द और पीड़ा जिस भाषा में मुखरित होते हैं, वह संस्कृतनिष्ठ मानक भाषा नहीं होती। दलित जातियों की भाषाएं उनके पेशों, मौखिक परंपराओं, उनके श्रम से विकसित उत्पादक वर्गों की भाषाएं हैं जबकि मानक भारतीय सुसंस्कृत भाषाएं परजीवी वर्ग की भाषाएं हैं। इन भाषाओं के साथ दलितों के उत्पीड़न-शोषण की जातीय स्मृतियां जुड़ी हुई हैं। पटेल अपनी मातृभाषा गुजराती के संदर्भ में इन मानक भारतीय भाषाओं के विपक्ष में दो तर्क विशेषतः देते हैं। एक तो उनका कहना है कि मानक भारतीय भाषाओं में दलित-आदिवासी जातियों का शोषित-वंचित यथार्थ नहीं झलकता और दूसरे इन मानक भाषाओं को सीखना एक दलित बालक के लिए उतना ही श्रमसाध्य है जितना कि एक विदेशी भाषा अंग्रेजी को ग्रहण करना। पटेल यह भी जोड़ते हैं कि चूंकि उनकी मातृभाषा मानक गुजराती नहीं है अतः स्वयं को सच्चा गुजराती साबित करने के लिए उनके लिए यह अपेक्षित है कि अपनी इस अमानक मातृभाषा का त्याग करें किंतु ऐसा करने पर उनकी दलित अस्मिता भी संकट में पड़ जायेगी क्योंकि मानक गुजराती एक संस्कृतनिष्ठ भारतीय भाषा है जिसका मूल चरित्र ही वर्णाश्रम व्यवस्था का पोषक रहा है। ऐसे में अगर कोई नई भाषा सीखनी ही है, तो दलित को अंग्रेजी सीखनी चाहिए क्योंकि वह अधिकारों की अंतर्राष्ट्रीय भाषा है। अंग्रेजी अस्पृश्यों-शोषितों के लिए न्याय और सशक्तिकरण की भाषा है। पटेल अंग्रेजी को धन्यवाद देते हैं कि उसने उन्हें वैज्ञानिक दृष्टिकोण दिया और उन्हें दमन-वंचना से मुक्ति की राह दिखाई। मानक भारतीय भाषाओं द्वारा दलितों-आदिवासियों की दोयम स्थिति पर ओढ़े गये मौन की परतों के नीचे उत्पीड़ितों का करूण कोलाहल दबा हुआ है। आप उच्च जातियों और उनकी मानक गुजराती (अन्य मानक भारतीय भाषाएं भी) के मध्य विद्यमान दुरभिसंधि की ओर साफ इशारा करते हैं जहां दलित और आदिवासी बारंबार स्वयं को बेगाना और अन्य महसूस करता है। मानक गुजराती या अन्य किसी मानक भारतीय भाषा की संस्कृतनिष्ठ बोझिलता और वर्चस्वशील प्रकृति के बरक्स अंग्रेजी अगर आज दलितों को अपनी ओर आकर्षित कर रही है, तो उसका कारण सिर्फ संस्कृत के ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक साये से मुक्त होने की चाह मात्र नहीं है अपितु इसकी पृष्ठभूमि में है - जातिविहीन आधुनिक अंग्रेजी भाषा के खुले आकाश में मध्ययुगीन सामंती जातीय जकड़बंदियों से मुक्त हो अपनी योग्यता और दमखम के साथ उड़ान भरने का खुला विकल्प। भारतीय राष्ट्रवाद के किंचित दक्षिणपंथी स्वघोषित प्रवक्ता अंग्रेजी को विदेशी उपनिवेशवाद की भाषा कहकर इस भाषा के प्रति आस्थावान दलितों को राष्ट्रदोही कहने से भी नहीं चूकते। इसमें कोई दो राय नहीं कि अंग्रेजी साम्राज्यवादी सत्ता की राजभाषा रही है किंतु श्वेत मालिकों की इस भाषा के साथ आप सर्वत्र भारतीय महानगरीय आभिजात्य तबके को आलिंगनबद्ध होते देख सकते हैं। लेकिन हम इतिहास का आंचल पकड़ कर अपनी दासता का रोना लेकर कब तक बैठे रह सकते हैं। आज अंग्रेजी भूमंडलीय अर्थव्यवस्था से जुड़ने और उसके फायदों को समेटने की ‘मास्टर चाबी’ है। भारतीय राष्ट्रवाद की शव साधना में दलित बच्चे ही अपने भविष्य की बलि देने को क्यों बाध्य किये जाते हैं? एक ओर उच्च जातियों और उच्च वर्गों के बच्चों के लिए अंग्रेजी माध्यम के सर्वसुविधा संपन्न पब्लिक स्कूल खोले जा रहे हैं, दूसरी ओर दलित और आदिवासी बच्चों को मातृभाषा में शिक्षा देने के आदर्श की आड़ में सरकारी विद्यालयों में उन पर संस्कृतनिष्ठ ब्राह्मणवादी भाषाएं लादी जा रही हैं। और यह सब हो रहा है उच्च जातीय भाषाई अध्यापकों की रोजी-रोटी को बचाये रखने के लिए, अकुशल साक्षर दलित-आदिवासी श्रमिकों का उत्पादन करने के लिए ताकि उन्हें कारखानों और खेतों में झौंका जा सके।

साहित्यिक हलकों में बहुधा अंग्रेजी के बारे में कहा जाता है कि यह एक बाहरी भाषा है अतः भारत की क्षेत्रीय और स्थानीय पहचान इसमें नहीं उभर सकती। औपनिवेशिक काल में इस फिरंगी भाषा ने अंग्रेजी सत्ता के हितों के संवर्धन का कार्य किया था। अंग्रेजी के नस्लीय चरित्र से भी इंकार नहीं किया जा सकता। किंतु दूसरी ओर क्षेत्रीयता, धर्म और जातीयता की क्षुद्रताओं से ऊपर उठकर यह सभी भारतीयों को समान अवसर उपलब्ध कराती है। एक ओर इसके वर्गीय चरित्र को बहुसंख्यक गरीब भारतीयों की पहुंच से बाहर बताया जाता है, तो दूसरी ओर अंतर्राष्ट्रीय भाषा होने के कारण विश्वस्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का माध्यम भी यही है। इसप्रकार इस भाषा को लेकर परस्पर विरोधी दृष्टिकोण समाज में साफ देखे जा सकते हैं। इन किंतु-परंतु के बावजूद दलित साहित्य अपने दरवाजे खोलकर अंग्रेजी के स्वागत में अपने पलक-पांवड़े बिछाये नजर आता है। विभिन्न भारतीय भाषाओं में लिखित दलित लेखकों की आत्मकथाओं के अंग्रेजी अनुवादों को पाठक वर्ग द्वारा हाथों-हाथ लिया जा रहा है। अंग्रेजी और तुलनात्मक साहित्य के विभागों में ये आत्मकथाएं पाठ्यक्रम का हिस्सा तक बनने लगी हैं। देशी-विदेशी विश्वविद्यालयों में भारतीय समाज की जड़ों तक जाने के लिए इन्हें अध्ययन का विषय बनाया जा रहा है। अंग्रेजी प्रकाशकों के लिए आज दलित साहित्य का अनुवाद छापना मुनाफे का सौदा बना हुआ है। शरण कुमार लिंबाले की मराठी आत्मकथा ‘अक्करमाशी’ हो या बामा की तमिल आत्मकथा ‘करूक्कु’ या फिर बलदेव माधोपुरी की पंजाबी आत्मकथा ‘छांग्या रूख’, ये सभी आज अंग्रेजी के माध्यम से अपने भाषाई क्षेत्र विशेष से बाहर निकलकर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तरों पर सराही जा रही हैं। अंग्रेजी ने दलित लेखकों के लिए पाठकों का एक व्यापक क्षितिज खोल दिया है। अनुवाद के माध्यम से अंग्रेजी ने दलित-आदिवासी लेखन और उनके समुदायों को आपबीती सुनाने का एक वैश्विक मंच मुहैया कराया है। परिधि पर स्थिति इन लेखकों को मुख्यधारा के साहित्य में परंपरागत सौंदर्य प्रतिमानों पर खड़ा न उतरने की कीमत गुमनामी में रहकर चुकानी पड़ती है। जातीय पूर्वाग्रहों के चलते उनके साहित्य को नकारने की प्रवृत्ति भी आम रही है। उदाहरण के लिए मराठी-हिंदी-तमिल की जातीयता की तुलना में सामाजिक-राजनीतिक कारणों के चलते गुजराती भाषाभाषी कहीं ज्यादा संकीर्ण और अनुदार मानसिकता के रहे हैं। और यही कारण है कि गुजराती के साहित्यिक परिदृश्य में दलित कलम को स्वीकृति का खाद-पानी मिल ही नहीं पाया। इसप्रकार की जड़ता की स्थिति में अंग्रेजी भाषा स्थानीय जातीवादी राजनीति का मुकाबला करने में दलित लेखन का सहारा बन सकती है। अंग्रेजी दलित लेखन को एक अखिल भारतीय पहचान दिलाने के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय सम्मान-पुरस्कार भी उसकी झोली में डालने की कुव्वत रखती है।

एक ओर अंग्रेजी अनुवाद से दलित लेखन को इतना मान-सम्मान और व्यापक पहचान उपलब्ध हो रही है, वहीं स्वयं अंग्रेजी भाषा भी इसप्रकार के अनुवाद से संपन्न हो रही है। उसके भारतीय वर्ग चरित्र में भी शनैः शनैः बदलाव आ रहा है। जिस अंग्रेजी को कल तक उच्च तबके के आभिजात्य दायरे तक सीमित माना जाता था और जिसमें भारतीय खुरदरे यथार्थ की तुलना में पोपुलर बैस्ट सेलर की घटिया पुस्तकें ही बिकती थीं, आज वह दलित-श्रमजीवी वर्ग के जातीय मुहावरों को विकसित कर रही है। यह अंग्रेजी दलित अभिव्यक्ति अपनी सीमाएं और मापदंड स्वयं तय कर रही है। आधुनिकता की जो भारतीय परियोजना जाति जैसी युगों पुरानी संस्था के अड़ियलपन के कारण अधूरी रह गयी थी, आज उस परियोजना को अपने अंजाम तक पहुंचाने में शासक वर्ग की भाषा अंग्रेजी के चरित्र में आ रहा यह बदलाव महत्वपूर्ण साबित हो सकता है। किंतु दलित साहित्य अंग्रेजी के सामने एक बड़ी चुनौति भी पेश कर रहा है। खांडे की धार पर लिखे जाने वाले दलित साहित्य में भाषा की जो धार और घुटन-पीड़ा-आंसू का जो खार होता है, अनुभति और अभिव्यक्ति का जो खड़ापन होता है, वह सात समंदर पार जन्मी व्यापारियों की भाषा में ज्यों का त्यों आ पाना लगभग असंभव ही है। दलित उत्पीड़न के सांस्कृतिक प्रतीकों और पददलित अस्मिता की ऊबड़-खाबड़ व्यंजनाओं के पर्यायवाची साहिबों की भाषा रही अंग्रेजी में आपको नहीं मिल सकते। किंतु इस भाषाई विकलांगता ने ही अंग्रेजी को मजबूर किया कि वह दलितों की अस्पृश्य भाषाओं की इन अभिव्यक्तियों को उनके पूरे भदेसपन के साथ गले लगाये। उदाहरण के लिए दलित आत्मकथाओं के अंग्रेजी अनुवादों में ‘अक्करमाशी’, ‘करूक्कु’ और ‘छांग्या रूख’ जैसी संज्ञाएं अपने मूलरूप में ही आती हैं। स्पष्ट है कि दलित साहित्य के लिए अंग्रेजी आगे बढ़ने की एक सीढ़ी अवश्य है किंतु वह अपनी शर्तों पर इस भाषा को अनुवाद की स्वीकृति प्रदान कर रहा है। किंतु चूंकि दलित साहित्य का मूल चारित्रिक वैशिष्ट्य उसकी भाषा में निहित है अतः अगर दलित कलम कल अंग्रेजी में ही सीधे स्वयं को अभिव्यक्त करने लगे, तो यह स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने सरीखा ही होगा।

‘हंस’ के माध्यम से प्रेमचंद की परंपरा और विरासत को आगे ले जाने वाले राजेंद्र यादव अक्टूबर के अंतिम सप्ताह में हमेंशा के लिए अलविदा कह गये। नयी कहानी आंदोलन की नेतृत्व त्रयी की यह अंतिम मशाल भी बुझ जाने से हिंदी साहित्य जगत में जो अंधेरा व्याप्त हो गया है, उससे इस दीपावली का अंधेरा और ज्यादा खरेगा। यद्यपि राजेंद्र यादव पिछले कुछ समय से अस्वस्थ थे किंतु किसी को यह आशंका न थी कि आप यों अचानक इतनी जल्दी रूख़सत कर जायेंगे। दो टूक बिना लाग लपेट के खरी-खरी कहने की अपनी प्रवृति के चलते राजेंद्र जी अपने पूरे जीवन विवादों के बीच रहे। लेकिन इन विवादों और बहसों ने हिंदी साहित्य जगत को जो जीवंतता दी है, उसके लिए हिंदी साहित्य सदैव आपका ऋणी रहेगा। तमाम आलोचनाओं के उपरांत भी राजेंद्र यादव ने अपने संपादन में हंस को जो लोकतांत्रिक ऊंचाई प्रदान की, वह हिंदी की भाई-भतीजावादी पत्र-पचिकाओं के मुंह पर एक तमाचे की तरह है। नवोदित लेखकों और विमर्शों के लिए राजेंद्र जी ने सदैव एक राह दिखाई। इसमें कोई दो राय नहीं कि हिंदी में दलित और स्त्री विमर्श वाया राजेंद्र यादव आये हैं। अल्पसंख्यक और आदिवासी साहित्यकारों को भी इधर काफी प्रोत्साहन आप से मिल रहा था।

'मूक आवाज़' जर्नल से साभार

 









शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2013

World's languages at Gujarat tower of Babel

In 1898, an Irish linguist, George Abraham Grierson, took up the first-ever Linguistic Survey of India. Over three years, he would come up with a record of 179 languages and many more dialects spoken in pre-Independence India. In 2005-06, more than 100 years later, the Human Resources Development Ministry attempted a similar feat, setting up a 'Bharat Bhasha Vikas Yojana'. The project was dropped due to technical reasons. In 2007, the government again proposed to conduct what it called the New Linguistic Survey of India. The project did not take off.

In 2009, the Bhasha Research and Publication Centre, a Vadodara-based NGO, took up the task. After what can easily be called the largest-ever survey of languages in the world, spread over four years, involving around 85 institutions, roping in as many linguists, sociologists, anthropologists and cultural activists, and tapping over 3,000 volunteers, the centre has compiled its findings. In the year 2013, shows the 'People's Linguistic Survey of India (PLSI)', there are 780 languages spoken across the length and breadth of the country. In contrast, the 2001 Census listed just 122 languages.

While the Census does not put on record languages spoken by less than 10,000 people, the Bhasha chronicles, or at least attempts to, every single language in India, however few the numbers who speak it. More than 400 of these languages are spoken by tribals and nomadic-denotified tribes. If Hindi is spoken by around 40 crore people, Majhi has just four practitioners, living in Sikkim's Jorethang valley.

The result is a compilation in 68 volumes spread over 35,000 pages, to be dedicated to the nation on September 5, the birth anniversary of India's first vice-president, Dr S Radhakrishnan, celebrated as Teachers' Day.

Around 96 per cent of these languages have never been mentioned, forget spoken, in India's seat of democracy, the Parliament, says academic and activist Ganesh Devy, the man behind the project.

"We are not here to dig up any graveyard of languages but to celebrate and admire the finest of languages that India has. Languages are made and maintained by people through songs, stories, words, and we have tried to capture them," he says.

Devy was chairman of the Committee on Non-Scheduled Languages formed by the HRD Ministry when it mooted the idea of the Bharat Bhasha Vikas Yojana. A professor of English literature at the Maharaja Sayajirao University of Baroda, Devy had earlier quit his job to launch the Bhasha Research Centre in the tribal village of Tejgadh in Vadodara district in 1996, with a focus on conserving and promoting non-scheduled languages and empowering tribal and nomadic communities.

In order to ensure easy and authentic access to languages spoken by disparate communities as part of their linguistic survey, the centre involved people of those particular communities or region. The volunteers were told not just to trace the language but to establish the time period of its evolution, how it had survived in culture, literature, songs, rituals, words of endearment, kinship etc, or in names for weekdays or colours and words in daily life.

"We call it the 'people's' survey to differentiate it from a government survey, and also to indicate that people from various communities were involved," says Devy. The project did not seek any government assistance in terms of funds and cost around Rs 1 crore.

While the actual survey took four years, it took over a decade to evolve the format, particularly as no other language survey of this scale had been done before in India, he says.

Their surveyors visited communities, worked with them to understand their unique qualities, as well as scouted for volunteers from among them, through formal and informal meetings.

After this process of several years, a network of volunteers for every part of the country was created. The volunteers were then trained to formulate questionnaires of their own for people of their community. "A description of the self", as a linguist put it.

Several meetings were conducted with representatives of different languages in 2010 and then again in 2012 to engage them. The January 2012 meeting in Vadodara saw participation from representatives of over 900 languages from different parts of the world. Overseas participants were involved so that linguists working on the project could understand their literature, culture, and various discourses surrounding their language. Interactions were held to help evolve a theoretical linguistic base for the survey.

When they started the groundwork, the surveyors were in for surprises. Like the fact that tiny Arunachal Pradesh has the largest number of languages spoken in a state (90), while Goa has just three. A total of seven languages each are spoken in Punjab and Haryana, while more than 50 are spoken in Gujarat, Maharashtra and Assam each.

The survey would stumble on languages never before put on record. Gorpa, a language spoken in Dadra & Nagar Haveli, for example, represents the vibrant cultural life of a community of fishermen involved in agriculture in coastal areas.

"It was not easy to find the right person from the community who could talk about Gorpa as younger members mainly speak Gujarati and know little about their language. Older members of the community, who did not know Gujarati at all, told us a lot after we approached them," says Kanti Mahale, one of the volunteers. Volunteers like him worked for over a month on each language.

Balaram Pandey, who worked on the anthology of languages in Sikkim, says at least three out of the 15 languages recorded in the state—Phujel, Majhi, and Thani—were never talked about as being spoken there. Very few who remain now know the language.

"Majhi, a language spoken by a handful of people, is surviving in its folk heritage. The younger generation now speaks Hindi, English and Nepali," says Pandey. The language was traced using the ethnographic record of the state government. "We tried to find out the phonetic structure of a language that was never supposed to exist on record," he says.

Dr Bibha Bharali, who teaches Assamese at the Department of Assamese, Gauhati University, compiled the volume for Assam, with about 75 people recording about 55 languages.

Hardly 300 persons in Kashmir speak Burushaski, a language carried to the region by migrants from the Gilgit-Baltistan region of Pakistan, bordering Afghanistan, says linguist Omkar Koul, the former director of the Central Institute of Indian Languages, Mysore, who worked on the volume for Jammu and Kashmir with the help of about 15 scholars.

"The community speaking Burushaski settled here some 125 years ago, but has preserved its language and culture," Koul says.

Publisher Arun Jakhade, who compiled the Maharashtra volume of the survey with about 70 persons, says of the 60 languages placed on record from the state, several are on the verge of extinction. "Mehali is spoken by hardly 130 people in a region in Buldhana district, while Noling is limited to just one village. Several languages are getting marginalised as communities are losing cultural and social respect for their languages and are, in large numbers, embracing languages existing in the mainstream," says Jakhade.

Dr Shekhar Pathak, an environmentalist and his wife, Dr Usha, compiled the Uttarakhand volume with the help of about 30 people.

The survey also traces communities which have lost their language even though they continue to preserve their culture through dance and other folk traditions. Litterateur Kanaji Patel, who compiled the Gujarat part, gives the example of Siddi community, which migrated from Southeast Africa to settle in different parts of India, including the coastal regions in Gujarat and Maharashtra. "They have their dance, musical instruments intact, but have lost their language," Patel says.

A nomadic community called the Naika, living in a forest area in tribal-dominated Lunawada taluka of Panchmahals district, is only precariously holding on to the remains of its language. "They have no thoughts about their language," Patel says, before going on to add why that may be the case. "They have no forest, no land to till, no job either because they are counted as OBC and cannot compete with their peers."

Based in the north, central and parts of south Gujarat, Naikas are not the only ones slowly losing their mother tongue though. Despite at least 53 languages spoken by as many communities in Gujarat, the over-dominance of Gujarati, like the over-dominance of other languages in the country, leaves little space for these to grow.

On the other end, says Patel, are the Kolis of Gujarat, living mainly in the coastal regions in Saurashtra and Kutch, who have preserved their vibrant language. "As many as 30,000 people from this nomadic group speak Koli in Gujarat," he says.

The surveyors were struck by examples of communities who refused to own up to their languages so as not to reveal their identity. Such communities belong mainly to denotified tribes who were once tagged criminals by the British and continue to be perceived so by the police and society at large. "They fear that their language will reveal their identity, which will give a chance to the police to go after them," Patel says.

Against the onslaught of outside influences, their work couldn't be more important or relevant, the linguists stay. With development, people tend to throw away their own language and embrace the language of the mainstream. Recognition of their intangible linguistic heritage, particularly if it is perceived to be marginalised, can help a community realise its own potential and assert its status, they say.

"People using these languages are overawed by the dominant language," Patel says. "Empowering people is possible by giving them their language."

इंडियन एक्सप्रेस से साभार









बुधवार, 11 सितंबर 2013

'India four times wealthier than Europe in terms of languages'



NEW DELHI: India is four times richer than Europe, in terms of language, with Indians able to express themselves in over 850 languages as compared to Europeans who can speak only about 250 languages, according to findings of the People's Linguistic Survey of India (PLSI).

"England has not more than four or five languages of its own at the most. Out of those only two - English and Welsh - are doing well. Meanwhile a state like Assam which is more or less the size of England has a good 52 languages," says Ganesh Devy a noted linguist and chairman of PLSI.

Devy, draws a contrast with Paris headquartered UNESCO, an organisation that seeks to promote many languages, which allows but five languages in its deliberations.

"On the other hand Indian courts and offices allow use of 22 languages," says the linguist who recently completed an ambitious survey in the country, which identified 860 Indian languages.

"In India we have several hundred living languages. It could be more than 850, out of which we were able to study 780 languages. And if the benchmark is the 1961 census we have lost 250 languages in last 50 years," he says in the survey carried after over 100 years after George Abraham Grierson under British Raj undertook such an exercise in the country.

The survey was spearheaded by Vadodara-based Bhasha Research and Publication Centre, which has already released "Maharashtratil Bhasha", a Marathi volume on languages. 49 more such volumes are scheduled to be released here on September 5.

Columnist Arun Jakhde, who published the Maharashtra volume of the survey, says the survey celebrates the diversity of the country and is not a lament on the lost languages.

"For me, 60 languages which we surveyed in Maharashtra are 60 different sounds (dhwani) through which my state should be identified," he says.

Jakhde points out that he did not go by conventional definitions of dialects and languages.

"In the PLSI, we decided not to stigmatise languages which communities wanted to claim as 'languages' by calling them dialects merely because they had not got into any written form. Writing and scripts are a later day acquisitions of languages," Jakhde says.

Pointing out that for about the first 65,000 years of the history of human languages, all languages in world remained non-written and non-scripted.

"Given these facts, I have no difficulty in minimising the importance of the correspondence between oral languages and dialects," he says.

"You may recall the George Bernard Shaw's 'Pigmallion', or the later day Willy Russel's 'Educating Rita'. These books amply demonstrate show how unscientific the notion of dialect is. When a language gets into print, the varieties that do not get printed come to be seen as dialects," he explains.

Jakhde points out that Grierson in his "Linguistic Survey of India" had used the term dialect quite generously.

"He classified nearly three out of every four speech varieties that he examined as dialects," says Jakhde.

A Unesco Linguapax laureate, 63-year-old Devy says, "We have prepared a baseline and it's a first survey of living languages in India. We have also collected grammars and dictionary of about 400 languages."

The survey, which began in 2010, has compiled a total of 50 volumes and 68 books that document various languages in the country, including sign languages used by transgenders and even thieves.

Devy says "The Koti language of transgenders and the 'Narsi-Farsi' code used by some denotified communities are more evolved than the telegraphy code used until recently in India and outside."

"While the Morse code used for telegrams was able to translate only words or simple sentences into simple manageable signals, the Koti code can be used to crack jokes and the Narsi Farsi is capable of creating stories. So these two are not entirely code languages in their nascent rudimentary form," Devy says.

According to the language survey PLSI found Arunachal to contain the 90 languages but Goa speaks only three languages.

In metros like Delhi, Kolkata, Hyderabad, Chennai people speak more than 300 languages, finds the survey.

"Over 400 languages is spoken by nomads and denotified communities. And many of them don't want to associate themselves with their language because they fear it can reveal their identity and may get them into trouble," Devy says.

Meanwhile, editor of the Maharashtra chapter, Jakhade says "In south Maharashtra we have met some communities who want to join the mainstream and want to forget their own language."

On the issue of scripts used in languages, Devy says no other country has ever created and used so many scripts.

"India uses 66 scripts and West Bengal takes the cake in this with 9 scripts in use," he says.

The PLSI survey has recorded more number of languages that the 2001 census 2001, which has provided data of only 122 languages.

"After Bangladesh war in 1971 the government decided not to record languages which are spoken by less than 10,000 people," he points out.

"Government then felt that India might fragment if it acknowledged too many languages," Jhakade says.

The PLSI has recorded even Majhi in Sikkim, a language which is spoken by only four people.

Jhakade says "a word is library of the experience of hundreds of years" and "every language presents a unique world view."

Taking about the survey, Devy says, "We have managed to complete the entire work in about Rs 1.50 crore with about 3000 linguists, academicians, school teachers, farmer, nomads and volunteers. When the Government had plans of carrying out a linguistic survey in 2007-08, they had projected an estimate of expenditure at Rs 600 crore. Those plans did not move beyond the initial stage."

A professor of English literature at the Maharaja Sayajirao University of Vadodara Devi, Devy quit his job and founded in 1996 the Bhasha Trust which works for empowerment of Tribal communities of India and protection of human rights of Denotified and Nomadic tribes.